सर्वार्थसिद्धि :
शंका – सूत्र में 'तत्' पद किसलिए दिया है ? समाधान – जो दूसरे लोग सन्निकर्ष आदि को प्रमाण मानते हैं उनकी इस कल्पना के निराकरण करने के लिए सूत्र में 'तत्' पद दिया है । सन्निकर्ष प्रमाण है, इन्द्रिय प्रमाण है ऐसा कितने ही लोग मानते हैं इसलिए इनका निराकरण करने के लिए सूत्र में 'तत्' पद दिया है जिससे यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि वे मत्यादि ही प्रमाण हैं, अन्य नहीं । शंका – सन्निकर्ष या इन्द्रिय को प्रमाण मानने में क्या दोष है ? समाधान – यदि सन्निकर्षको प्रमाण माना जाता है तो सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के अग्रहण का प्रसंग प्राप्त होता है; क्योंकि इनका इन्द्रियों से सम्बन्ध नहीं होता। इसलिए सर्वज्ञताका अभाव हो जाता है । यदि इन्द्रिय को प्रमाण माना जाता है तो वही दोष आता है, क्योंकि चक्षु आदि का विषय अल्प है और ज्ञेय अपरिमित हैं । दूसरे सब इन्द्रियों का सन्निकर्ष भी नहीं बनता, क्योंकि चक्षु और मन प्राप्यकारी नहीं हैं, इसलिए भी सन्निकर्ष को प्रमाण नहीं मान सकते । चक्षु और मन के अप्राप्यकारित्व का कथन आगे कहेंगे । शंका – यदि ज्ञान को प्रमाण मानते हैं तो फल का अभाव होता है। प्रकृत में ज्ञान को ही फल मानना इष्ट है अन्य पदार्थ को फल मानना इष्ट नहीं। पर यदि उसे प्रमाण मान लिया जाता है तो उसका कोई दूसरा फल नहीं प्राप्त हो सकता । किन्तु प्रमाण को फलवाला होना चाहिए। पर सन्निकर्ष या इन्द्रिय को प्रमाण मानने पर उससे भिन्न ज्ञानरूप फल बन जाता है ? समाधान – यह कहना युक्त नहीं, क्योंकि यदि सन्निकर्ष को प्रमाण और अर्थ के ज्ञान को फल मानते हैं तो सन्निकर्ष दो में रहनेवाला होने से उसके फलस्वरूप ज्ञान को भी दो में रहनेवाला होना चाहिए इसलिए घट-पटादि पदार्थों के भी ज्ञान की प्राप्ति होती है। शंका – आत्मा चेतन है, अत: उसी में ज्ञान का समवाय है ? समाधान – नहीं, क्योंकि आत्मा को ज्ञस्वभाव नहीं मानने पर सभी पदार्थ अचेतन प्राप्त होते हैं। यदि आत्मा को ज्ञस्वभाव माना जाता है, तो स्वमत का विरोध होता है। पहले पूर्वपक्षी ने जो यह कहा है कि ज्ञान को प्रमाण मानने पर फल का अभाव होता है सो यह कोई दोष नहीं; क्योंकि पदार्थ के ज्ञान होने पर प्रीति देखी जाती है। यद्यपि आत्मा ज्ञस्वभाव है तो भी वह कर्मों से मलीन है अत: इन्द्रियों के आलम्बन से पदार्थ का निश्चय होने पर उसके जो प्रीति उत्पन्न होती है वही प्रमाण का फल कहा जाता है। अथवा उपेक्षा या अज्ञान का नाश प्रमाण का फल है। राग-द्वेषरूप परिणामों का नहीं होना उपेक्षा है और अन्धकार के समान अज्ञान का दूर हो जाना अज्ञाननाश है। सो ये भी प्रमाण के फल हैं। प्रमाण शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्रमिणोति, प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् =जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमितिमात्र प्रमाण है। शंका – प्रमाण के द्वारा क्या जाना जाता है ? समाधान – जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं। शंका – यदि जीवादि पदार्थों के ज्ञान