सर्वार्थसिद्धि :
ऋजु का अर्थ निर्वर्तित और प्रगुण है। शंका – किससे निर्वर्तित ? समाधान – दूसरे के मन को प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थ के विज्ञान से अनिर्वर्तित । जिसकी मति ऋजु है वह ऋजुमति कहलाता है । विपुल का अर्थ अनिर्वर्तित और कुटिल है । शंका – किससे अनिर्वर्तित ? समाधान – दूसरे के मनको प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थ के विज्ञानसे अनिवर्तित। जिसकी मति विपुल है वह विपुलमति कहलाता है। सूत्रमें जो 'ऋजुविपुलमती' पद आया है वह ऋजुमति और विपुलमति इन पदों से समसित होकर बना है । यहाँ एक ही मति शब्द पर्याप्त होनेसे दूसरे मति शब्दका प्रयोग नहीं किया । अथवा ऋजु और विपुल शब्द का कर्मधारय समास करनेके बाद इनका मति शब्दके साथ बहुव्रीहि समास कर लेना चाहिए। तब भी दूसरे मति शब्दकी आवश्यकता नहीं रहती । यह मन:पर्ययज्ञान दो प्रकारका है – ऋजुमति और विपुलमति । शंका – मन:पर्ययज्ञान के भेद तो कह दिये । अब उसका लक्षण कहना चाहिए । समाधान – वीर्यान्तराय और मन:पर्यय ज्ञानावरण के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके आलम्बन से आत्मा में जो दूसरे के मन के सम्बन्ध से उपयोग जन्म लेता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । शंका – यह ज्ञान मन के सम्बन्ध से होता है, अत: इसे मतिज्ञान होने का प्रसंग आता है ? समाधान – नहीं, क्योंकि इस शंका का उत्तर पहले दे आये हैं । अर्थात् यहाँ मन की अपेक्षामात्र है । दूसरेके मनमें अवस्थित अर्थ को यह जानता है इतनी मात्र यहाँ मन की अपेक्षा है । इनमें से ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान काल की अपेक्षा जघन्य से जीवों के और दो तीन भवों को ग्रहण करता है, उत्कृष्ट से गति और आगति की अपेक्षा सात-आठ भवों का कथन करता है । क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से गव्यूतिपृथक्त्व और उत्कृष्ट से योजनपृथक्त्व के भीतर की बात जानता है, इससे बाहर की नहीं । विपुलमति काल की अपेक्षा जघन्य से सात-आठ भवों को ग्रहण करता है, उत्कृष्ट से गति ओर आगति की अपेक्षा असंख्यात भवों का कथान करता है । क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजन-पृथक्त्व और उत्कृष्ट से मानुषोत्तर पर्वत के भीतर की बात जानता है, इससे बाहर की बात नहीं जानता । पहले मन:पर्ययज्ञानके दो भेद कहे हैं उनका और विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
ऋजु अर्थात् सरल और विपुल अर्थात् कुटिल । परकीय मनोगत मन-वचन-काय सम्बन्धी पदार्थों को जानने के कारण मनःपर्यय दो प्रकार का हो जाता है। 1-6. वीर्यान्तराय और मनःपर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर तथा तदनुकूल अङ्ग उपाङ्गों का निर्माण होने पर अपने और दूसरे के मन की अपेक्षा से होनेवाला ज्ञान मनःपर्यय कहलाता है। अपने मन की अपेक्षा तो इसलिए होती है कि वहां के आत्मप्रदेशों में मनःपर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है। जैसे चक्षु में अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर चक्षु