+ व्यंजनावग्रह सभी इन्द्रियों से नही होता -
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥19॥
अन्वयार्थ : चक्षु और मन से व्‍यंजनावग्रह नहीं होता ॥१९॥
Meaning : However, in the case of cognition through visual sense (caksu) and the mind (mana) such a contact actuated apprehension (vyanjana vagraha) does not take place.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

चक्षु और मन से व्‍यंजनावग्रह नहीं होता है।

शंका – क्‍यों ?

समाधान –
क्‍योंकि चक्षु और मन अप्राप्‍यकारी है। चूँकि नेत्र अप्राप्‍त, योग्‍य दिशा में अवस्थित, युक्त, सन्निकर्ष के योग्‍य देश में अवस्थित और बाह्य प्रकाश आदि से व्‍यक्त हुए पदार्थ को ग्रहण करता है और मन भी अप्राप्‍त अर्थ को ग्रहण करता है अत: इन दोनों के द्वारा व्‍यंजनावग्रह नहीं होता।



शंका – चक्षु इन्द्रिय अप्राप्‍यकारी है यह कैसे जाना जाता है ?

समाधान –
आगम और युक्ति से जाना जाता है। आगम से यथा - श्रोत्र स्‍पृष्‍ट शब्‍दको सुनता है, नेत्र अस्‍पृष्‍ट रूप को ही देखता है। तथा घ्राण, रसना और स्‍पर्शन इन्द्रियाँ क्रम से स्‍पृष्‍ट गन्‍ध, रस और स्‍पर्शको ही जानती है।



युक्ति से यथा - चक्षु इन्द्रिय अप्राप्‍यकारी है, क्‍योंकि वह स्‍पृष्‍ट पदार्थ को नहीं ग्रहण करती। यदि चक्षु इन्द्रिय प्राप्‍यकारी होती तो व‍ह त्‍वचा इन्द्रिय के समान स्‍पृष्‍ट हुए अंजन को ग्रहण करती। किन्‍तु वह स्‍पृष्‍ट अंजन को नहीं ग्रहण करती है इससे मालूम होता है कि मन के समान चक्षु इन्द्रिय अप्राप्‍यकारी है। अत: सिद्ध हुआ कि चक्षु और मन को छोड़कर शेष इन्द्रियों के व्‍यंजनावग्रह होता है। तथा सब इन्द्रिय और मन के अर्थावग्रह होता है।

लक्षण और भेदोंकी अपेक्षा मतिज्ञानका कथन किया। अब उसके बाद क्रम प्राप्‍त श्रुतज्ञानके लक्षण और भेद कहने चाहिए; इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं –
राजवार्तिक :

1. चक्षु और मन के द्वारा व्यवञ्जनावग्रह नहीं होता क्योंकि चक्षु और मन योग्यदेश में स्थित पदार्थ को सम्बन्ध किये बिना ही ज्ञान करते हैं अत: जो भी ज्ञान होता है वह स्पष्ट ही होता है।

2-3. मन अप्राप्त अर्थ का विचार करता है यह तो निर्विवाद है और चक्षु की अप्राप्यकारिता आगम और युक्ति से सिद्ध है, स्वेच्छा से नहीं। आगम में बताया है कि - शब्द कान से स्पृष्ट होकर सुना जाता है पर रूप अस्पृष्ट होकर दूर से ही देखा जाता है। गन्ध, रस और स्पर्श इन्द्रियों से जब स्पृष्ट होते हैं और विशिष्ट सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं तब जाने जाते हैं।