में प्रमाण कारण है तो प्रमाण के ज्ञान के अन्य प्रमाण को कारण मानना चाहिए। और ऐसा मानने पर अनवस्था दोष प्राप्त होता है ? समाधान – जीवादि पदार्थों के ज्ञान में प्रमाण को कारण मानने पर अनवस्था दोष नहीं आता, जैसे दीपक । जिस प्रकार घटादि पदार्थों के प्रकाश करने में दीपक हेतु है और अपने स्वरूप के प्रकाश करने में भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशान्तर नहीं ढूँढना पड़ता । उसी प्रकार प्रमाण भी है यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए । अब यदि प्रमेय के समान प्रमाण के लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्वका ज्ञान नहीं होने से स्मृति का अभाव हो जाता है और स्मृति का अभाव हो जाने से व्यवहार का लोप हो जाता है । सूत्र में आगे कहे जानेवाले भेदों की अपेक्षा द्विवचन का निर्देश किया है । आगे कहेंगे 'आद्ये परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यत् ।' यह द्विवचन का निर्देश प्रमाण की अन्य संख्या के निराकरण करनेके लिए किया है । पहले कहे गये पाँच प्रकारके ज्ञान दो प्रमाणोंमें आ जाते हैं इस प्रकार सुनिश्चित हो जाने पर भी वे दो प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान आदिक भी हो सकते हें अत: इस कल्पनाको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1. प्रमाण शब्द भाव, कर्तृ और करण तीनों साधनों में निष्पन्न होता है। जब भाव की विवक्षा होती है तो प्रमा को प्रमाण कहते हैं। कर्तृविवक्षा में प्रमातृत्वशक्ति की मुख्यता होती है और करणविवक्षा में प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण की भेद-विवक्षा होती है। इनमें विवक्षानुसार अर्थ ग्रहण किया जाता है। 2. प्रश्न – प्रमाण की सिद्धि स्वतः होती है या प्रमाणान्तर से ? यदि स्वतः, तो प्रमेयकी सिद्धि भी स्वतः होनी चाहिए। यदि अन्य प्रमाणसे, तो प्रमाणान्तरकी अपेक्षा होनेसे अनवस्था दूषण आता है ? इच्छा मात्रसे किसीकी स्वतः सिद्धि और किसीकी परतःसिद्धि मानने में कोई विशेष हेतु देना चाहिए अन्यथा स्वेच्छाचारित्व का दोष आयगा । उत्तर – जिस प्रकार दीपक घटादि पदार्थों के साथ ही साथ स्वस्वरूप का भी प्रकाशक है उसी तरह प्रमाण भी। प्रमाण या दीपक को स्वस्वरूप के प्रकाशन के लिए प्रमाणान्तर या प्रदीपान्तर की आवश्यकता नहीं होती। जिस प्रकार एक ही प्रदीप 'प्रदीपनं प्रदीप:-प्रदीपन मात्र प्रदीप, प्रदीपयति प्रदीप:-प्रदीपन करनेवाला प्रदीप, प्रदीप्यतेऽनेन-जिसके द्वारा प्रदीपन हो वह प्रदीप' इन तीन साधनों में व्यवहृत होता हैं उसमें न तो कोई विरोध ही आता है और न अनवस्था ही; उसी तरह प्रमाण को भी तीनों साधनों में व्यवहार करने में कोई विरोध या अनवस्था नहीं है। 