+ ज्ञान के भेद -
मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥9॥
अन्वयार्थ : मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान हैं ॥९॥
Meaning : Primarily the Right-knowledge is classified as Mati-jnana (Sensory perception), Sruta-jnana (Scriptural knowledge), Avadhi-jnana (Clairvoyant perception), Manahparyayajnana (Telepathic perception) and Kevala-jnana (Omniscience).

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

सूत्र में ज्ञान शब्‍द मति आदि प्रत्‍येक शब्‍दके साथ जोड़ लेना चाहिए । यथा - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ।

मति का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - 'इन्द्रियैर्मनसा च यथा स्‍वमर्थो मन्‍यते अनया मनुते मननमात्रं वा मति:' = इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्‍य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है या मननमात्र मति कहलाता है ।

श्रुत का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - 'तदावरणकर्मक्षयोपशमे सति निरूप्‍यमाणं श्रूयते अनेन श्रृणोति श्रवणमात्रं वा श्रुतम्' = श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर निरूप्‍यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुननामात्र श्रुत कहलाता है। मति और श्रुत इन दोनों ज्ञानों का समीप में निर्देश किया है क्‍योंकि इनमें कार्य-कारणभाव पाया जाता है । जैसा कि आगे कहेंगे 'श्रुतं मतिपूर्वम् ।' अवधि का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ = अधिकतर नीचे के विषय को जानने वाला होने से या परिमित विषयवाला होनेसे अवधि कहलाता है ।

मन:पर्यय का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ = दूसरे के मनोगत अर्थ को मन कहते हैं । सम्‍बन्‍ध से उसका पर्ययण अर्थात् परिगमन करनेवाला ज्ञान मन:पर्यय कहलाता है ।

शंका – मन:पर्यय ज्ञान का इस प्रकार लक्षण करने पर उसे मतिज्ञान का प्रसंग प्राप्‍त होता है ?

समाधान –
नहीं, क्‍योंकि मन:पर्ययज्ञान में मन की अपेक्षामात्र है । यद्यपि वह केवल बढ़ी हुई क्षयोपशम शक्ति से अपना काम करता है तो भी केवल स्‍व और पर के मन की अपेक्षा उसका व्‍यवहार किया जाता है। यथा- 'आकाश में चन्‍द्रमा देखो' यहाँ आकाश की अपेक्षामात्र होने से ऐसा व्‍यवहार किया गया है ।

केवल का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ =अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और आभ्‍यन्‍तर तप के द्वारा मार्ग का केवन अर्थात् सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है । अथवा केवल शब्‍द असहायवाची है, इसलिए असहाय ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं । केवलज्ञानकी प्राप्ति अन्‍त में होती है इसलिए सूत्रमें उसका पाठ सबके अन्‍तर में रखा है । उसके समीप का होने से उसके समीपमें मन:पर्यय का ग्रहण किया है ।

शंका – मन:पर्यय केवलज्ञान के समीप का क्‍यों है ?

समाधान –
क्‍योंकि इन दोनों का संयम ही एक आधार है, अतएव मन:पर्यय केवलज्ञान के समीप का है । अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान से दूर है, इसलिए उसका मन:पर्ययज्ञान के पहले पाठ रखा है ।

शंका – मन:पर्ययज्ञान से अवधिज्ञान को दूर का क्‍यों कहा ?

समाधान –
क्‍योंकि अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान से अत्‍यन्‍त दूर है । प्रत्‍यक्ष से परोक्ष का पहले कथन किया, क्‍योंकि वह सुगम है । चूँकि मति-श्रुतपद्धति श्रुत, परिचित और अनुभूत होने से प्राय: सब प्राणियों के द्वारा प्राप्‍त करने योग्‍य है अत: वह सुगम है । इस प्रकार यह पाँच प्रकार का ज्ञान है। इसके भेद आदि आगे कहेंगे ।



प्रमाण और नय से ज्ञान होता है यह पहले कह आये हैं। किन्‍हीं ने ज्ञान को प्रमाण माना है, किन्‍हीं ने सन्निकर्ष को और किन्‍हीं ने इन्द्रिय को। अत: अधिकार प्राप्‍त मत्‍यादिक ही प्रमाण हैं इस बात को दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -
राजवार्तिक :

