सर्वार्थसिद्धि :
यह 'श्रुत' शब्द सुननेरूप अर्थ की मुख्यता से निष्पादित है तो भी रूढि़ से भी उसका वाच्य कोई ज्ञानविशेष है। जैसे 'कुशल' शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ कुशा का छेदना है तो भी रूढि़ से उसका अर्थ पर्यवदात अर्थात् विमल या मनोज्ञ लिया जाता है। वह ज्ञानविशेष क्या है इस बात को ध्यान में रखकर 'श्रुतं मतिपूर्वम्' यह कहा है। जो श्रुत की प्रमाणता को पूरता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार पूर्व, निमित्त और कारण ये एकार्थवाची हैं। मति का व्याख्यान पहले कर आये हैं। वह मति जिसका पूर्व अर्थात् निमित्त है वह मतिपूर्व कहलाता है जिसका अर्थ मतिकारणक होता है। तात्पर्य यह है कि जो मतिज्ञान के निमित्त से होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। शंका – यदि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तो श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोक में कारण के समान ही कार्य देखा जाता है ? समाधान – यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारण के समान कार्य होता है। यद्यपि घट की उत्पत्ति दण्डादिक से होती है तो भी वह दण्डाद्यात्मक नहीं होता। दूसरे, मतिज्ञान के रहते हुए भी श्रुतज्ञान नहीं होता। यद्यपि मतिज्ञान रहा आता है और श्रुतज्ञान के बाह्य निमित्त भी रहे आते हैं तो भी जिसके श्रुतज्ञानावरण का प्रबल उदय पाया जाता है उसके श्रुतज्ञान नहीं होता। किन्तु श्रुतज्ञानावरण कर्म का प्रकर्ष क्षयोपशम होने पर ही श्रुतज्ञान होता है इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तमात्र जानना चाहिए। शंका – श्रुतज्ञान को अनादिनिधन कहा है। ऐसी अवस्था में उसे मतिज्ञानपूर्वक मान लेने पर उसकी अनादिनिधनता नहीं बनती, क्योंकि जिसका आदि होता है उसका अन्त अवश्य होता है। और इसलिए वह पुरुष का कार्य होने से उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता। समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्य आदि सामान्य नयकी मुख्यतासे श्रुतको अनादिनिधन कहा है। किसी पुरुषने कहीं और कभी किसी भी प्रकारसे उसे किया नहीं है। हाँ उन्हीं द्रव्य आदि विशेष नयकी अपेक्षा उसका आदि और अन्त सम्भव है इसलिए 'वह मतिपूर्वक होता है' ऐसा कहा जाता है। जैसे कि अंकुर बीजपूर्वक होता है, फिर भी वह सन्तानकी अपेक्षा अनादिनिधन है। दूसरे, जो यह कहा है कि पुरुषका कार्य होनेसे वह अप्रमाण है सो अपौरुषेयता प्रमाणताका कारण नहीं है। यदि अपौरुषेयताको प्रमाणता का कारण माना जाय तो जिसके कर्ता का स्मरण नहीं होता ऐसे चोरी आदिके उपदेश भी प्रमाण हो जाएँगे। तीसरे, प्रत्यक्ष आदि ज्ञान अनित्य होकर भी यदि प्रमाण माने जाते हैं तो इसमें क्या विरोध है, अर्थात् कुछ भी नहीं। शंका – प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के साथ ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है, अत: श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है यह कथन नहीं बनता ? समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान में समीचीनता सम्यग्दर्शन के निमित्त से प्राप्त होती है। इन दोनों का आत्मलाभ तो क्रमसे ही होता है, इसलिए 'श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है' इस कथनका व्याघात नहीं होता। शंका – 'मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है' इस लक्षण में अव्याप्ति दोष आता है क्योंकि श्रुतज्ञानपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है ऐसा कहा जाता है। यथा – किसी एक जीवने वर्ण, पद और वाक्य आदिरूपसे शब्द परिणत पुद्गल स्कन्धोंको कर्ण इन्द्रिय-द्वारा ग्रहण किया। अनन्तर उससे घटपदार्थविषयक प्रथम श्रुतज्ञान हुआ। यदि उसने घटके