सर्वार्थसिद्धि :
अक्ष शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - ''अक्ष्णोति व्याप्नोति जानतीत्यक्ष आत्मा।'' अक्ष, व्याप और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं, इसलिए अक्ष का अर्थ आत्मा होता है । इस प्रकार क्षयोपशमवाले या आवरणरहित केवल आत्मा के प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रियादिक की अपेक्षा से न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरणरहित आत्मा से होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है । शंका – अवधिदर्शन और केवलदर्शन भी अक्ष अर्थात् आत्मा के प्रति नियत हैं अत: प्रत्यक्ष शब्द के द्वारा उनका भी ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान – यह कोई दोष नहीं, क्योंकि प्रकृत में ज्ञान शब्द की अनुवृत्ति है, जिससे दर्शन का निराकरण हो जाता है । शंका – यद्यपि इससे दर्शन का निराकरण हो जाता है तो भी विभंगज्ञान केवल आत्मा के प्रति नियत है अत: उसका ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान – यहाँ 'सम्यक्' पद का अधिकार है, अत: उसका निराकरण हो जाता है । तात्पर्य यह है कि इस सूत्रमें 'सम्यक्' पद की अनुवृत्ति होती है, जिससे ज्ञान विशेष्य हो जाता है इसलिए विभंगज्ञान का निराकरण हो जाता है । क्योंकि विभंगज्ञान मिथ्यादर्शन के उदय से विपरीत पदार्थ को विषय करता है, इसलिए वह समीचीन नहीं है । शंका – जो ज्ञान इन्द्रियों के व्यापार से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है और जो इन्द्रियों के व्यापार से रहित होकर विषय को ग्रहण करता है वह परोक्ष है । प्रत्यक्ष और परोक्ष का यह अविंसवादी लक्षण मानना चाहिए ? समाधान – यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि उक्त लक्षण के मानने पर आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान का अभाव प्राप्त होता है । यदि इन्द्रियों के निमित्त से होने वाले ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहा जाता है तो ऐसा मानने पर आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि आप्त के इन्द्रियपूर्वक पदार्थका ज्ञान नहीं होता । कदाचित् उसके भी इन्द्रियपूर्वक ही ज्ञान माना जाता है तो उसके सर्वज्ञता नहीं रहते । शंका – उसके मानस प्रत्यक्ष होता है ? समाधान – मन के प्रयत्न से ज्ञान की उत्पत्ति मानने पर सर्वज्ञत्व का अभाव ही होता है । शंका – आगम से सब पदार्थों का ज्ञान हो जायगा । समाधान – नहीं, क्योंकि आगम प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक प्राप्त होता है । शंका – योगी प्रत्यक्ष नाम का एक अन्य दिव्य ज्ञान है । समाधान – तो भी उसमें प्रत्यक्षता नहीं बनती, क्योंकि वह इन्द्रियों के निमित्त से नहीं होता है । जिसकी प्रवृत्ति प्रत्येक इन्द्रिय से होती है वह प्रत्यक्ष है ऐसा आपके मत में स्वीकार किया गया है । दूसरे प्रत्यक्ष का पूर्वोक्त लक्षण मानने पर सर्वज्ञत्व का अभाव और प्रतिज्ञाहानि ये दो दोष आते हैं । विशेष इस प्रकार है - इस योगी के जो ज्ञान होता है वह प्रत्येक पदार्थ को क्रम से जानता है या अनेक अर्थों को युगपत् जानता है । यदि प्रत्येक पदार्थ को क्रम से जानता है तो इस योगी के सर्वज्ञता का अभाव होता है, क्योंकि ज्ञेय अनन्त हैं । और यदि अनेक अर्थों को युगपत् जानता है तो जो यह प्रतिज्ञा है कि 'जिस प्रकार एक विज्ञान दो अर्थों को नहीं जानता है उसी प्रकार दो विज्ञान एक अर्थ को नहीं जानते हैं।' वह नहीं रहती । अथवा 'सब पदार्थ क्षणिक हैं' यह प्रतिज्ञा नहीं रहती, क्योंकि आपके मत में अनेक क्षण तक रहने वाला एक विज्ञान स्वीकार किया गया है । अत: अनेक पदार्थों का ग्रहण क्रम से ही होता है । शंका – अनेक पदार्थोंका ग्रहण एक साथ हो जायगा । समाधान – जो ज्ञान की उत्पत्ति का समय है उस समय तो वह स्वरूप लाभ ही करता है, क्योंकि कोई भी पदार्थ स्वरूप-लाभ करने के पश्चात् ही अपने कार्य के प्रति व्यापार करता है । शंका – विज्ञान दीप के समान है, अत: उसमें दोनों बातें एक साथ बन जायेंगी । समाधान – नहीं, क्योंकि उसके अनेक क्षण तक रहने पर ही प्रकाश्य-भूत पदार्थों का प्रकाशन करना स्वीकार किया गया है । यदि ज्ञान को विकल्पातीत माना जाता है तो शून्यता की प्राप्ति होती है । प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद कहे । अब हम प्रथम प्रकार के प्रमाण के विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1. इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के बिना व्यभिचार रहित जो साकार ग्रहण होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। 'अतत्' को 'तत्' रूप से ग्रहण करना व्यभिचार है, प्रत्यक्ष 'तत्' को 'तत्' जानता है अतः अव्यभिचारी है । इस विशेषण से विभङ्ग-कुअवधि का निराकरण हो जाता है क्योंकि यह मिथ्यादर्शन के उदय से व्यभिचारी-अन्यथा ग्राहक होता है । आकार अर्थात् विकल्प, जो ज्ञान सविकल्प अर्थात् निश्चयात्मक है वह साकार है। इस विशेषण से अवधिदर्शन और केवलदर्शन का निराकरण हो जाता है क्योंकि ये अनाकार हैं। इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष विशेषण मति और श्रुत ज्ञान की व्यावृत्ति कर देता है क्योंकि ये ज्ञान इन्द्रियमनोजन्य हैं। 2-3. प्रत्यक्ष लक्षण में कहे गए विशेषण सूत्र से ही प्रतीत होते हैं, ऊपर से नहीं मिलाए गए हैं । यथा, 'अक्ष अर्थात् आत्मा, जो ज्ञान प्रक्षीणावरण या क्षयोपशम-प्राप्त आत्ममात्र की अपेक्षा से हो वह प्रत्यक्ष' प्रत्यक्ष शब्द का यह व्युत्पत्त्यर्थ करने से इन्द्रिय और मनरूप पर को अपेक्षा की निवृत्ति हो जाती है । 'ज्ञान' का प्रकरण है, अतः अनाकार दर्शन का व्यवच्छेद हो जाता है । इसी तरह 'सम्यक्' का प्रकरण होने से व्यभिचारी ज्ञान की निवृत्ति हो जाती है ? 4-5. प्रश्न – इन्द्रिय और मन रूप बाह्य और आभ्यन्तर करणों के बिना ज्ञान का उत्पन्न होना ही असम्भव है। बिना करण के तो कार्य होता ही नहीं है ? उत्तर – असमर्थ के लिए वसूला, करोंत आदि बाह्य-साधनों की आवश्यकता होती है । जैसे रथ बनानेवाला साधारण रथकार उपकरणों से रथ बनाता है किन्तु समर्थ तपस्वी अपने ऋद्धिबल से बाह्य वसूला आदि उपकरणों के बिना संकल्प-मात्र से रथ को बना सकता है उसी तरह कर्ममलीमस आत्मा साधारणतया इन्द्रिय और मन के बिना नहीं जान सकता पर वही आत्मा जब ज्ञानावरण का विशेष क्षयोपशम रूप शक्तिवाला हो जाता है या ज्ञानावरण का पूर्ण क्षय कर देता है तब उसे बाह्य करणों के बिना भी ज्ञान हो जाता है। आत्मा तो सूर्य आदि की तरह स्वयंप्रकाशी है, इसे प्रकाशन में पर की अपेक्षा नहीं होती है। आत्मा विशिष्ट क्षयोपशम या आवरणक्षय होने पर स्वशक्ति से ही पदार्थों को जानता है। 