3-5. यदि प्रमाण स्वसंवेदी न हो तो परसंवेद्य होनेके कारण वह प्रमाण ही नहीं हो सकता; क्योंकि परसंवेद्य तो प्रमेय होता है । यदि घटज्ञान स्वाकार का परिच्छेदक नहीं है तो घटज्ञान और घट दोनों में अन्तर नहीं हो सकेगा क्योंकि दोनों में समानरूप से विषयाकारता ही रहती है। इसी तरह घटज्ञान ज्ञौर घटज्ञान का ज्ञान इन दोनों ज्ञानों में अस्वसंवेदन दशा में कोई अन्तर नहीं होगा क्योंकि जैसे घटज्ञान में विषयाकारता रहेगी वैसे ही घटज्ञानज्ञान में भी अन्ततः विषयाकारता ही विषय पड़ेगी, स्वाकार नहीं । यदि ज्ञान स्वसंवेदी न हो तो उसे 'ज्ञोऽहम्-मैं जाननेवाला हूं' यह स्मृति उत्तरकाल में नहीं हो सकेगी। इसी तरह जिस ज्ञान ने अपने स्वरूप को नहीं जाना उस ज्ञान के द्वारा ज्ञात अर्थ की स्मृति नहीं हो सकेगी जैसे कि पुरुषान्तर के ज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थों की । पुरुषान्तर के ज्ञेय की स्मृति हमें इसीलिए नहीं होती कि हम उसके ज्ञान को नहीं जानते। यदि हमारा भी ज्ञान हमें अज्ञात हो तो उस ज्ञान के द्वारा ज्ञात अर्थ की स्मृति हमें स्वयं नहीं हो सकेगी। 6-7. प्रश्न – यदि भावसाधन में प्रमा को प्रमाण कहा जाता है तो फल का अभाव हो जायगा। प्रमा ही फल होती थी। उत्तर – अर्थावबोध में जो प्रीति होती है वही फल है, कर्ममलिन आत्मा को इन्द्रियादि के द्वारा जब अर्थावबोध होता है तो उसे प्रीति होती है, वही प्रमाण का फल है। प्रमाण का मुख्य फल अज्ञाननिवृत्ति है। इसी तरह राग और द्वेषरूप वृत्ति न होकर उपेक्षा भाव का होना भी प्रमाण का फल है। 8-9. प्रश्न – प्रमाण शब्द को कर्तृसाधन मानने पर वह प्रमाता रूप हो जाता है, पर, प्रमाता तो आत्मा होता है जो कि गुणी है और प्रमाण तो ज्ञान रूप गुण है, गुण और गुणी तो जुदे होते हैं। कहा भी है कि - "आत्मा मन, इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भिन्न है" अतः प्रमाणशब्द को कर्तृसाधन न मानकर करणसाधन मानना ही उचित है। उत्तर – यदि ज्ञान को आत्मा से सर्वथा भिन्न माना जाता है तो आत्मा घट की तरह अज्ञ-ज्ञानशून्य जड हो जायगा । ज्ञान के सम्बन्ध से 'ज्ञ' कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि अन्धे को जैसे दीपक का संयोग होने पर भी दिखाई नहीं देता यतः वह स्वयं दष्टिशून्य है उसी तरह ज्ञान-स्वभावरहित आत्मा में ज्ञान का सम्बन्ध होने पर भी ज्ञत्व नहीं आ सकेगा। 10-13. प्रश्न – जैसे दीपक जुदा है और घड़ा जुदा, उसी तरह जो प्रमाण है वह प्रमेय नहीं हो सकता और जो प्रमेय है वह प्रमाण नहीं। दानों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। उत्तर – जिस प्रकार बाह्य प्रमेयों से प्रमाण जुदा है उसी तरह उसमें यदि अन्तरङ्ग प्रमेयता न हो अर्थात् वह स्वयं अपना प्रमेय न बन सकता हो तो अनवस्था दूषण होगा, क्योंकि उसे अपनी सत्ता सिद्ध करने के लिए द्वितीय प्रमाण की आवश्यकता होगी और द्वितीय प्रमाण को भी तृतीय प्रमाण की। यदि अनवस्था दूषण के निवारण के लिए ज्ञान को दीपक की तरह स्वपरप्रकाशी अर्थात् स्वप्रमेय माना जाता है तो प्रमाण और प्रमेय के भिन्न होने का पक्ष समाप्त हो जाता है । वस्तुतः संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की भिन्नता होने से प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय में भिन्नता है तथा पृथक्-पृथक् रूप से अनुपलब्धि होने के कारण अभिन्नता है। निष्कर्ष यह है कि प्रमेय नियम से प्रमेय ही है किन्तु प्रमाण प्रमाण भी है और प्रमेय भी। 