सर्वार्थसिद्धि :
प्रकृत में 'सत्' का अर्थ विद्यमान और 'असत्' का अर्थ अविद्यमान है । इनकी विशेषता न करके इच्छानुसार ग्रहण करने से विपर्यय होता है । कदाचित् रूपादिक विद्यमान हैं तो भी उन्हें अविद्यमान कहता है । और कदाचित् अविद्यमान वस्तु को भी विद्यमान कहता है । कदाचित् सत् को सत् और असत् को असत् ही मानता है । यह सब निश्चय मिथ्यादर्शन के उदयसे होता है । जैसे पित्त के उदय से आकुलित बुद्धिवाला मनुष्य माता को भार्या और भार्या को माता मानता है । जब अपनी इच्छा की लहरके अनुसार माता को माता और भार्या को भार्या ही मानता है तब भी वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है इसी प्रकार मत्यादिक का भी रूपादिक में विपर्यय जानना चाहिए । खुलासा इस प्रकार है - आत्मा में स्थित कोई मिथ्यादर्शन-रूप परिणाम रूपादिक की उपलब्धि होने पर भी कारण विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास को उत्पन्न करता रहता है । कारणविपर्यास यथा - कोई मानते हैं कि रूपादिक का एक कारण है जो अमूर्त और नित्य है । कोई मानते हैं कि पृथिवी जाति के परमाणु अलग हैं जो चार गुणवाले हैं । जल जाति के परमाणु अलग हैं जो तीन गुणवाले हैं । अग्नि जाति के परमाणु अलग हैं जो दो गुणवाले हैं और वायु जाति के परमाणु अलग हैं जो एक गुणवाले हैं । तथा ये परमाणु अपने समान जातीय कार्य को ही उत्पन्न करते हैं । कोई कहते हैं कि पृथिवी आदि चार भूत हैं और इन भूतों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये भौतिक धर्म हैं । इन सब के समुदाय को एक रूप परमाणु या अष्टक कहते हैं । कोई कहते हैं कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये क्रम से काठिन्यादि, द्रवत्वादि, उष्णत्वादि और ईरणत्वादि गुणवाले अलग-अलग जाति के परमाणु होकर कार्य को उत्पन्न करते हैं । भेदाभेदविपर्यास यथा - कारण से कार्यको सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न मानना । स्वरूपविपर्यास यथा - रूपादिक निर्विकल्प हैं, या रूपादिक हैं ही नहीं, या रूपादिक के आकाररूप से परिणत हुआ विज्ञान ही है उसका आलम्बन-भूत और कोई बाह्य पदार्थ नहीं है । इसीप्रकार मिथ्यादर्शन के उदय से ये जीव प्रत्यक्ष और अनुमान के विरुद्ध नाना प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं और उनमें श्रद्धान उत्पन्न करते हैं । इसलिए इनका यह ज्ञान मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान या विभंगज्ञान होता है। किन्तु सम्यग्दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञान में श्रद्धान उत्पन्न करता है, अत: इस प्रकार का ज्ञान मति-ज्ञान, श्रुत-ज्ञान और अवधि-ज्ञान होता है । दो प्रकारके प्रमाणका वर्णन किया । प्रमाणके एकदेशको नय कहते हैं । इनका कथन प्रमाणके अनन्तर करना चाहिए, अत: आगेका सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1. सत्-अर्थात् प्रशस्ततत्त्वज्ञान, असत् अर्थात् अज्ञान इनमें मिथ्यादृष्टि को कोई विशेषता का भान नहीं होता वह कभी सत् को असत् और असत् को सत् कहता है, झोंक में आकर यदृच्छा से सत् को सत् और असत् को असत् कहने पर भी उसका वह मिथ्याज्ञान ही है। जैसे कि कोई पागल गाय को घोड़ा या घोडा को गाय कहता है, कभी गाय को गाय और घोड़े को घोड़ा कहने पर भी उसका सब पागलपन ही कहा जाता है । 2. अथवा सत् शब्द विद्यमानार्थक है । वह कभी विद्यमान को अविद्यमान, अविद्यमान को विद्यमान रूप से जानता है । 3. इसका कारण है विभिन्न मतवादियों द्वारा वस्तु के स्वरूप का विभिन्न प्रकार से वर्णन और प्रचार करना ।