6-8. प्रश्न – इन्द्रिय व्यापारजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष और इन्द्रिय-व्यापार की अपेक्षा न रखनेवाले ज्ञान को परोक्ष कहना चाहिए । सभी वादी इसमें प्रायः एकमत हैं। यथा, बौद्ध कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्प ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। नाम जाति आदि की योजना कल्पना कहलाती है। इन्द्रियां चूंकि असाधारण कारण हैं अतः चाक्षुष प्रत्यक्ष, रासन प्रत्यक्ष आदि रूप से इन्द्रियों के अनुसार प्रत्यक्ष का नामकरण हो जाता है। नैयायिक इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होनेवाले, अव्यपदेश्य-निर्विकल्पक, अव्यभिचारि और व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । सांख्य श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति को प्रत्यक्ष कहते हैं। मीमांसक इन्द्रियों का सम्प्रयोग होने पर पुरुष के उत्पन्न होनेवाली बुद्धि को प्रत्यक्ष मानते हैं। उत्तर – इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने से आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान न हो सकेगा; सर्वज्ञता का लोप हो जायगा, क्योंकि सर्वज्ञ आप्त के इन्द्रियज ज्ञान नहीं होता। आगम से अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान मानकर सर्वज्ञता का समर्थन करना तो युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि आगम प्रत्यक्षदर्शी वीतराग पुरुष के द्वारा प्रणीत होता है। जब अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं है तब अतीन्द्रिय पदार्थों में आगम का प्रामाण्य कैसे बन सकता है ? आगम का अपौरुषेयत्व तो असिद्ध है। पुरुष प्रयत्न के बिना उत्पन्न हुआ कोई भी विधायक शब्द प्रमाण नहीं है। हिंसादि का विधान करनेवाला वेद प्रमाण नहीं हो सकता। 9-10. बौद्ध का यह कहना भी उचित नहीं है कि - 'योगियों को आगम विकल्प से शून्य एक अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है, उससे वह समस्त पदार्थों का ज्ञान करता है। कहा भी है - योगियों को गुरुनिर्देश अर्थात् आगमोपदेश के बिना पदार्थमात्र का बोध हो जाता है'; क्योंकि इस मत में प्रत्यक्ष शब्द का अक्ष-इन्द्रियजन्य अर्थ नहीं बनेगा, कारण योगियों के इन्द्रियां नहीं हैं । अथवा, जब 'स्वहेतु, परहेतु, उभयहेतु या बिना हेतु के पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सकते, सामान्य और विशेष में एकदेश और सर्वदेश रूप से वृत्ति मानने पर अनेक दूषण आते हैं' आदि हेतुओं से पदार्थमात्र का अभाव किया जाता है और ज्ञानमात्र निरालम्बन है तब योगियों को सर्वार्थज्ञान की संभावना ही नहीं की जा सकती। निर्विकल्प पदार्थ की कल्पना न तो युक्तिसंगत ही है और न प्रमाण सिद्ध ही। बौद्धों के मत में योगी की सत्ता भी स्वयं सिद्ध नहीं है, निर्वाणदशा में तो सर्वशून्यता तक स्वीकार की गई है। कहा भी है - 'निर्वाण दो प्रकार का है - सोपधिशेष और निरुपधिशेष । सोपधिशेष निर्वाण में ज्ञाता की सत्ता रहती है। परन्तु जिस प्रकार से वे बाह्य पदार्थों का अभाव करते हैं उन्हीं युक्तियों से अन्तरङ्ग पदार्थ आत्मा का भी अभाव हो जायगा। नैयायिक का यह कहना भी उचित नहीं है कि 'आत्मा इन्द्रियादि से रहित होकर भी योगज धर्म के प्रसाद से सर्वज्ञ हो सकता है' क्योंकि निष्क्रिय और नित्य योगी में जिस प्रकार समस्त क्रियाएँ नहीं होती उसी तरह कोई भी अनुग्रह या विकार भी नहीं हो सकता, वह तो कूटस्थ अपरिणामी नित्य है । 