सर्वार्थसिद्धि :
इनका सामान्य और विशेष लक्षण कहना चाहिए । सामान्य लक्षण - अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थताके प्राप्त करानेमें समर्थ प्रयोगको नय कहते हैं । इसके दो भेद हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक नय कहलाता है । तथा पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है और इसको विषय करनेवाला नय पर्यायार्थिक नय कहलाता है । इन दोनों नयों के उत्तर भेद नैगमादिक हैं । अब इनका विशेष लक्षण कहते हैं - अनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करनेवाला नय नैगम है । यथा - हाथ में फरसा लेकर जाते हुए किसी पुरुष को देखकर कोई अन्य पुरुष पूछता है आप किस काम के लिए जा रहे हैं । वह कहता है प्रस्थ लाने के लिए जा रहा हूँ । उस समय वह प्रस्थ पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल उसके बनाने का संकल्प होने से उसमें प्रस्थ व्यवहार किया गया है । तथा ईंधन और जल आदि के लाने में लगे हुए किसी पुरुष से कोई पूछता है कि आप क्या कर रहे हैं ? उसने कहा भात पका रहा हूँ । उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भात के लिए किये गये व्यापार में भात का प्रयोग किया गया है । इस प्रकार का जितना लोक-व्यवहार अनिष्पन्न अर्थ के आलम्बन से संकल्प-मात्र को विषय करता है वह सब नैगम नय का विषय है । भेदसहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध-द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है । यथा - सत्, द्रव्य और घट आदि । 'सत्' ऐसा कहने पर सत् इस प्रकारके वचन और विज्ञान की अनुवृत्ति-रूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधार-भूत सब पदार्थों का सामान्य-रूप से संग्रह हो जाता है । 'द्रव्य' ऐसा कहनेपर भी 'उन-उन पर्यायोंको द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है' इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है । तथा 'घट' ऐसा कहने पर भी घट इस प्रकार की बुद्धि और घट इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्ति-रूप लिंग से अनुमित सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है । इस प्रकार अन्य भी संग्रह नय का विषय है । संग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थोंका विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहार नय है । शंका – विधि क्या है ? समाधान – जो संग्रह नयके द्वारा गृहीत अर्थ है उसीके आनुपूर्वी क्रमसे व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि है । यथा - सर्वसंग्रह नय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है वह अपने उत्तर भेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहार नय का आश्रय लिया जाता है । यथा - जो सत् है वह या तो द्रव्य है या गुण । इसी प्रकार संग्रह नय का विषय जो द्रव्य है वह जीव अजीव विशेष की अपेक्षा किये बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है इस प्रकार के व्यवहार का आश्रय लिया जाता है । जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रह नय के विषय रहते हैं तब तक वे व्यवहार कराने में असमर्थ हैं, इसलिए व्यवहार से जीव द्रव्य के देव, नारकी आदिरूप और अजीव द्रव्यके घटादि-रूप भेदों का आश्रय लिया जाता है । इस प्रकार इस नय की प्रवृत्ति वहीं तक होती है जहाँ तक वस्तु में फिर कोई विभाग करना सम्भव नहीं रहता । ऋजु का अर्थ प्रगुण है । जो ऋजु अर्थात् सरल को सूत्रित करता है अर्थात् स्वीकार करता है वह ऋजुसूत्र नय है । यह नय पहले हुए और पश्चात् होने वाले तीनों कालों के विषयों को ग्रहण न करके वर्तमान काल के विषय-भूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्योंकि अतीत के विनष्ट और अनागत के अनुत्पन्न होने से उनमें व्यवहार नहीं हो सकता । वह वर्तमान काल समयमात्र है और उसके