1. मत्यावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर इन्द्रिय और मन की सहायता से अर्थों का मनन मति है। यह 'मननं मतिः' भावसाधन है। 'मनुते अर्थान् मतिः' यह कर्तृसाधन भी स्वतन्त्र विवक्षा में होता है। 'मन्यते अनेन' यह करण-साधन भी मति शब्द होता है। ज्ञान और आत्मा की भेद-अभेद विवक्षा में तीनों प्रकार बन जाते हैं।

2. श्रुत शब्द कर्मसाधन भी होता है । श्रुतावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर जो सुना जाय वह श्रुत । कर्तृसाधन में श्रुतपरिणत आत्मा श्रुत है। करण विवक्षा में जिससे सुना जाय वह श्रुत है । भावसाधन में श्रवणक्रिया श्रुत है।

3. अव पूर्वक धा धातु से कर्म आदि साधनों में अवधि शब्द बनता है। 'अव' शब्द 'अधः' वाची है जैसे अधःक्षेपण को अवक्षेपण कहते हैं: अवधिज्ञान भी नीचे की ओर बहुत पदार्थों को विषय करता है । अथवा, अवधिशब्द मर्यादार्थक है अर्थात् द्रव्यक्षेत्रादि की मर्यादा से सीमित ज्ञान अवधिज्ञान है । यद्यपि केवलज्ञान के सिवाय सभी ज्ञान सीमित हैं फिर भी रूढ़िवश इसी ज्ञान को अवधिज्ञान-सीमितज्ञान कहते हैं। जैसे गतिशील सभी पदार्थ हैं पर गाय ही रूढ़िवश गौ (गच्छतीति गौः) कही जाती है।

4. मनःपर्यय-ज्ञानावरण के क्षयोपशम होने पर दूसरे के मनोगत अर्थ को जानना मनःपर्यय है । पर मनोगत अर्थ को मन कहते हैं, मन में रहने के कारण वह अर्थ मन कहलाता है । अर्थात् मनोविचार का विषय भावघट आदि को विशुद्धिवश जान लेना मनःपर्यय है।

5. प्रश्न – आगम में 'मनसा मनः संपरिचिन्त्य-अर्थात् मन के द्वारा मन को विचारकर' ऐसा कथन है अतः मनोनिमित्त होने से इसे मानस मतिज्ञान कहना चाहिए ?

उत्तर –
जैसे आकाश में चन्द्र को देखने में आकाश की साधारण अपेक्षा होती है उसी तरह मनःपर्यय ज्ञान में मन अपेक्षा मात्र है जैसे मन मतिज्ञान में कारण होता है उस तरह यहां कारण नहीं है क्योंकि मनःपर्यय मात्र आत्मविशुद्धिजन्य है।

6-7. जिसके लिए बाह्य और आभ्यन्तर विविध-प्रकार के तप तपे जाते हैं वह लक्ष्यभूत केवलज्ञान है । जैसे 'केवल अन्न खाता है' यहां केवल शब्द असहाय अर्थ में है अर्थात् असहाय शाक आदि रहित अन्न खाता है उसी तरह केवल अर्थात् क्षायोपशमिक आदि ज्ञानों की सहायता से रहित असहाय केवल ज्ञान है। यह रूढ़ शब्द है ।

8-9. जैनमत में जिस प्रकार ज्ञान करण आदि साधनों में निष्पन्न होता है अन्य एकान्तवादियों के यहां ज्ञान की करणादि साधनता नहीं बन सकती।

