सर्वार्थसिद्धि :
अवधिज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों का उदय रहते हुए सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय और अनुदय प्राप्त इन्हीं का सदवस्थारूप उपशम इन दोनोंके निमित्तसे जो होता है वह क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान है। यह शेष जीवों के जानना चाहिए। शंका – शेष कौन हैं ? समाधान – मनुष्य और तिर्यंच। उनमें भी जिनके सामर्थ्य है उन्हीं के जानना चाहिए। असंज्ञी और अपर्याप्तकोंके यह सामर्थ्य नहीं है। संज्ञी और पर्याप्तकोंमें भी सबके यह सामर्थ्य नहीं होती। शंका – तो फिर किनके होती है ? समाधान – यथोक्त सम्यग्दर्शन आदि निमित्तों के मिलने पर जिनके अवधिज्ञानावरण कर्म शान्त और क्षीण हो गया है उनके यह सामर्थ्य होती है। अवधिज्ञान मात्र क्षयोपशमके निमित्तसे होता है तो भी सूत्रमें क्षयोपशम पदका ग्रहण यह नियम करनेके लिए किया है कि उक्त जीवोंके मात्र क्षयोपशम निमित्त है भव नहीं। यह अवधिज्ञान अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थितके भेदसे छह प्रकारका है। कोई अवधिज्ञान जैसे सूर्य का प्रकाश उसके साथ जाता है वैसे अपने स्वामी का अनुसरण करता है। कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता, किंतु जैसे विमुख हुए पुरुषके प्रश्नके उत्तरस्वरूप दूसरा पुरुष जो वचन कहता है वह वहीं छूट जाता है, विमुख पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता है वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहीपर छूट जाता है। कोई अवधिज्ञान जंगलके निर्मन्थन से उत्पन्न हुई और सूखे पत्तोंसे उपचीयमान ईंधनके समुदाय से वृद्धिको प्राप्त हुई अग्निके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी विशुद्धिरूप परिणामोंके सन्निधानवश जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उससे असंख्यात लोक जानने की योग्यता होने तक बढ़ता जाता है। कोई अवधिज्ञान परिमित उपादानसन्ततिवाली अग्निशिखाके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी हानिसे हुए संक्लेश परिणामोंके बढ़नेसे जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उससे मात्र अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण जाननेकी योग्यता होने तक घटता चला जाता है। कोई अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणोंके समानरूपसे स्थिर रहनेके कारण जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उतना ही बना रहता है। पर्यायके नाश होने तक या केवलज्ञानके उत्पन्न होने तक शरीरमें स्थित मसा आदि चिह्नके समान न घटता और न बढ़ता है। कोई अवधिज्ञान वायुके वेगसे प्रेरित जलकी तरंगोंके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी कभी वृद्धि और कभी हानि होनेसे जिनते परिमाणमें उत्पन्न होता है उससे बढ़ता है जहाँतक उसे बढ़ना चाहिए और घटता है जहाँतक उसे घटना चाहिए। इस प्रकार अवधिज्ञान छह प्रकारका है। इस प्रकार अवधिज्ञानका व्याख्यान किया। अब आगे मन:पर्ययज्ञानका व्याख्यान करना चाहिए, अत: उसके भेदोंके साथ लक्षणका कथन करनेकी इच्छासे आगेका सूत्र कहते हैं – |
राजवार्तिक :
1-3. शेष ग्रहण से देवनारकियों के अतिरिक्त सभी प्राणिमात्र के अवधि का विधान नहीं समझना चाहिए क्योंकि असंज्ञी और अपर्याप्तकों में इसकी शक्ति ही नहीं है। संज्ञी और पर्याप्तकों में भी उन्हीं के, जिनके सम्यग्दर्शनादि गुणों से अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हो गया है । यद्यपि सभी अवधि क्षयोपशमनिमित्तक होती है फिर भी विशेषरूप से क्षयोपशम के ग्रहण करने से यह नियम होता है कि मनुष्य और तिर्यचों के क्षयोपशमनिमित्तक ही अवधिज्ञान होता है भवप्रत्यय नहीं। 4. अवधिज्ञान के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित ये छह भेद हैं।