विषय-भूत पर्याय-मात्र को विषय करने वाला यह ऋजुसूत्र-नय है । शंका – इस तरह संव्यवहार के लोपका प्रसंग आता है ? समाधान – नहीं; क्योंकि यहाँ इस नय का विषयमात्र दिखलाया है, लोक संव्यवहार तो सब नयों के समूह का कार्य है । लिंग, संख्या और साधन आदिके व्यभिचारकी निवृत्ति करनेवाला शब्दनय है । लिंगव्यभिचार यथा - पुष्य, तारका और नक्षत्र । ये भिन्न-भिन्न लिंगके शब्द हैं । इनका मिलाकर प्रयोग करना लिंगव्यभिचार है । संख्याव्यभिचार यथा - 'जलं आप:, वर्षा: ऋतु:, आम्रा वनम्, वरणा: नगरम्' ये एकवचनान्त और बहुवचनान्त शब्द हैं । इनका विशेषण-विशेष्य-रूप से प्रयोग करना संख्या-व्यभिचार है । साधनव्यभिचार यथा - 'सेना पर्वतमधिवसति' सेना पर्वतपर है । यहाँ अधिकरण कारक के अर्थ में सप्तमी विभक्ति न होकर द्वितीया विभक्ति है, इसलिए यह साधन-व्यभिचार है । पुरुष-व्यभिचार यथा - 'एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता' = आओ, तुम समझते हो कि मैं रथसे जाऊँगा, नहीं जाओगे । तुम्हारे पिता गये । यहाँ 'मन्यसे' के स्थान में 'मन्ये' और 'यास्यामि' के स्थान में 'यास्यसि' क्रिया का प्रयोग किया गया है, इसलिए यह पुरुष-व्यभिचार है । काल-व्यभिचार यथा - 'विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता' = इसका विश्वदृश्वा पुत्र होगा । यहाँ 'विश्वदृश्वा' कर्ता रखकर 'जनिता' क्रियाका प्रयोग किया गया है, इसलिए यह काल-व्यभिचार है । अथवा, 'भाविकृत्यमासीत्' = होनेवाला कार्य हो गया । यहाँ होने-वाले कार्य को हो गया बतलाया गया है, इसलिए यह काल-व्यभिचार है । उपग्रह-व्यभिचार यथा - 'संतिष्ठते, प्रतिष्ठते, विरमति, उपरमति ।' यहाँ 'सम्' और 'प्र' उपसर्ग के कारण 'स्था' धातु का आत्मनेपद प्रयोग तथा 'वि' और 'उप' उपसर्ग के कारण 'रम्' धातु का परस्मैपद में प्रयोग किया गया है, इसलिए यह उपग्रह-व्यभिचार है । यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्द-नय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अन्य अर्थ का अन्य अर्थके साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता । शंका – इससे लोकसमय का (व्याकरण शास्त्रका) विरोध होता है । समाधान – यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं, क्योंकि यहाँ तत्त्व की मीमांसा की जा रही है । दवाई कुछ पीडित पुरुष की इच्छा का अनुकरण करनेवाली नहीं होती । नाना अर्थों का समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ़ नय कहलाता है । चूँकि जो नाना अर्थों को 'सम्' अर्थात् छोड़कर प्रधानता से एक अर्थ में रूढ़ होता है वह समभिरूढ़ नय है । उदाहरणार्थ - 'गो' इस शब्द के वचन आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं तो भी वह 'पशु' इस अर्थ में रूढ़ है । अथवा अर्थ का ज्ञान कराने के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है । ऐसी हालत में एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है, इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है । यदि शब्दों में भेद है तो अर्थ-भेद अवश्य होना चाहिए । इस प्रकार नाना अर्थों का समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ़ नय कहलाता है । जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीन शब्द होनेसे इनके अर्थ भी तीन हैं । इन्द्रका अर्थ आज्ञा ऐश्वर्यवान् है शक्र का अर्थ समर्थ है और पुरन्दर का अर्थ नगर का दारण करनेवाला है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । अथवा जो जहाँ अभिरूढ़ है वह वहाँ 'सम्' अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखतासे रूढ़ होने के कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है । यथा - आप कहाँ रहते हैं ? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती । यदि अन्य की अन्य में वृत्ति होती है ऐसा माना जाय तो ज्ञानादिक की ओर रूपादिक की आकाश में वृत्ति होने लगे । जो वस्तु जिस पर्यायको प्राप्त हुई है उसीरूप निश्चय करानेवाले नयको एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्दका जो वाच्य है उसरूप क्रियाके परिणमनके समय ही उस शब्दका प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयमें नहीं। जभी आज्ञा ऐश्वर्यवाला हो तभी इन्द्र है, अभिषेक करनेवाला नहीं और न पूजा करनेवाला ही । जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी हुई नहीं और न सोती हुई ही । अथवा जिसरूपसे अर्थात् जिस ज्ञानसे आत्मा परिणत हो उसी रूपसे उसका निश्चय करनेवाला नय एवंभूत नय है । यथा - इन्द्ररूप ज्ञानसे परिणत आत्मा इन्द्र है और अग्निरूप ज्ञानसे परिणत आत्मा अग्नि है । ये नैगमादिक नय कहे । उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयवाले होने के कारण इनका यह क्रम कहा है । पूर्व-पूर्व नय आगे-आगे के नय का हेतु है, इसलिए भी यह क्रम कहा है । इस प्रकार ये नय पूर्व-पूर्व विरुद्ध महाविषयवाले और उत्तरोत्तर अनुकूल अल्प विषयवाले हैं । द्रव्य की अनन्त शक्ति है, इसलिए प्रत्येक शक्ति की अपेक्षा भेद को प्राप्त होकर ये अनेक विकल्प-वाले हो जाते हैं । ये सब नय गौण-मुख्य रूप से एक दूसरे की अपेक्षा करके ही सम्यग्दर्शन के हेतु हैं । जिस प्रकार पुरुष की अर्थ-क्रिया और साधनों की सामर्थ्य-वश यथा-योग्य निवेशित किये गये तन्तु आदिक पट आदिक संज्ञा को प्राप्त होते हैं और स्वतन्त्र रहने पर कार्यकारी नहीं होते उसी प्रकार ये नय समझने चाहिए । शंका – प्रकृत में 'तन्त्वादय इव' विषम दृष्टान्त है; क्योंकि तन्तु आदिक निरपेक्ष रहकर भी किसी न किसी कार्यको जन्म देते ही हैं। देखते हैं कि कोई एक तन्तु त्वचाकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं और एक वल्कल किसी वस्तुको बाँधनेमें समर्थ है। किन्तु ये नय निरपेक्ष रहते हुए थोड़ा भी सम्यग्दर्शनरूप कार्यको नहीं पैदा कर सकते हैं ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो कुछ कहा गया है उसे समझे नहीं। कहे गये अर्थको समझे बिना दूसरेने यह उपालम्भ दिया है । हमने यह कहा है कि निरपेक्ष तन्तु आदिमें पटादि कार्य नहीं पाया जाता। किन्तु शंकाकारने जिसका निर्देश किया है वह पटादिका कार्य नहीं है । शंका – तो वह क्या है ? समाधान – केवल तन्तु आदि का कार्य है। तन्तु आदि का कार्य भी सर्वथा निरपेक्ष तन्तु आदिके अवयवोंमें नहीं पाया जाता, इसलिए इससे हमारे पक्षका ही समर्थन होता है। यदि यह कहा जाय कि तन्तु आदिमें पटादि कार्य शक्तिकी अपेक्षा है ही तो यह बात बुद्धि और अभिधान - शब्दरूप निरपेक्ष नयोंके विषयमें भी जानना चाहिए । उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शनके हेतुरूपसे परिणमन करनेमें समर्थ हैं, इसलिए दृष्टान्त का दार्ष्टान्तसे साम्य ही है । इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामावली तत्त्वार्थवृत्ति में प्रथम अध्याय समाप्त हुआ । |
राजवार्तिक :
शब्द की अपेक्षा नयों के एक से लेकर अंख्यात विकल्प होते हैं। यहाँ मध्यमरुचि शिष्यों की अपेक्षा सात भेद बताए हैं। 1. प्रमाण के द्वारा प्रकाशित अनेकधर्मात्मक पदार्थ के धर्मविशेष को ग्रहण करनेवाला ज्ञान नय है । नय के मूल दो भेद हैं - एक द्रव्यास्तिक और दूसरा पर्यायास्तिक । द्रव्यमात्र के अस्तित्व को ग्रहण करनेवाला द्रव्यास्तिक और पर्यायमात्र के अस्तित्व को ग्रहण करनेवाला पर्यायास्तिक है । अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ है-गुण और कर्म आदि द्रव्यरूप ही हैं वह द्रव्यार्थिक और पर्याय ही जिसका अर्थ है वह पर्यायाथिक । पर्यायार्थिक का विचार है कि अतीत और अनागत चूंकि विनष्ट और अनुत्पन्न हैं अतः उनसे कोई व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकता अतः वर्तमान-मात्र पर्याय ही सत् है । द्रव्यार्थिक का विचार है कि अन्वयविज्ञान अनुगताकार वचन और अनुगत धर्मों का लोप नहीं किया जा सकता, अतः द्रव्य ही अर्थ है। 