कार्योंका संकेत कर रखा है तो उसे उस घटज्ञानके बाद जलधारणादि दूसरे कार्योंका ज्ञान होता है और तब श्रुतज्ञानसे श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। या किसी एक जीव ने चक्षु आदि इन्द्रियों के विषय का ग्रहण किया। अनन्तर उसे उससे धूमादि पदार्थविषयक प्रथम श्रुतज्ञान हुआ। यदि उसे धूमादि और अग्नि आदि द्रव्यके सम्बन्धका ज्ञान है तो वह धूमादिके निमित्तसे अग्नि आदि द्रव्यको जानता है और तब भी श्रुतज्ञानसे श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है यह बात नहीं बनती ? समाधान – यह कोर्इ दोष नहीं है, क्योंकि जहाँ पर श्रुतज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है वहाँ पर प्रथम श्रुतज्ञान उपचार से मतिज्ञान माना गया है। श्रुतज्ञान भी कहीं पर मतिज्ञानरूप से उपचरित किया जाता है क्योंकि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है ऐसा नियम है। सूत्रमें आये हुए 'भेद' शब्द को दो आदि प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा – दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद। श्रुतज्ञानके दो भेद अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट हैं। अंगबाह्यके दशवैकालिक और उत्तराध्यययन आदि अनेक भेद है। अंगप्रविष्टके बारह भेद हैं। यथा – आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दश, अनुत्तरौपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। दृष्टिवादके पाँच भेद हैं – परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। इनमें-से पूर्वगतके चौदह भेद हैं – उत्पादपूर्व, आग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। इस प्रकार यह श्रुत दो प्रकारका , अनेक प्रकारका और बारहप्रकारका है। शंका – यह भेद किंकृत है ? समाधान – यह भेद वक्ताविशेषकृत है। वक्ता तीन प्रकारके हैं – सर्वज्ञ, तीर्थंकर या सामान्य केवली तथा श्रुतकेवली और आरातीय। इनमें-से परम ऋषि सर्वज्ञ उत्कृष्ट और अचिन्त्य केवलज्ञानरूपी विभूतिविशेष से युक्त है। इस कारण उन्होंने अर्थरूपसे आगमका उपदेश दिया । ये सर्वज्ञ प्रत्यक्षदर्शी और दोषमुक्त हैं, इसलिए प्रमाण हैं। इनके साक्षात् शिष्य और बुद्धिके अतिशयरूप ऋद्धिसे युक्त गणधर श्रुतकेवलियोंने अर्थरूप आगमका स्मरण कर अंग और पूर्वग्रन्थोंकी रचना की। सर्वज्ञदेवकी प्रमाणताके कारण ये भी प्रमाण हैं। तथा आरातीय आचार्योंने कालदोषसे जिनकी आयु, मति और बल घट गया है ऐसे शिष्योंका उपकार करनेके लिए दशवैकालिक आदि ग्रन्थ रचे। जिस प्रकार क्षीरसागरका जल घटमें भर लिया जाता है उसी प्रकार ये ग्रन्थ भी अर्थरूपसे वे ही हैं, इसलिए प्रमाण हैं। परोक्ष प्रमाणका व्याख्यान किया। अब प्रत्यक्ष प्रमाणका व्याख्यान करना है। वह दो प्रकारका है – देशप्रत्यक्ष और सर्वप्रत्यक्ष। देशप्रत्यक्ष अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानके भेदसे दो प्रकारका है। सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है। यदि ऐसा है तो तीन प्रकारके प्रत्यक्षके आदिमें कहे गये अवधिज्ञानका व्याख्यान करना चाहिए, इसलिए कहते हैं – अवधिज्ञान दो प्रकारका है – भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक। उनमें-से सर्वप्रथम भवप्रत्यय अवधिज्ञानका अगले सूत्र द्वारा कथन करते हैं – |
राजवार्तिक :