युक्तियों से भी चक्षु की अप्राप्यकारिता प्रसिद्ध है । यथा - चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है क्योंकि वह अपने में लगे हुए अंजन को नहीं देख पाती। स्पर्शनेन्द्रिय प्राप्यकारी है तो वह अपने से छुए हुए किसी भी पदार्थ के स्पर्श को जानती ही है । अतः मन की तरह चक्षु अप्राप्यकारी है। 'चक्षु प्राप्यकारी है क्योंकि वह ढंके हुए पदार्थ को नहीं देखती जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय' यह पक्ष ठीक नहीं है। क्योंकि चक्षु काँच, अभ्रक, स्फटिक आदि से आवृत-ढंके हुए पदार्थों को बराबर देखता है अतः पक्ष में ही अव्यापक होने से उक्त हेतु असिद्ध है; जैसे कि वनस्पति में चैतन्य सिद्ध करने के लिए दिया जानेवाला 'स्वाप-सोना' हेतु, क्योंकि किन्हीं वनस्पतियों में पत्र-संकोच आदि चिह्नों से 'सोना' स्पष्ट जाना जाता है किन्हीं का नहीं। चुम्बक तो दूर से ही लोहे को खींचने के कारण अप्राप्यकारी है फिर भी वह ढंके हुए लोहे को नहीं खींचता अतः संशय भी होता है कि आवृत को न देखने के कारण चक्षु इन्द्रिय स्पर्शन की तरह प्राप्यकारी है या चुम्बक की तरह अप्राप्यकारी । भौतिक होने से चक्षु को अग्नि की तरह प्राप्यकारी कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि चुम्बक भौतिक होकर भी अप्राप्यकारी है । बाह्येन्द्रिय होने से स्पर्शनेन्द्रिय की तरह चक्षु को प्राप्यकारी कहना ठीक नहीं है; क्योंकि बाहिर दिखनेवाली द्रव्येन्द्रिय तो अन्तरंग मुख्य भावेन्द्रिय की सहायक हैं, मात्र उनसे ज्ञान नहीं होता। स्पर्शनेन्द्रिय आदि में भी भीतरी भावेन्द्रिय ही की प्रधानता है । अतः यह हेतु कार्यकारी नहीं है। जिस प्रकार चुम्बक अप्राप्त लोहे को खींचता है परन्तु अतिदूरवर्ती अतीत अनागत या व्यवहित लोहे को नहीं खींचता उसी तरह चक्षु भी न व्यवहित को देखता है और न अतिदूरवर्ती को ही; क्योंकि पदार्थों की शक्तियां मर्यादित हैं। अप्राप्यकारी मानने पर चक्षु के द्वारा संशय और विपर्ययज्ञान के अभाव का दूषण तो प्राप्यकारी मानने पर भी बना रहता है । अतः संशय और विपर्यय तो इन्द्रिय-दोष से दोनों ही अवस्थाओं में होते हैं।