11. बौद्धों का प्रत्यक्ष का 'कल्पनापोढ' लक्षण भी नहीं बनता; क्योंकि कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक प्रत्यक्ष यदि सर्वथा कल्पनापोढ है, तो 'प्रमाण ज्ञान है, प्रत्यक्ष कल्पनापोढ है' इत्यादि कल्पनाएं भी उसमें नहीं की जा सकेंगी अर्थात् उसके अस्तित्व आदि की भी कल्पना नहीं की जा सकेगी, उसका 'अस्ति' इस प्रकार से भी सद्भाव-सिद्ध नहीं होगा। यदि उसमें 'अस्ति' 'कल्पनापोढ' इत्यादि कल्पनाओं का सद्भाव माना जाता है तो वह सर्वथा कल्पनापोढ नहीं कहलायगा। यदि कथञ्चित् कल्पनापोढ माना जाता है तब भी स्व-वचन-व्याघात निश्चित है। बौद्ध प्रश्न – निर्विकल्पक को हम सर्वथा कल्पनापोढ नहीं कहते । कल्पनापोड यह विशेषण परमत के निराकरण के लिए है अर्थात् परमत में नामजाति आदि भेदों के उपचार को कल्पना कहा है उस कल्पना से रहित प्रत्यक्ष होता है न कि स्वरूपभूत विकल्प से भी रहित । कहा भी है - "पाँच विज्ञानधातु सवितर्क और सविचार हैं, वे निरूपण और अनुस्मरण रूप विकल्पों से रहित हैं।" जैन उत्तर – विषय के प्रथम ज्ञान को वितर्क कहते हैं। उसी का बार-बार चिन्तन विचार कहलाता है। उसी में नाम, जाति आदि की दृष्टि से शब्दयोजना को निरूपण कहते हैं। पूर्वानुभव के अनुसार स्मरण को अनुस्मरण कहते हैं। ये सभी धर्म क्षणिक, निरन्वय, विनाशी, इन्द्रियविषय और ज्ञानों में नहीं बन सकते क्योंकि दोनों की एक साथ उत्पत्ति होती है और क्षणिक हैं। गाय के एक साथ उत्पन्न होनेवाले दोनों सीगों की तरह इनमें परस्पर कार्य-कारण-भावमूलक, ग्राह्य-ग्राहक-भाव भी नहीं बन सकता। यदि पदार्थ और ज्ञान को क्रमवर्ती मानते हैं तो ज्ञानकाल में पदार्थ का तथा पदार्थकाल में ज्ञान का अभाव होने से विषय-विषयिभाव नहीं बन सकता। मिथ्या सन्तान की अपेक्षा भी इनमें उक्त धर्मों का समावेश करना उचित नहीं है । अतः समस्त विकल्पों की असम्भवता होने से 'यह, निर्विकल्पक है, यह नहीं है' आदि कोई भी विकल्प नहीं हो सकेगा। इस तरह समस्त विकल्पातीत ज्ञान का अभाव ही प्राप्त होता है । ज्ञान में अनुस्मरण आदि मानने पर तो उस ज्ञान को या ज्ञानाधार आत्मा को अनेक क्षणस्थायी मानना होगा, क्योंकि स्मरण स्वयमनुभूत वस्तु का कालान्तरमें होता है, अन्य के द्वारा अनुभूत का अन्य को नहीं। बौद्धों ने - पांच इन्द्रिय और मानस ज्ञान में एकक्षण पूर्व के ज्ञान को मन कहा है। ऐसे मन से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को मानस-प्रत्यक्ष कहना युक्त नहीं हैं; क्योंकि जब मन अतीत होने से असत् हो गया तब वह ज्ञान का कारण कैसे हो सकता है ? यदि पूर्व के नाश और उत्तर के उत्पाद को एक साथ मानकर कार्यकारण भाव माना जाता है; तो भिन्न सन्तानवर्ती पूर्वोत्तर क्षणों में भी कार्य-कारणभाव मानना चाहिए। यदि एक सन्तानवर्ती क्षणों में किसी शक्ति या योग्यता का अनुगम माना जाता है तो क्षणिकत्व की प्रतिज्ञा नष्ट होती है। 12. बौद्धों ने ज्ञान को अपूर्वार्थग्राही माना है । उनका यह मत भी युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि सभी ज्ञान प्रमाण हो सकते हैं। जैसे दीपक प्रथमक्षण में अन्धकारमग्न पदार्थों को प्रकाशित करता है और उत्तरकाल में भी वह प्रकाशक बना रहता है कभी भी अप्रकाशक नहीं होता उसी तरह ज्ञान भी प्रतिसमय प्रमाण रहता है चाहे वह गृहीत को जाने या अगृहीत को। यदि प्रतिक्षण परिवर्तन के आधार से प्रदीप में प्रतिक्षण नूतन प्रकाशकत्व माना जाता है और इसीतरह ज्ञान को भी प्रतिक्षण अपूर्व का प्रकाशक बनाया जाता है तो 'स्मृति इच्छा और द्वेष आदि की तरह पूर्वपूर्व पदार्थों का जाननेवाला ज्ञान प्रमाण नहीं है' यह बौद्ध ग्रन्थ का वाक्य खंडित हो जाता है; क्योंकि प्रतिक्षण परिवर्तन के अनुसार कोई भी ज्ञान गृहीतग्राही हो ही नहीं सकता। 