10. जो बौद्ध आत्मा का ही अस्तित्व नहीं मानते उनके यहां कर्ता का अभाव होने से ज्ञान में 'ज्ञायते अनेन' यह करण प्रयोग नहीं हो सकता। फरसे के प्रयोग करनेवाले देवदत्त के रहने पर ही फरसा छेदन क्रिया का करण कहा जा सकता है। इसी तरह 'ज्ञातिनिम्' यह भाव साधन भी नहीं बन सकता; क्योंकि भाववान् के अभाव में भाव की सत्ता नहीं रह सकती। 'जानातीति ज्ञानम्' इस तरह ज्ञान को कर्तृसाधन कहना भी उचित नहीं हैं क्योंकि जब सभी पदार्थ निरीह हैं एक दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते तब निरीह पदार्थ कर्ता कैसे बन सकता है ? फिर, पूर्व और उत्तर पर्याय की अपेक्षा रखनेवाला पदार्थ कर्ता होता है । क्षणिक ज्ञान तो पूर्वोत्तर की अपेक्षा नहीं रखता अतः निरपेक्ष होने के कारण कर्ता नहीं बन सकता । संसार में करण के व्यापार की अपेक्षा रखनेवाला पदार्थ कर्ता होता है, पर ज्ञान के लिए कोई अन्य करण तो है ही नहीं अतः वह कर्ता नहीं बन सकता । स्वशक्ति को करण कहना तो उचित नहीं है। क्योंकि शक्ति और शक्तिमान में भेद मानने पर शक्तिमान् की जगह आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जायगा। अभेद मानने पर तो वही कर्तत्वाभाव नामक दोष आता है। सन्तान की अपेक्षा पूर्व-क्षण को कर्ता और उत्तर-क्षण को करण मानकर व्यवस्था बनाना भी उचित नहीं है; क्योंकि सन्तान यदि परमार्थ है, तो आत्मा की सिद्धि हो जाती है। यदि मिथ्या है; तो मृषावाद हो जायगा । सन्तान यदि क्षणों से भिन्न है; तो उन क्षणों से कोई वास्तविक सम्बन्ध न होने के कारण वह 'उनकी' सन्तान नहीं कही जा सकती। यदि अभिन्न है तो क्षणों की तरह परस्पर निरन्वय रहने के कारण पूर्वोक्त दोष बने रहेंगे। मन रूप इन्द्रिय को करण कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि उसमें वह शक्ति ही नहीं है। "छहों ज्ञानों के लिए एक क्षण पूर्व का ज्ञान मन होता है" यह उनका सिद्धान्त है । इसीलिए अतीतज्ञान रूप मन इन्द्रिय भी नहीं हो सकता। जो ज्ञान उत्पन्न हो रहा है तत्समकालीन को भी करण नहीं कह सकते ; क्योंकि समसमयवालों में कार्य कारण व्यवहार नहीं बन सकता जैसे कि एक साथ उत्पन्न होनेवाले दाएं बाएं दो सींगों में परस्पर । ज्ञान में 'ज्ञा-जानना' इस प्रकृति को छोड़कर अन्य कोई अंश तो है नहीं जो 'जाननेवाला' बनकर कर्ता हो सके। क्षणिकवादी के मत में कर्तृत्व जब एक क्षणवर्ती है तब वह अनेक क्षणवर्ती 'कर्तृ' शब्द से कहा ही कैसे जायगा ? 'कर्तृ' शब्द भी जब एकक्षणवर्ती नहीं है तब वाचक कैसे बन सकता है ? सन्तान की दृष्टि से वाच्यवाचक सम्बन्ध बनाना भी समुचित नहीं है क्योंकि सन्तान अवास्तविक है । तत्त्व को सर्वथा अवाच्य कहना तो नितान्त अनुचित है क्योंकि अवाच्य पक्ष में उसे 'अवाच्य' शब्द से भी नहीं कह सकेंगे, अतः तत्त्व-प्रतिपत्ति के उपाय का भी लोप हो जायगा । किंच, कर्तृसाधन और करणसाधन दोनों को जाननेवाला एक व्यक्ति ही यह भेद कर सकता है कि 'ज्ञान कर्तृसाधन है, करणसाधन नहीं है' जब क्षणिकवादी के यहाँ प्रत्येक ज्ञान एक अर्थ को विषय करनेवाला और क्षणिक है तब निर्णय ही नहीं हो सकेगा। जो व्यक्ति सफेद और काले को नहीं जानता वह 'यह काला है सफेद नहीं' यह विधिनिषेध कर ही नहीं सकता।