'चक्षु चूंकि तेजोद्रव्य है अतः इसके किरणें होती हैं और यह किरणों के द्वारा पदार्थ से सम्बन्ध करके ही ज्ञान करता है जैसे कि अग्नि । ' यह अनुमान ठीक नहीं है। क्योंकि चक्षु को तेजोद्रव्य मानना ही गलत है। अग्नि तो गरम होती है अतः चक्षुइन्द्रिय का स्थान उष्ण होना चाहिए। अग्नि की तरह चक्षु में चमकदार भासुर रूप भी होना चाहिए। पर न तो चक्षु उष्ण ही है और न भासुररूपवाली ही। अदृष्ट-अर्थात् कर्म के कारण ऐसे तेजोद्रव्य की कल्पना करना 'जिसमें न भासुर रूप हो और न उष्णस्पर्श' उचित नहीं है, क्योंकि अदृष्ट निष्क्रिय गुण है वह पदार्थ के स्वाभाविक गुणों को पलट नहीं सकता। बिल्ली आदि की आखों को प्रकाशमान देखकर चक्षु को तेजोद्रव्य कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि पार्थिव आदि पुद्गल द्रव्यों में भी कारणवश चमक उत्पन्न हो जाती है जैसे कि पार्थिवमणि या जलीय बरफ आदि में । जो गतिमान होता है वह समीपवर्ती और दूरवर्ती पदार्थों से एक साथ सम्बन्ध नहीं कर सकता जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय किन्तु चक्षु समीपवर्ती शाखा और दूरवर्ती चन्द्र को एक साथ जानता है, अतः गतिमान् से विलक्षण प्रकार का होने से चक्षु अप्राप्यकारी है। यदि चक्षु गतिमान् होकर प्राप्यकारी होता तो अँधियारी रात में दूरदेशवर्ती प्रकाश को देखने के समय उसे प्रकाश के पास रखे हुए पदार्थों का तथा मध्यवर्ती पदार्थों का ज्ञान भी होना चाहिए था। आपके मत में जब चक्षु स्वयं प्रकाशरूप है तब अन्य प्रकाश की आवश्यकता उसे होनी ही नहीं चाहिए। किंच, यदि चक्षु प्राप्यकारी होता तो जैसे शब्द कान के भीतर सुनाई देता है, उसी तरह रूप भी आँख के भीतर ही दिखाई देना चाहिए। आंख के द्वारा जो अन्तराल का ग्रहण और अपने से बड़े पदार्थ का अधिकरूप में ग्रहण होता है वह नहीं होना चाहिए । यह मत कि 'इन्द्रियाँ बाहर जाकर पदार्थ से सम्बन्ध करके उन्हें जानती हैं अतः सान्तर और अधिक ग्रहण हो जाता है ठीक नहीं है। क्योंकि इन्द्रियों की बहिर्वृत्ति अप्रसिद्ध है । चिकित्सा आदि तो शरीर देश में ही किए जाते हैं बाहर नहीं। यदि इन्द्रियां बाहिर जाती हैं तो जिस समय देखना प्रारम्भ हुआ उसी समय आंख की पलक बन्द कर लेने पर भी दिखाई देना चाहिए। कारण इन्द्रिय तो बाहर जा चुकी है। फिर, मन से अधिष्ठित होकर ही इन्द्रियां स्वविषय में व्यापार करती हैं, पर मन तो अन्तःकरण है, वह तो बाहिर जाकर इन्द्रियों की सहायता नहीं कर सकता, शरीर देश में ही उसकी सहायता संभव है। यदि अणुरूप मन बाहर चला भी गया तो वह फैले हुए आंखों की किरणों का नियन्त्रण कैसे कर सकता है ? अतः चक्षु शरीर देश में रहकर ही योग्यदेशस्थित पदार्थ को जानता है।

बौद्ध का मत है कि श्रोत्र भी चक्षु की तरह अप्राप्यकारी है क्योंकि वह दूरवर्ती शब्द को सुन लेता है। यह मत ठीक नहीं है क्योंकि श्रोत्र का दूर से शब्द का सुनना असिद्ध है। वह तो नाक की तरह अपने देश में आये हुए शब्द पुद्गलों को सुनता है । शब्द वर्गणाएँ कान के भीतर पहुंचकर ही सुनाई देती हैं। यदि कान दूरवर्ती शब्द को सुनता है तो उसे कान के भीतर घुसे हुए मच्छर का भिनभिनाना नहीं सुनाई देना चाहिए क्योंकि कोई भी इन्द्रिय अति निकटवर्ती और दूरवर्ती पदार्थों को नहीं जान सकती। शब्द को आकाश का गुण मानना तो अत्यन्त असंगत है। क्योंकि अमूर्तद्रव्य के गुण इन्द्रियों के विषय नहीं हो सकते जैसे कि आत्मा के सुखादि गुण । श्रोत्र को प्राप्यकारी मानने पर भी 'अमुक देश अमुक दिशा आदि में शब्द है' इस प्रकार दिग्देशविशिष्टता के ग्रहण का कोई विरोध नहीं है क्योंकि वेगवान् शब्दपरिणत पुद्गलों के त्वरित और नियत देशादि से आने के कारण उस प्रकार का ज्ञान हो जाता है । शब्द पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं, वे चारों ओर फैलकर श्रोताओं के कानों में प्रविष्ट होते हैं। कहीं कहीं प्रतिघात भी प्रतिकूल वायु और दीवाल आदि से हो जाता है। अतः चक्षु और मन को छोड़कर शेष इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं। इनसे प्रथम व्यञ्जनावग्रह होता है बाद में अर्थावग्रह और चक्षु और मन से सीधा अर्थावग्रह।

3-7. प्रश्न – मन अपने विचारात्मक कार्य में इन्द्रियान्तर की सहायता की अपेक्षा नहीं करता अतः उसे चक्षु की तरह इन्द्रिय ही कहना चाहिए अनिन्द्रिय नहीं ?