1. जिस प्रकार कुशल शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ कुश को काटनेवाला होता है फिर भी रूढि से उसका चतुर अर्थ लिया जाता है उसी तरह श्रुत का व्युत्पत्त्यर्थ 'सुना हुआ' होनेपर भी उसका श्रुतज्ञान रूप ज्ञान-विशेष अर्थ लिया जाता है। 2. पूर्व अर्थात् कारण, कार्य को पोषण या उसे पूर्ण करने की वजह से कारण पूर्व कहा जाता है। 3-5. प्रश्न – जैसे मिट्टीके पिण्डसे बना हुआ घड़ा मिट्टी रूप होता है उसी तरह मतिपूर्वक श्रुत भी मतिरूप ही होना चाहिए अन्यथा उसे मतिपूर्वक नहीं कह सकते। उत्तर – मतिज्ञान श्रुतज्ञान में निमितमात्र है उपादान नहीं । उपादान तो श्रुतपर्याय से परिणत होनेवाला आत्मा है । जैसे दंड चक्रादि घड़े में निमित्त हैं अतः इनका घटरूप परिणमन नहीं होता और न इनके रहने मात्र से घटभवन के अयोग्य रेत ही घड़ा बन सकती है किन्तु घट होने लायक मिट्टी ही घड़ा बनती है उसी तरह श्रोत्रेन्द्रियजन्य मतिज्ञान के निमित्त होने-मात्र से श्रुतज्ञान नहीं बनता और न श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से रहित आत्मा में श्रुतज्ञान होता है किन्तु श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से जिसमें श्रुत होने की योग्यता है वही आत्मा श्रुतज्ञानरूप से परिणत होता है। फिर, यह कोई नियम नहीं है कि कारण के समान ही कार्य होना चाहिए। पुद्गलद्रव्य की दृष्टि से मिट्टी-रूप कारण के समान घड़ा होता है पर पिण्ड और घट पर्यायों की अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं। यदि कारण के सदृश ही कार्य हो तो घट अवस्था से भी पिंड शिवक आदि पर्यायें मिलनी चाहिए थीं। जैसे मृत्पिंड में जल नहीं भर सकते उसी तरह घड़े में भी नहीं भरा जाना चाहिए । घट का भी घट-रूप से ही परिणमन होना चाहिए, कपालरूप नहीं, क्योंकि आपके मत से कारण के सर्वथा सदृश ही कार्य के होने का नियम है। उसी तरह चैतन्य-द्रव्य की दृष्टि से मति और श्रुत दोनों एक हैं क्योंकि मति भी ज्ञान है और श्रुत भी ज्ञान है। किन्तु तत्तत् ज्ञान पर्यायों की दृष्टि से दोनों ज्ञान जुदा-जुदा हैं। 6. प्रश्न – श्रोत्रेन्द्रियजन्य मतिज्ञान से जो उत्पन्न हो उसे ही श्रुत कहना चाहिए क्योंकि सुनकर जो जाना जाता है वही श्रुत होता है। इस प्रकार चक्षु इन्द्रिय आदि से श्रुत नहीं हो सकेगा? उत्तर – श्रुत शब्द श्रुतज्ञान विशेष में रूढ होने के कारण सभी मतिज्ञान पूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानों में व्याप्त है। 7. प्रश्न – जिसका आदि होता है उसका अन्त भी, अतः श्रुत में अनादिनिधनता नहीं बन सकती । पुरुषकर्तृक होने के कारण श्रुत अप्रमाण भी होगा? उत्तर – द्रव्यादि सामान्य की अपेक्षा श्रुत अनादि है, क्योंकि किसी भी पुरुष ने किसी नियत-समय में अविद्यमान-श्रुत की उत्पत्ति नहीं देखी। उस उस श्रुत पर्याय की अपेक्षा उसका आदि भी है और अन्त भी। तात्पर्य यह कि श्रुतज्ञान सन्तति की अपेक्षा अनादि है । अपौरुषेयता प्रमाणता का कारण नहीं है अन्यथा चोरी व्यभिचार आदि के उपदेश भी प्रमाण हो जायेंगे क्योंकि इनका कोई आदिप्रणेता ज्ञात नहीं है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाण अनित्य हैं पर इससे उनकी प्रमाणता में कोई कसर नहीं आती। 8. प्रश्न – प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति होने पर एक साथ मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान की निवत्ति होकर मति और श्रत उत्पन्न होते हैं अतः श्रुत को मतिपूर्वक नहीं कहना चाहिए ? उत्तर – मति और श्रुत में 'सम्यक्' व्यपदेश युगपत् होता है न कि उत्पत्ति । दोनों की उत्पत्ति तो अपने-अपने कारणों से क्रमशः ही होती है। 9. चूंकि सभी प्राणियों के अपने-अपने श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार श्रुत की उत्पत्ति होती है अतः मतिपूर्वक होने पर भी सभी के श्रुतज्ञानों में विशेषता बनी रहती है । कारणभेद से कार्यभेद का नियम सर्वसिद्ध है। 