की अपेक्षा होने मात्र से अवधिज्ञान को मतिज्ञान नहीं कहते उसी तरह मनःपर्यय भी मतिज्ञान नहीं है क्योंकि वह इन्द्रिय और मन से उत्पन्न नहीं होता। पर के मन में स्थित विचारों को जानता है अतः आकाश में चन्द्र को देखने के लिए जैसे आकाश साधारण-सा निमित्त है वह चन्द्रज्ञान का उत्पादक नहीं है उसी तरह पर का मन साधारण सा आधार है वह मनःपर्ययज्ञान का उत्पादक नहीं है। इसलिए मनःपर्यय मतिज्ञान नहीं हो सकता। इसी तरह धूम से स्वसम्बन्धी अग्नि के ज्ञान की तरह परकीय मनःसम्बन्धी विचारों को जानने के कारण मनःपर्यय ज्ञान को अनुमान नहीं कह सकते; क्योंकि अनुमान या तो इन्द्रियों से हेतु को देखकर या परोपदेश से हेतु को जानकर ही उत्पन्न होता है परन्तु मनःपर्यय में न तो इन्द्रियों की अपेक्षा होती है और न परोपदेश की ही। फिर अनुमान परोक्ष ज्ञान है जब कि मनःपर्यय प्रत्यक्ष । इसमें 'इन्द्रिय मन की अपेक्षा न करके जो अव्यभिचारी और साकार ग्रहण होता है वह प्रत्यक्ष है' यह प्रत्यक्ष का लक्षण पाया जाता है । जैसा कि सूत्र में बताया है मनःपर्यय दो प्रकार का है । 7. ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ, ऋजुवाक्कृतार्थज्ञ और ऋजुकायकृतार्थज्ञ इस प्रकार ऋजुमति तीन प्रकार का है । जैसे किसी ने किसी समय सरल मन से किसी पदार्थ का स्पष्ट विचार किया, स्पष्ट वाणी से कोई विचार व्यक्त किया और शरीर से इसी प्रकार की स्पष्ट क्रिया की, कालान्तर में उसे भूल गया, फिर यदि ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानी से पूछा जाय कि - 'इसने अमुक समय में क्या सोचा था, क्या कहा था या क्या किया था ?' या न भी पूछा जाय तो भी वह स्पष्ट रूप से सभी बातों को प्रत्यक्ष जानकर बता देगा। महाबन्ध शास्त्र में बताया है कि 'मनसा मन: परिच्छिद्य परेषां संज्ञादीन् विजानाति' अर्थात् मन से-आत्मा से दूसरे के मन को जानकर उसकी संज्ञा-चिन्ता, जीवित-मरण, सुख-दुःख, लाभालाभ को जान लेता है । जैसे मंच पर बैठे हुए लोगों को उपचार से मंच कहते हैं उसी तरह मन में विचारे गये चेतन-अचेतन अर्थों को भी मन कहते हैं । यह स्पष्ट और सरल मनवाले लोगों की बात को जानता है, कुटिल मनवालों की बात को नहीं। काल से जघन्यरूप से अपने या अन्य जीवों के दो-तीन भव और उत्कृष्ट रूप से सात-आठ भवों को गति-आगति अर्थात् जिस भव को छोड़ा और जिसे ग्रहण किया उनकी दो गिनती करके जानता है । क्षेत्र से जघन्य गव्यूति पृथक्त्व के भीतर और उत्कृष्ट योजनपृथक्त्व के भीतर जानता है। 8. विपुलमति ऋजु के साथ ही साथ कुटिल मन-वचन-काय सम्बन्धी प्रवृत्तियों को भी जानता है अतः छह प्रकार का हो जाता है। अर्थात् यह अपने या पर के व्यक्त-मन से या अव्यक्त-मन से चिन्तित या अचिन्तित या अर्धचिन्तित सभी प्रकार से चिन्ता, जीवित-मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ आदि को जानता है। विपुलमति काल से जघन्यरूप से सात-आठ भव तथा उत्कृष्टरूप से गत्यागति की दृष्टि से असंख्यात भवों को जानता है। क्षेत्र जघन्यरूप से योजनपृथक्त्व है और उत्कृष्ट मानुषोत्तर पर्वत के भीतर है, बाहिर नहीं । |