उत्तर –
मन चक्षुरादि इन्द्रियों की तरह दूसरों को दिखाई नहीं देता, सूक्ष्म है, वह अन्तरंग करण है अतः उसे अनिन्द्रिय कहते हैं । इस अनुमान से उसका सद्भाव सिद्ध होता है - चक्षु आदि इन्द्रियों के समर्थ होने पर भी बाह्य रूपादि पदार्थों की उपस्थिति तथा उनके युगपत् जानने का प्रयोजन रहने पर जिसके न होने से युगपत् ज्ञान और क्रियाएं नहीं होती वही मन है । मन जिस-जिस इन्द्रिय को सहायता करता है उसी-उसी के द्वारा क्रमशः ज्ञान और क्रिया होती है। जिसके द्वारा देखे या सुने गये पदार्थ का स्मरण होता है वह मन है । स्मरण से मन का सद्भाव सिद्ध होता है। अप्रत्यक्ष पदार्थों का ज्ञान अनुमान से ही किया जाता है जैसे सूर्य की गति और वनस्पति के वृद्धि और ह्रास का।

8-9. यद्यपि आत्मा स्वयं समस्त ज्ञान और क्रिया शक्तियों से सम्पन्न है फिर भी उसे उन-उन ज्ञान आदि के लिए भिन्न-भिन्न इन्द्रियों की आवश्यकता होती है, जैसे कि अनेक कलाकुशल देवदत्त को चित्र बनाते समय कलम, ब्रुश आदि उपकरणों की अपेक्षा होती है और अलमारी बनाने के लिए वसूला, करोंत आदि उपकरणों की। नामकर्म के उदय से उत्पन्न अङ्ग उपाङ्गों के कारण इन्द्रियों का भेद होता है। कान यवनाली के समान, नाक मोती के समान, जीभ खुरपा के समान, आंख मसूर के समान काले तारे के आकार और स्पर्शनेन्द्रिय सर्वशरीरव्यापी अनेक आकारों की है। ये ही इन्द्रियां अपने-अपने विषयों को जानने में समर्थ हैं, अन्य नहीं।

द्रव्य की दृष्टि से मतिज्ञानी सभी द्रव्यों की कुछ पर्यायों को उपदेश से जानता है । क्षेत्र की दृष्टि से उपदेश द्वारा सभी क्षेत्रोंको जानता है। अथवा, आंख का उत्कृष्ट क्षेत्र 47263 21/60 योजन है । कान का क्षेत्र 12 योजन, नाक, जीभ और स्पर्शन का 9 योजन है। उपदेश से सभी काल सभी औदयिक आदि भावों को मतिज्ञानी जान सकता है। सामान्य से मतिज्ञान एक है। इन्द्रियज और अनिन्द्रियज के भेद से है प्रकार का है। अवग्रह आदि के भेद से चार प्रकार का है। अवग्रहादि चार छहों इन्द्रियों से होते हैं अतः 24 प्रकार का है। चार इन्द्रियों से चार व्यञ्जनावग्रह भी होते हैं अतः मिलकर 28 प्रकार का है। इन्हीं अट्ठाईस में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव या अवग्रहादि चार को मिलाने से 32 प्रकार का हो जाता है। इस तरह इन 24, 28, 32 प्रकारों को बहु आदि 6 भेदों से गुणा करने पर क्रमशः 144, 168, 192 भेद हो जाते हैं और बहु आदि 12 से गुणा करने पर 288, 336 और 384 । व्यञ्जनावग्रह में भी अव्यक्त-रूप से बहु आदि बारह प्रकार के पदार्थों का ग्रहण होता है । अनिःसृत ग्रहण में भी जितने सूक्ष्म पुद्गल प्रकट हैं उनसे अतिरिक्त का ज्ञान भी अव्यक्त रूप से हो जाता है। उन सूक्ष्म पुद्गलों का इन्द्रियदेश में आ जाना ही उनका अव्यक्तग्रहण है।