11. आत्मा का अस्तित्व मानकर भी यदि उसे निरतिशय अविकारी नित्य माना जाता है तो भी ज्ञान में करणसाधनता आदि सिद्ध नहीं हो सकते ; क्योंकि अपरिणामी आत्मा से ज्ञान आदि परिणामों का सम्बन्ध ही नहीं बन पाता। जब आत्मा एक स्वतन्त्र पदार्थ है तथा आत्मा इन्द्रिय, मन और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान भी स्वतन्त्र; तब ज्ञान आत्मा का करण कैसे बन सकता है क्योंकि दोनों निरपेक्ष होने से परस्पर सम्बन्धी नहीं हो सकते । जिसप्रकार छेदनेवाले देवदत्त से करणभूत फरसा कठोर, तीक्ष्ण आदि रूप से अपना पृथक अस्तित्व रखता है उसतरह ज्ञान का पृथक् सिद्ध कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता जिससे उसे करण बनाया जाय। फरसा भी तब करण बनता है जब वह देवदत्तकृत ऊपर उठने और नीचे गिरकर लकड़ी के भीतर घुसने रूप व्यापार की अपेक्षा रखता है, किन्तु ज्ञान में कर्ता के द्वारा की जानेवाली कोई क्रिया नहीं दिखाई देती जिसकी अपेक्षा रखने के कारण उसे करण कहा जाय । स्वयं छेदनक्रिया में परिणत देवदत्त अपनी सहायता के लिए फरसे को लेता है और इसीलिए फरसा करण कहलाता है पर यहाँ आत्मा स्वयं ज्ञानक्रिया रूप से परिणति ही नहीं करता । क्योंकि ज्ञान स्वतन्त्र पदार्थ है । यदि ज्ञान आत्मा से भिन्न है तो आत्मा घटादि पदार्थों की तरह अज्ञ अर्थात् ज्ञानशून्य जड़ हो जायगा । दंडे के सम्बन्ध से दंडी की तरह सम्बन्ध कल्पना उचित नहीं है क्योंकि जब आत्मा स्वयं ज्ञानस्वभाव नहीं है तब ज्ञान का सम्बन्ध आत्मा से ही हो मन या इन्द्रिय से नहीं, यह प्रतिनियम ही नहीं बन सकता । फिर, दण्ड और दण्डी दोनों अपने-अपने लक्षणों से पृथक् सिद्ध हैं अतः उनका सम्बन्ध तो समझ में आता है पर आत्मा से भिन्न ज्ञान की या ज्ञानशून्य आत्मा की जब स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध नहीं होती तब उनमें दण्डदण्डि की तरह सम्बन्ध कैसे बन सकता है ? ज्ञान के उत्पन्न होने पर भी यदि आत्मा में हिताहित विचाररूप परिणमन नहीं होता तो ज्ञान आत्मा का विशेषण कैसे बन सकता है ? दो अंधों के संयोग से जैसे रूप दर्शन की शक्ति नहीं आ सकती वसे ही ज्ञानशून्य आत्मा और ज्ञान के सम्बन्ध से 'ज्ञ' व्यवहार नहीं हो सकेगा। किंच, यदि 'जिनके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान' ऐसा निर्वचन किया जाता है तो इन्द्रिय और मन में ज्ञानत्व का प्रसंग आता है। क्योंकि इनके द्वारा भी जाना जाता है। किंच, आत्मा सर्वगत होने से क्रियाशून्य है और ज्ञान गुण होने से क्रियारहित है क्योंकि क्रियावाला द्रव्य ही होता है, अतः दोनों क्रियारहित पदार्थों में न तो कर्तृत्व बन सकता है और न करणत्व ही।