अंगुल के असंख्यात भाग क्षेत्रवाली अवधि का आवलि का संख्यात भाग काल है, अंगुल के असंख्यात भाग आकाश प्रदेश बराबर द्रव्य है, भाव अनन्त, असंख्यात या संख्यात रूप है। अंगुल प्रमाणक्षेत्रवाली अवधि का कुछ कम आवलि प्रमाण काल है, द्रव्य और भाव पहिले की तरह । अंगुल पृथक्त्व (तीनसे ऊपर 9 से नोचे की संख्या) क्षेत्रवाली अवधि का आवली प्रमाण काल है। एक हाथ क्षेत्रवाली अवधि का आवलि पृथक्त्व काल है। एक गव्यूति प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का कुछ अधिक उच्छ्वास प्रमाण काल है। योजनमात्र क्षेत्रवाली अवधि का अन्तर्मुहूर्त काल है। पच्चीस योजन क्षेत्रवाली अवधि का कुछ कम एक दिन काल है। भरतक्षेत्र प्रमाणवाली अवधि का आधा माह काल है। जम्बूद्वीप प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का कुछ अधिक एक माह काल है। मनुष्यलोक प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का एक वर्ष काल है। रुचकद्वीप प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का संवत्सर-पृथक्त्व काल है। संख्यात द्वीप समुद्र प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का संख्यात वर्ष काल है। असंख्यात द्वीप समुद्र प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का असंख्यात वर्ष काल है । इस तरह तिर्यञ्च और मनुष्यों की मध्य देशावधिक द्रव्यक्षेत्र काल आदि हैं। तिर्यचों की उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र असंख्यात द्वीपसमुद्र, काल असंख्यात वर्ष और तेजःशरीर प्रमाण द्रव्य है, अर्थात् वह असंख्यात द्वीप समुद्र प्रमाण आकाश प्रदेशों से परिमित असंख्यात तेजोद्रव्य वर्गणा से रचे गए अनन्त प्रदेशी स्कन्धों को जानता है। भाव पहिले की तरह है। तिर्यचों और मनुष्यों के जघन्य देशावधि होता है । तिर्यचों के केवल देशावधि ही होता है परमावधि और सर्वावधि नहीं। मनुष्योंकी उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र असंख्यात द्वीप समुद्र, काल असंख्य वर्ष और द्रव्य कार्मण शरीर प्रमाण है अर्थात् वह असंख्यात द्वीपसमुद्र प्रमाण आकाश प्रदेशों से परिमित असंख्यात ज्ञानावरणादि कार्मण द्रव्य की वर्गणाओं को जानता है। भाव पहिले की तरह है। यह उत्कृष्ट देशावधि संयत मनुष्यों के होती है। परमावधि - जघन्य परमावधि का क्षेत्र एकप्रदेश अधिक लोकप्रमाण, काल असंख्यात वर्ष, द्रव्य प्रदेशाधिक लोकाकाश प्रमाण और भाव अनन्तादि विकल्पवाला है। इसके बाद नाना जीव या एक जीव के क्षेत्रवृद्धि असंख्यात लोकप्रमाण होगी। असंख्यात अर्थात् आवलिका के असंख्यात भाग प्रमाण । परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र अग्निजीवों की संख्या प्रमाण लोकालोक प्रमाण असंख्यात लोक । परमावधि उत्कृष्ट चारित्रवाले संयत के ही होती है। यह वर्धमान होती है हीयमान नहीं। अप्रतिपाती होती है प्रतिपाती नहीं। अवस्थित होती है। अनवस्थित भी वृद्धि की ओर होती है हानि की ओर नहीं। इस पर्याय में क्षेत्रान्तर में साथ जाने से अनुगामी होती है। परलोक में नहीं जाती इसलिए अननुगामी भी होती है। चरमशरीरी के होने के कारण परलोक तक जाने का अवसर ही नहीं है। सर्वावधि - असंख्यात लोक से गुणित उत्कृष्ट परमावधि का क्षेत्र सर्वावधि का क्षेत्र है। काल द्रव्य और भाव पहिले की तरह। यह सर्वावधि न तो वर्धमान होता है न हीयमान, न अनवस्थित और न प्रतिपाती। केवलज्ञान होने तक अवस्थित है और अप्रतिपाती है । पर्यायान्तर को नहीं जाता इसलिए अननुगामी है। क्षेत्रान्तर को जाता है अतः अनुगामी है। परमावधि का देशावधि में अन्तर्भाव करके देशावधि और सर्वावधि ये दो भेद भी अवधिज्ञान के होते हैं। ऊपर कही गई वृद्धियों में जब कालवृद्धि होती है तब चारों की वृद्धि निश्चित है पर क्षेत्रवृद्धि होने पर कालवृद्धि भाज्य है अर्थात् हो भी और न भी हो। भाववृद्धि होनेपर द्रव्यवृद्धि नियत है पर क्षेत्र और कालवृद्धि भाज्य है। यह अवधिज्ञान श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त आदि शरीरचिह्नों में से किसी एक से प्रकट होने पर एकक्षेत्र और अनेक से प्रकट होने पर अनेकक्षेत्र कहा जाता है। इन चिह्नों की अपेक्षा रखने के कारण इसे पराधीन अतएव परोक्ष नहीं कह सकते; क्योंकि इन्द्रियों को ही 'पर' कहा गया है, जैसा कि गीतामें भी कहा है - "इन्द्रियां पर हैं, इन्द्रियों से भी परे मन है, मन से परे बुद्धि और बुद्धि से भी परे आत्मा है।" अतः इन्द्रियों की अपेक्षा न होने से परोक्ष नहीं कह सकते। |