13-14. ज्ञानद्वैतवादी बौद्धों के मत से ज्ञान विषयाकार भी होता है और स्वांकार भी। ये उभयाभास ज्ञान के स्वसंवेदन को प्रमाण का फल मानते हैं। उनका स्व-संवेदन को फल मानना उचित नहीं है क्योंकि फल चूंकि कार्य है अतः उसे भिन्न होना ही चाहिए जैसे कि छेदन क्रिया छेदनेवाले और छिदे जानेवाले से भिन्न होती है। यह समाधान भी उचित नहीं है कि 'अधिगमरूप फल में ही व्यापाररूप प्रमाणता का उपचार करके एक ही अधिगम को प्रमाण और फल कह देते हैं'; क्योंकि उपचार तब होता है जब मुख्य वस्तु स्वतन्त्र-भाव से प्रसिद्ध है। जैसे सिंह अपने शूरत्व-क्रूरत्व आदि गुणों से प्रसिद्ध है, तभी उसका सादृश्य से बालक में उपचार किया जाता है, पर यहां जब मुख्य प्रमाण ही प्रसिद्ध नहीं है तब फल में उसके उपचार की कल्पना ही नहीं हो सकती। 15. एक ही ज्ञान में ग्राहकाकार विषयाकार और संवेदनाकार इन तीन आकारों को मानकर प्रमाण-फलव्यवस्था बनाना उचित नहीं है; क्योंकि इस कल्पना में एकान्तवाद का निराकरण होकर अनेकान्तवाद की स्थापना हो जाती है । एक वस्तु अनेकधर्मवाली होती है यह तो जैनेन्द्र का अनेकान्त सिद्धान्त है। यदि एक ज्ञान में अनेकाकारता हो सकती है तो जगत् के प्रत्येक पदार्थ को अनेकधर्मात्मक मानने में क्या बाधा है ? यदि अनेकान्तात्मक द्रव्यसिद्धि के भय से केवल आकार ही आकार मानते हैं तो यह प्रश्न होता है कि वे आकार किसके हैं ?' निराश्रय आकार तो रह नहीं सकते। अतः उनका अभाव ही हो जायगा। वे आकार यदि युगपत् उत्पन्न होते हैं तो उनमें कार्य-कारणभाव नहीं' बन सकेगा। क्षणिक-आकारों की क्रमिक उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। यदि हो; तो 'अधिगम भिन्न पदार्थ नहीं है अर्थात् आकाररूप ही है' यह सिद्धान्त खण्डित हो जाता है क्योंकि क्रमिक उत्पत्ति में अधिगम की भी किसी क्षण में स्वतन्त्र उत्पत्ति माननी पड़ेगी। यदि बाह्य-पदार्थों की सत्ता नहीं है और केवल ज्ञानमात्र ही सत् है; प्रमाण और प्रमाणाभास की व्यवस्था नहीं बन सकेगी क्योंकि अन्तरंग आकार में तो कोई भेद नहीं होता। जो 'असत्' को 'सत्' जाने वह प्रमाणाभास और जो 'असत्' ही है यह जाने वह प्रमाण - इस प्रकार की प्रमाण-प्रमाणाभास व्यवस्था मानने पर स्वलक्षण और सामान्यलक्षण इन दो प्रमेयों से प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों का नियम करना असङ्गत हो जायगा; क्योंकि यह नियम प्रमेय की सत्ता स्वीकार करके किया गया है। 'प्रत्यक्ष स्वलक्षण को विषय करता है, असाधारण वस्तु स्वलक्षण है, वह विकल्पातीत है, इसी का 'यह वह' इत्यादिरूप से व्यवहार में निर्देश होता है, सामान्य अनुमान का विषय होता है' आदि व्याख्याएँ सर्वाभाववाद में नहीं बन सकती। सर्वाभाववाद में किसी भी भेद की संभावना ही नहीं की जा सकती। सम्बन्धियों के भेद से अभाव में भेद कहना तो तब उचित है जब सम्बन्धियों की सत्ता सिद्ध हो। संवेदनाद्वैतवादी का यह कथन भी उचित नहीं है कि - 'सभी ज्ञान निरालम्बन होने से अयथार्य है, निर्विकल्पक स्वज्ञान ही प्रमाण है। शास्त्रों में जो प्रमाण प्रमेय आदि की प्रक्रिया है उसके द्वारा अविद्या का ही विस्तार किया गया है। विद्या तो आगमविकल्प से परे है, वह स्वयं प्रकाशमान है"; क्योंकि संवेदनाद्वैत की सिद्धि का कोई उपाय नहीं है । कहा भी है "जो संवेदनाद्वैत प्रत्यक्षबुद्धि का विषय नहीं है, जिसका अनुमान अर्थरूप लिंग के द्वारा हो नहीं सकता, और जिसके स्वरूप की सिद्धि वचनों द्वारा भी नहीं हो सकती उस सर्वथा असिद्ध संवेदन को माननेवालों की क्या गति होगी ?" अतः संवेदनाद्वैतवाद त्याज्य है। |