सांख्य पुरुष को प्रकृति से भिन्न नित्य शुद्ध और निर्विकार कहते हैं। इनके मत में भी ज्ञान करण नहीं हो सकता। इन्द्रिय मन अहङ्कार और महान् तत्त्वों के आलोचन, संकल्प, अभिमान और अध्यवसायात्मक व्यापाररूप बुद्धि प्रकृतितत्त्व है पुरुष इससे भिन्न नित्य, शुद्ध और अविकारी है। बुद्धि ऐसे पुरुष का करण कैसे बन सकती है ? क्रियापरिणत देवदत्त को ही करण की आवश्यकता लोक में प्रसिद्ध है। इसी तरह ज्ञान कर्तृसाधन नहीं बन सकता। करणरूप से प्रसिद्ध तलवार आदि की तीक्ष्णता आदि गुणों की प्रशंसा में 'तलवार ने छेद दिया' इस प्रकार का कर्तृत्वधर्म का अध्यारोपण करके कर्तृसाधन प्रयोग होता है किन्तु यहाँ जब ज्ञान की करणरूप से सिद्धि ही नहीं है तब इसमें कर्तृत्व धर्म का आरोप करके करण प्रयोग कैसे हो सकता है ? ज्ञान 'भावसाधन' भी नहीं हो सकता । जिन चावल आदि पदार्थों में स्वतः विक्रियास्वभाव है उन्हीं में पचनक्रिया देखकर 'पचनं पाकः' यह क्रियाप्रधान भावप्रयोग होता है आकाश आदि में नहीं । अतः परिणमन-रहित अविकारी ज्ञान में क्रियाप्रधान भावप्रयोग नहीं हो सकता । किंच, ज्ञान को प्रमाण माना जाता है । अतः जब तक उससे कोई अन्य अवबोध या फलात्मक ज्ञान उत्पन्न नहीं होगा तब तक उस ज्ञान का 'ज्ञातिनिम्' ऐसा भावसाधन निर्देश नहीं हो सकता।

बौद्धों का यह कहना उचित नहीं है कि - 'अधिगम भिन्न पदार्थ नहीं है अतः फल में ही प्रमाणता का आरोप कर लेना चाहिए' क्योंकि मुख्य वस्तु के रहने पर ही अन्यत्र आरोपकल्पना होती है, किन्तु यहां मुख्य प्रमाण पृथक् सिद्ध ही नहीं है। एक ही ज्ञान में आकार-भेद से प्रमाण-फल भाव की कल्पना भी उचित नहीं है; क्योंकि आकार और आकारवान् में भेद और अभेद पक्ष में अनेक दोष आते हैं। निरंश तत्त्व में आकारभेद की कल्पना भी उचित नहीं है । ज्ञानवाद में बाह्य-वस्तुओं के आकार के अभाव में अन्तरंग ज्ञान में आकार आ ही नहीं सकता।

जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तु अनेकधर्मात्मक है। अतः पर्यायभेद से एक ही ज्ञान कर्तृ, करण और भाव साधन बन सकता है।

12. मति आदि प्रत्येक में 'ज्ञान' का अन्वय कर लेना चाहिए। 'द्वन्द्व समास में आदि या अन्त में प्रयुक्त शब्द का सबके साथ अन्वय होता है' यह व्याकरणशास्त्र का प्रसिद्ध नियम है। केवलानि ज्ञानम् में सामानाधिकरण्य होने पर भी चूंकि 'ज्ञान' शब्द उपात्तसंख्यक है अतः एकवचन ही रहा है बहुवचन नहीं हुआ।

13. मति शब्द धिसंज्ञक है अल्पाक्षर है और मतिज्ञान अल्पविषयक है अत: उसका सर्वप्रथम ग्रहण किया गया है ।

14-16. चूंकि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है अतः मति के बाद श्रुत का ग्रहण किया है। मति और श्रुत का विषय बराबर है और नारद और पर्वत की तरह दोनों सहभावी है अतः दोनों का पास-पास निर्देश हुआ है ।