14. आगे मति और श्रुत का परोक्ष तथा अवधि आदि का प्रत्यक्ष रूप से वर्णन है, अतः इन्हीं दो भेदों की अपेक्षा 'प्रमाणे' यह द्विवचन निर्देश किया गया है । 15. 'तत्' शब्द के द्वारा मति आदि ज्ञानों में प्रमाणता का विधान है, ये ही प्रमाण हैं सन्निकर्ष आदि नहीं। 16-22. सन्निकर्ष को प्रमाण और अर्थाधिगम को फल मानने पर सर्वज्ञत्व नहीं बन सकेगा, क्योंकि सकल पदार्थों से सन्निकर्ष नहीं बनता। सर्वज्ञ के आत्मा मन इन्द्रिय और अर्थ तथा आत्मा मन और अर्थ यह चतुष्टयसन्निकर्ष और त्रयसन्निकर्ष अर्थज्ञान में कारण नहीं हो सकता; क्योंकि मन और इन्द्रियां एक साथ प्रवृत्ति नहीं करती हैं तथा इनका विषय मर्यादित है। सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट आदि रूप से ज्ञेय अनन्त हैं। इनका सन्निकर्ष हुए बिना इनका ज्ञान होगा नहीं, अतः सर्वज्ञत्व का अभाव हो जायगा । आत्मा को सर्वगत मानकर सर्वार्थसन्निकर्ष कहना उचित नहीं है ; क्योंकि आत्मा का सर्वगतत्व परीक्षासिद्ध नहीं है । यदि आत्मा सर्वगत है तो उसमें क्रिया न होने से पुण्य-पाप और पुण्य-पापमूलक संसार तथा संसारोच्छेदरूप मुक्ति आदि नहीं बन सकेंगे। इन्द्रियां तो अचेतन हैं अतः इन्हें संसार और मोक्ष नहीं हो सकता। चक्षु और मन प्राप्यकारी (पदार्थों से सन्निकर्ष करके जाननेवाले) नहीं हैं अतः सभी इन्द्रियों से सन्निकर्ष भी नहीं होता। जो इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं अर्थात् जिन स्पर्शनादि इन्द्रियों से पदार्थ का सम्बन्ध होकर ज्ञान होता है उनके द्वारा सदा और पूर्ण रूप से ग्रहण होना चाहिए; क्योंकि वे सर्वगत आत्मा के द्वारा पदार्थों के प्रत्येक भाग से सम्बन्ध को प्राप्त हैं। यदि सन्निकर्ष को प्रमाण माना जाता है तो सन्निकर्ष के फल अर्थाधिगम को अर्थ में भी होना चाहिए जैसे कि स्त्री और पुरुष के संयोग का फल-सुखानुभव दोनों का होता है। ऐसी दशा में आत्मा की तरह इन्द्रिय, मन और अर्थ को भी अर्थज्ञान होना चाहिए । शय्या पर सोनेवाले पुरुष के दृष्टान्त से केवल पुरुष में अर्थावबोध सिद्ध करना उचित नहीं है। क्योंकि शय्या अचेतन है वह सुख की अधिकारिणी नहीं हो सकती। यदि इन्द्रिय, मन और अर्थ में अचेतन होने के कारण सन्निकर्ष के फल अर्थावबोध का वारण किया जाता है तो इस युक्ति से तो आत्मा में भी अर्थावबोध नहीं हो सकेगा, क्योंकि सन्निकर्षवादियों के मत में आत्मा भी ज्ञानशून्य है अर्थात् अर्थबोध के पहिले सभी अज्ञ हैं; तब अर्थावबोध आत्मा में ही हो इन्द्रिय, मन और अर्थ में नहीं यह नियम कैसे बन सकता है ? ज्ञान का आत्मा से ही सम्बन्ध हो इन्द्रिय आदि से नहीं इसमें क्या विशेष हेतु है ? 'ज्ञान का समवाय आत्मा में ही होता है अन्य में नहीं' यह उत्तर भी विवाद रहित नहीं है क्योंकि जब सभी ज्ञानशून्य हैं तब 'आत्मा में ही ज्ञान का समवाय हो अन्य में नहीं' यही प्रतिनियम नहीं बन सकता । समवाय एक और सर्वगत है और आत्मा आदि सभी समान रूप से ज्ञानशून्य हैं तब क्या कारण है कि समवाय 'आत्मा में ही ज्ञान का सम्बन्ध कराता है अन्य में नहीं ?' अतः सन्निकर्ष को प्रमाण मानना उचित नहीं है। |