10. प्रश्न – घट शब्द को सुनकर प्रथम घट अर्थ का श्रुतज्ञान हुआ उस श्रुत से जलधारणादि कार्यों का जो द्वितीय श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे श्रुतपूर्वक श्रुत होने से 'मतिपूर्वक' नहीं कह सकते, अतः लक्षण अव्याप्त हो जाता है। इसी तरह धूम अर्थ का ज्ञान प्रथम श्रुत हुआ, उससे उत्पन्न होनेवाले अविनाभावी अग्नि के ज्ञान में श्रुतपूर्वक श्रुतत्व होने से 'मतिपूर्वक' लक्षण अव्याप्त हो जाता है। उत्तर – प्रथम श्रुतज्ञान में मतिजन्य होने से 'मतिज्ञानत्व'का उपचार कर लिया जाता है और इस तरह द्वितीय श्रुत में भी 'मतिपूर्वकत्व' सिद्ध हो जाता है । अथवा, पूर्व शब्द व्यवहित पूर्व को भी कहता है । जैसे 'मथुरा से पटना पूर्व में है' यहां अनेक नगरों से व्यवहित भी पटना पूर्व कहा जाता है उसी तरह साक्षात् या परम्परया मतिपूर्वक ज्ञान श्रुत कहे जाते हैं। 11. भेद शब्द का अन्वय द्वि आदि से कर लेना चाहिए । अर्थात् दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद। 12. श्रुतज्ञान के मूल दो भेद हैं - एक अंगप्रविष्ट और दूसरा अङ्गबाह्य । अङ्गप्रविष्ट आचाराङ्ग आदिके भेदसे बारह प्रकार का है। भगवान् महावीररूपी हिमाचल से निकली हुई वाग्गंगा के अर्थरूप जल से जिनका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है, उन बुद्धि-ऋद्धि के धनी गणधरों द्वारा ग्रन्थरूप में रचे गये आचाराङ्ग आदि बारह अङ्ग हैं ।
13-14. गणधरदेव के शिष्य प्रशिष्यों द्वारा अल्पायु-बुद्धिबलवाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रन्थ अंगबाह्य है। कालिक उत्कालिक आदि के भेद से अंगबाह्य अनेक प्रकार के हैं। स्वाध्यायकाल में जिनके पठन-पाठन का नियम है उन्हें कालिक कहते हैं तथा जिनके पठन-पाठन का कोई नियत समय न हो वे उत्कालिक हैं। उत्तराध्ययन आदि अंगबाह्य ग्रन्थ हैं। 15. अनुमान आदि का स्व-प्रतिपत्ति काल में अनक्षरश्रुत में अन्तर्भाव होता है तथा परतिपत्ति काल में अक्षरश्रुत में। इसीलिए इनका पृथक् उपदेश नहीं किया है। प्रत्यक्षपूर्वक तीन प्रकार का अनुमान होता है - पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट । अग्नि और धूम के अविनाभाव को जिस व्यक्ति ने पहिले ग्रहण कर लिया है उसे पीछे धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान होना पूर्ववत् अनुमान है । जिसने सींग और सींगवाले के सम्बन्ध को देखा है उसे सींग के रूप को देखकर सींगवाले का अनुमान होना शेषवत् है । देवदत्त का देशान्तर में पहुंचना गमनपूर्वक होता है, यह देखकर सूर्य में देशान्तर प्राप्तिरूप हेतु से गति का अनुगान करना सामान्यतोदृष्ट है । 'गाय सरीखा गवय होता है' इस उपमान वाक्य को सुनकर जंगल में गवय को देखकर उससें गवय संज्ञा के सम्बन्ध को जान लेना उपमान है। शब्द प्रमाण तो श्रुत है ही। 'भगवान् ऋषभ ने यह कहा' इत्यादि प्राचीन परम्परागत तथ्य ऐतिह्य प्रमाण है । 'यह आदमी दिन को नहीं खाकर भी जीता है' इस वाक्य को सुनकर अर्थात् ही 'रात्रि को खाता है' इस प्रकार रात्रि भोजन का ज्ञान कर लेना अर्थापत्ति है। 'चार प्रस्थ का आढक होता है' इस ज्ञान के होनेपर एक आढक में दो कुडव (आधा आढक) हैं इस प्रकार की संभावना संभव प्रमाण है । वनस्पतियों में हरा भरापन आदि न दिखने पर वृष्टि के अभाव का ज्ञान करना अभाव प्रमाण है। ये सभी अर्थापत्ति आदि अनुमान में अन्तर्भूत हैं, अतः अनुमान की तरह स्वप्रतिपत्तिकाल में अनक्षरश्रुत हैं तथा परप्रतिपत्तिकाल में अक्षरश्रुत । प्रत्यक्ष दो प्रकार का है देशप्रत्यक्ष और सर्वप्रत्यक्ष । देशप्रत्यक्ष के अवधि और मनःपर्यय दो प्रकार हैं और सर्वप्रत्यक्ष एक केवल ज्ञानरूप है। अवधि-ज्ञानावरण के क्षयोपशम से द्रव्यक्षेत्रादि से मर्यादित रूपीद्रव्य का ज्ञान अवधिज्ञान है । अवधिज्ञान दो प्रकार का है - भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । अथवा देशावधि और सर्वावधि ये दो भेद भी होते हैं। परमावधि सर्वावधि की अपेक्षा न्यून होने से देशावधि में ही गिन ली गई है। |