17-20. तीनों प्रत्यक्षों में अवधिज्ञान सबसे कम विशुद्धिवाला है अतः इसका सर्वप्रथम निर्देश है इससे विशुद्धतर होने के कारण संयमी जीवों के ही होनेवाले मनःपर्यय का ग्रहण किया है। सबके अन्त में केवलज्ञान का निर्देश है क्योंकि इससे बड़ा कोई ज्ञान नहीं है । केवल ज्ञान अन्य सब ज्ञानों को जान सकता है पर केवलज्ञान को जाननेवाला उससे बड़ा दूसरा ज्ञान नहीं है। चूंकि केवलज्ञान के साथ ही निर्वाण होता है न कि क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानों के साथ । इसलिए भी इसका अन्त में निर्देश किया है।

21-25. प्रश्न – चूंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों सहचारी है और एक व्यक्ति में युगपत् पाए जाते हैं अतः दोनों में कोई विशेषता न होने से दोनों को एक ही कहना चाहिए ?

उत्तर –
साहचर्य तथा एक व्यक्ति में दोनों के युगपत् रहन से ही यह सिद्ध होता है कि दोनों जदे-जुदे हैं, क्योंकि दोनों बातें भिन्न सत्तावाले पदार्थों में ही होती हैं। मतिपूर्वक श्रुत होता है, इसलिए दोनों की कारण-कार्यरूप से विशेषता सिद्ध है ही। "कारण के सदृश ही कार्य होता है, चूंकि श्रुत मतिपूर्वक हुआ है अतः उसे भी मतिरूप ही कहना चाहिए। सम्यग्दर्शन होने पर कुमति और कुश्रुत को युगपत् ज्ञानव्यपदेश प्राप्त होता है, अतः दोनों एक ही कहना चाहिए" यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि जिन कारणसदृशत्व और युगपद्वृत्ति हेतुओं से आप एकत्व सिद्ध करना चाहते हो उन्हीं से उनमें भिन्नता सिद्ध होती है। सादृश्य और युगपवृत्ति पृथसिद्ध पदार्थो में ही होते हैं। यद्यपि मति और श्रुत का विषय समान है परन्तु जानने के प्रकार जुदा-जुदा हैं। विषय एक होने से ज्ञानों में एकता नहीं हो सकती, अन्यथा एक घटविषयक दर्शन और स्पर्शन में भी एकत्व हो जायगा।

26-29. प्रश्न – मति और श्रुत दोनों इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होते हैं, मति की तरह श्रुत भी वक्ता की जिह्वा और श्रोता के कान और मन से उत्पन्न होता है। अतः एक कारणजन्य होने से दोनों एक हैं ?

उत्तर –
एककारणता असिद्ध है। वक्ता की जीभ शब्दोस्चारण में निमित्त होती है न कि ज्ञान में। श्रोता का कान भी शब्द प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान में निमित्त होता है न कि अर्थज्ञान में, अतः श्रुत में इन्द्रिय और मनोनिमित्तता असिद्ध है। शब्द सुनने के बाद जो मन से ही अर्थज्ञान होता है वह श्रुत है अतः श्रुत अनिन्द्रियनिमित्तक है । यद्यपि ईहादि ज्ञान भी मनोजन्य होते हैं किन्तु वे मात्र अवग्रह के द्वारा गृहीत ही पदार्थ को जानते हैं जब कि श्रुतज्ञान अपूर्व पदार्थ को भी विषय करता है । एक घड़े को इन्द्रिय और मन से जानकर तज्जातीय विभिन्न देशकालवर्ती घटों के सम्बन्ध जाति आदि का विचार भी श्रुत से होता है। श्रुतज्ञान मति के द्वारा एक जीव को जानकर उसके सम्बन्ध के सत्, संख्या, क्षेत्र आदि अनुयोगों के द्वारा नानाविध विशेषों को जानता है । 'सुनकर निश्चय करना श्रुत है' यह तो मतिज्ञान का लक्षण है क्योंकि वह भी शब्द को सुनकर 'यह गो शब्द है' ऐसा निश्चय करता ही है। किन्तु श्रुतज्ञान मन और इन्द्रिय के द्वारा गृहीत या अगृहीत पर्यायवाले शब्द या उसके वाच्यार्थ को श्रोत्रेन्द्रिय के व्यापार के बिना ही नय आदि योजना द्वारा विभिन्न विशेषों के साथ जानता है।