इसी तरह यदि द्रव्य का अस्तित्व न हो तो निराश्रय रूपादि का आधार क्या होगा ? यदि रूपादि परस्पर में अभिन्न हों तो एक से अभिन्न होने के कारण सभी एक हो जायेंगे समुदाय का अभाव ही हो जायगा। यदि द्रव्य और गुण में सर्वथा भेद है तो उनमें परस्पर लक्ष्यलक्षणभाव नहीं हो सकेगा। दण्ड और दण्डी की तरह पृथक् सिद्धगत लक्ष्यलक्षणभाव तो तब बन सकता है जब द्रव्य और गुण दोनों पृथक् सिद्ध हों। द्रव्य से भिन्न अमूर्त रूपादि गुणों से इन्द्रिय का सन्निकर्ष भी नहीं होगा और इस तरह उनका परिज्ञान करना ही असम्भव हो जायगा; क्योंकि भिन्न द्रव्य तो कारण हो नहीं सकेगा। 4. केवल स्वरूप में ही नहीं किन्तु जगत् के मूल-कारणों में ही प्रवादियों को विवाद है। जैसे सांख्यों का मत है कि - अव्यक्त प्रकृति से महान्-बुद्धि, महान् से अहङ्कार, अहङ्कार से पाँच इन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियों के विषय तन्मात्रा और पृथिवी आदि पाँच महाभूत और मन ये सोलह गुण और पाँच महाभूतों से यह दृश्य-जगत् उत्पन्न होता है। यह मत निर्दोष नहीं है; क्योंकि अमूर्त, निरवयव, निष्क्रिय, अतीन्द्रिय, नित्य और पर-प्रयोग से अप्रभावित प्रधान से मूर्त, सावयव, सक्रिय, इन्द्रियग्राह्य आदि विपरीत लक्षणवाले घटादि पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती । स्वयं चेतनाशून्य प्रधान का इस तरह बुद्धिपूर्वक सृष्टि को उत्पन्न करना सम्भव ही नहीं है । पुरुष स्वयं निष्क्रिय है वह प्रधान को प्रेरणा भी नहीं दे सकता । फिर प्रधान को सृष्टि के उत्पन्न करने का खास प्रयोजन भी नहीं दिखाई देता। 'पुरुष को भोग सम्पादन करना' यह प्रयोजन भी नहीं हो सकता; क्योंकि नित्य और विभु आत्मा का भोक्तारूप से परिणमन ही नहीं हो सकता। स्वयं अचेतन प्रधान प्रेरित होकर भी बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं कर सकता। वैशेषिकों का मत है कि - पथिवी आदि द्रव्यों के जुदा-जुदा परमाणु हैं । उनमें अदृष्ट आदि से क्रिया होती है फिर द्वयणुकादि क्रम से घटादि की उत्पत्ति होती है। यह मत भी ठीक नहीं है। क्योंकि परमाणु नित्य हैं, अतः उनमें कार्य को उत्पन्न करने का परिणमन ही नहीं हो सकता। यदि परिणमन हो तो नित्यता नहीं हो सकती। फिर परमाणुओं से भिन्न किसी स्वतन्त्र अवयवीरूप कार्य की उपलब्धि भी नहीं होती। परमाणुओं में पृथिवीत्व आदि जातिभेद की कल्पना भी प्रमाणसिद्ध नहीं है। क्योंकि
बौद्धों की मान्यता है कि वर्णादि परमाणुसमुदयात्मक रूप परमाणुओं का संचय ही इन्द्रियग्राह्य होकर घटादि व्यवहार का विषय होता है। इनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि जब प्रत्येक परमाणु अतीन्द्रिय है तो उनसे अभिन्न समुदाय भी इन्द्रियग्राह्य नहीं हो सकता । जब उनका कोई दृश्य कार्य सिद्ध नहीं होता तब कार्यलिङ्गक अनुमान से परमाणुओं की सत्ता भी सिद्ध नहीं की जा सकेगी। परमाणु चूंकि क्षणिक और निष्क्रिय हैं अतः उनसे कार्योत्पत्ति भी नहीं हो सकती। विभिन्न शक्तिवाले उन परमाणुओं का परस्पर स्वतः सम्बन्ध की संभावना नहीं है और अन्य कोई सम्बन्ध का कर्ता हो नहीं सकता। तात्पर्य यह कि परस्पर सम्बन्ध नहीं होने के कारण घटादि स्थूल कार्यों की उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। इसी तरह बिगड़े पित्तवाले रोगी को रसनेन्द्रिय के विपर्यय की तरह अनेक प्रकार के विपर्यय मिथ्यादृष्टि को होते रहते हैं। चारित्र मोक्ष का प्रधान कारण है अत: उसका वर्णन मोक्ष के प्रसङ्ग में किया जायगा। केवलज्ञान हो जाने पर भी जब तक व्युपरतक्रियानिवृति ध्यानरूप चरम चारित्र नहीं होता तब तक मुक्ति की संभावना नहीं है । |