सर्वार्थसिद्धि :
आदि में जो ज्ञान कहा है उसके ये पर्यायवाची शब्द जानने चाहिए, क्योंकि ये मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम-रूप अन्तरंग निमित्त से उत्पन्न हुए उपयोग को विषय करते हैं और इनकी श्रुतादिक में प्रवृत्ति नहीं होती । 'मननं मति:, स्मरण स्मृति:, संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता और अभिनिबोधनमभिनिबोध:' यह इनकी व्युत्पत्ति है । यथा सम्भव इनका दूसरा विग्रह जानना चाहिए । यद्यपि इन शब्दोंकी प्रकृति अलग-अलग है अर्थात् यद्यपि ये शब्द अलग-अलग धातुसे बने हैं तो भी रूढि़ से पर्यायवाची हैं । जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर । इनमें यद्यपि इन्दन आदि क्रियाकी अपेक्षा भेद है तो भी ये सब एक शचीपति की वाचक संज्ञाएँ हैं । अब यदि समभिरूढ नय की अपेक्षा इन शब्दों का अलग-अलग अर्थ लिया जाता है तो वह क्रम मति आदि शब्दों में भी पाया जाता है । किन्तु ये मति आदि मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम-रूप निमित्त से उत्पन्न हुए उपयोग को उल्लंघन नहीं करते हैं यह अर्थ यहाँ पर विवक्षित है । प्रकृत में 'इति' शब्द प्रकारवाची है जिससे यह अर्थ होता है कि इस प्रकार ये मति आदि मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द हैं । अथवा प्रकृत में मति शब्द अभिधेयवाची है जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इनके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह एक ही है । मतिज्ञानके स्वरूप लाभमें क्या निमित्त है अब यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1 इति शब्द के अनेक अर्थ होते हैं - यथा 'हन्तीति पलायते-मारा इसलिए भागा' यहाँ इति शब्द का अर्थ हेतु है । 'इति स्म उपाध्यायः कथयति--उपाध्याय इस प्रकार कहता है' यहाँ 'इस प्रकार' अर्थ है। 'गौः अश्वः इति-गाय घोड़ा आदि प्रकार' यहाँ इतिशब्द प्रकारवाची है। 'प्रथममाह्निकमिति, यहाँ इति शब्द का अर्थ समाप्ति है । इसी तरह व्यवस्था, अर्थविपर्यास, शब्दप्रादुर्भाव आदि अनेक अर्थ हैं। यहाँ विवक्षा से आदि और प्रकार ये दो अर्थ लेने चाहिए । मति स्मृति आदि में आदि शब्द से प्रतिभा, बुद्धि, उपलब्धि आदि का ग्रहण होता है। 2. यद्यपि मति आदि शब्दों में अर्थभेद है फिर भी रूढ़िवश इन शब्दों में एकार्थता है। जैसे कि 'गच्छति गौः' इस प्रकार व्युत्पत्त्यर्थ मान लेने पर भी गौ शब्द सभी चलनेवालों में प्रयुक्त न होकर एक पशु-विशेष में रूढि के कारण प्रयुक्त होता है । ये सभी मति आदि मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से ही पदार्थ-बोध कराते हैं अतः इनमें भेद नहीं है । 3-5. प्रश्न – जैसे गौ, अश्व आदि में शब्द-भेद से अर्थभेद है उसी तरह मत्यादि में भी होना चाहिए। उत्तर – 'शब्द भेद से अर्थभेद'का नियम संशय उत्पन्न करनेवाला है उससे किसी पक्षविशेष का निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि में शब्दभेद होने पर भी अर्थभेद नहीं देखा जाता । तीनों शब्द एक इन्द्र अर्थ के वाचक हैं । यदि शब्दभेद से अर्थभेद है तो शब्द-अभेद से अर्थ-अभेद भी होना चाहिए। फलतः वचन पृथिवी आदि ग्यारह अर्थों में अभेद हो जाना चाहिए, क्योंकि ये सभी एक 'गो' शब्द के वाच्य है। अथवा, जैननय के अनुसार इन शब्दों में भेद भी है और अभेद भी। द्रव्यदृष्टि से जैसे इन्द्रादि शब्द इन्द्र द्रव्य के वाचक होने से अभिन्न हैं उसी तरह एक मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न सामान्य मतिज्ञान की अपेक्षा से अथवा एक आत्मद्रव्य की दृष्टि से मत्यादि अभिन्न हैं और तत् तत् पर्याय की दृष्टि से भिन्न हैं। इन्दनक्रिया, शासनक्रिया आदि से विशिष्ट इन्द्रादि पर्यायें जैसे भिन्न हैं उसी तरह मनन, स्मरण, संज्ञान, चिन्तन आदि पर्यायें भी भिन्न है। यह पर्यायार्थिक नय की दृष्टि है। 6-7. प्रश्न – जैसे मनुष्य, मानव, मनुज आदि पर्याय शब्द मनुष्य के लक्षण नहीं हैं उसी तरह मति आदि पर्याय शब्द भी मतिज्ञान के लक्षण नहीं हो सकते । उत्तर – जो पर्याय पर्यायवाले से अभिन्न होती है वह लक्षण बनती है जैसे उष्ण-पर्याय अग्नि से अभिन्न होने के कारण अग्नि का लक्षण बनती ही है। जैसे मनुष्य, मानव, मनुज आदि शब्द घटादि द्रव्यों से व्यावृत्त होकर एक सामान्य मनुष्य रूप अर्थ के लक्षक होने से लक्षण हैं, अन्यथा यदि ये मनुष्य सामान्य का प्रतिपादन न करें तो मनुष्य का अभाव ही हो जायगा उसी प्रकार मति आदि शब्द अभिनिबोध-सामान्यात्मक मतिज्ञान के लक्षक होने से मतिज्ञान के लक्षण होते हैं । जैसे 'अग्नि कौन ?' यह प्रश्न होने पर बुद्धि तुरंत दौड़ती है कि 'जो उष्ण', और 'कौन उष्ण' कहने पर 'जो अग्नि' इस प्रकार गत्वा-प्रत्यागत न्याय (समान प्रश्नोत्तर न्याय) से भी पर्याय शब्द लक्षण बन सकते हैं । मति आदि में भी यही न्याय समझना चाहिए, यथा 'मतिज्ञान कौन ?' 'जो स्मृति आदि', 'स्मृति आदि क्या हैं? जो 'मतिज्ञान' । इस प्रकार मत्यादि पर्याय शब्दों के लक्षण बनने में कोई बाधा नहीं है । सभी पर्यायें लक्षण नहीं होती किन्तु आत्मभूत अन्तरंग पर्याय ही लक्षण होती है। अग्नि का लक्षण उष्णता तो हो सकती है धूम आदि नहीं। उसी तरह मति आदि ज्ञान पर्यायें लक्षण हो सकती हैं न कि मति आदि पुद्गल शब्द आदि बाह्य पदार्थ । 8-10. अथवा, इति शब्द अभिधेयवाची है । अर्थात् मति, स्मृति, संज्ञा आदि के द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह मतिज्ञान है । मत्यादि के द्वारा श्रुतज्ञान आदि का तो कथन होता ही नहीं है क्योंकि उनके भिन्न-भिन्न लक्षण आगे कहे जायेंगे। |