2-3. अर्थ के संकल्पमात्र को ग्रहण करनेवाला नैगमनय है। जैसे प्रस्थ बनाने के निमित्त जंगल से लकड़ी लेने के लिए जानेवाले फरसाधारी किसी पुरुष से पूछा कि 'आप कहाँ जा रहे हैं ?' तो वह उत्तर देता है कि 'प्रस्थ के लिए'। अथवा, 'यहां कौन जा रहा है ?' इस प्रश्न के उत्तर में 'बैठा हुआ' कोई व्यक्ति कहे कि 'मैं जा रहा हूँ'। इन दोनों दृष्टान्तों में प्रस्थ और गमन के संकल्प मात्र में वे व्यवहार किये गये हैं। इसी तरह के सभी व्यवहार नैगमनय के विषय हैं। यह नैगमनय केवल भाविसंज्ञा व्यवहार ही नहीं है, क्योंकि वस्तुभूत राजकुमार या चावलों में योग्यता के आधार से राजा या भात संज्ञा भाविसंज्ञा कहलाती है पर नगमनय में कोई वस्तुभूत पदार्थ सामने नहीं है यहाँ तो तदर्थ किए जानेवाले संकल्पमात्र में ही वह व्यवहार किया जा रहा है । 4. प्रश्न – भाविसंज्ञा में तो यह आशा है कि आगे उपकार आदि हो सकते हैं, पर नैगमनय में तो केवल कल्पना ही कल्पना है, अतः यह संव्यवहार के अनुपयुक्त है ? उत्तर – नयों के विषय के प्रकरण में यह आवश्यक नहीं है कि उपकार या उपयोगिता का विचार किया जाय । यहाँ तो केवल उनका विषय बताना है। फिर संकल्प के अनुसार निष्पन्न वस्तु से आगे उपकारादि की भी संभावना भी है ही। 5. अनुगताकार बुद्धि और अनुगत शब्द प्रयोग का विषयभूत सादृश्य या स्वरूप जाति है। चेतन की जाति चेतनत्व और अचेतन की जाति अचेतनत्व है। अतः अपने अविरोधी सामान्य के द्वारा उन-उन पदार्थों का संग्रह करनेवाला संग्रहनय है। जैसे 'सत' कहने से सत्ता सम्बन्ध के योग्य द्रव्यगुण कर्म आदि सभी सद्व्यक्तियों का ग्रहण हो जाता है अथवा द्रव्य कहने से द्रव्य व्यक्तियों का। इस तरह यह संग्रह पर और अपर के भेद से अनेक प्रकार का होता है। सत्ता नामक भिन्न पदार्थ के सम्बन्ध से 'सत्' यह प्रत्यय मानना उचित नहीं है। क्योंकि यदि सत्ता सम्बन्ध के पहिले द्रव्यादि में 'सत्' प्रत्यय होता था, तो फिर अन्य सत्ता का सम्बन्ध मानना ही निरर्थक है जैसे कि प्रकाशित का प्रकाशन करना । इस तरह दो सत्ताएं एक पदार्थ में माननी होंगी - एक भीतरी और दूसरी बाहिरी । ऐसी दशा में 'सत् सत् प्रत्यय सर्वत्र समान होने से तथा विशेष लिङ्ग न होने से एक ही सामान्य पदार्थ होता है' इस सिद्धान्त का विरोध हो जायगा । यदि सत्ता सम्बन्ध से पहिले द्रव्यादि 'असत्' हैं; तो उनमें खरविषाण की तरह सत्ता सम्बन्ध नहीं हो सकेगा। समवाय भी सत्ता का नियामक स्वतः नहीं हो सकता। किंच, स्वयं सत्ता में 'सत्' इस ज्ञान को यदि अन्य सत्तामूलक मानते हैं तो अनवस्था दूषण आता है। तथा 'द्रव्य गुण कर्म में ही सत्ता रहती है' इस सिद्धान्त का विरोध भी होता है। यदि पदार्थ की शक्तिविचित्रता से द्रव्यादि में होनेवाले 'सत्' प्रत्यय को अन्य सामान्यहेतुक और सत्ता में स्वतः ही सत् प्रत्यय माना जाता है, तो यह व्यवस्था स्वेच्छाकृत होगी प्रमाणसिद्ध नहीं, और इस तरह संसर्ग से प्रत्यय मानने के सिद्धान्त का भी परित्याग हो जाता है। किंच, द्रव्यादिक में सत्ता की वृत्ति यदि 'यह उसकी है' इस रूप से मानी जाती है तो मतुप् प्रत्यय होकर 'सत्तावान् द्रव्य' ऐसा प्रयोग होगा जैसे गोमान् यवमान् आदि । अतः 'सद्व्यम्' इस प्रयोग में भावार्थक और मत्वर्थक दोनों प्रत्ययों की निवृत्ति करनी पड़ेगी । यदि 'यह वही है' इस प्रकार अभेदवृत्ति मानी जाती है तो 'यष्टिः पुरुषः' की तरह 'सत्ता द्रव्यम्' यह प्रयोग होगा न कि 'सद्द्रव्यम्' यह । इस पक्ष में भावार्थक तल् प्रत्यय की निवृत्ति माननी पड़ेगी। संसार में कोई भी एक पदार्थ अनेक में सम्बन्ध से रहनेवाला प्रसिद्ध भी नहीं जिसे दृष्टान्त बनाकर सत्ता को एक होकर अनेक सम्बधिनी बनाया जाय । नीली आदि द्रव्य तो उन-उन कपड़ों में जुदे-जुदे हैं। 6. संग्रह नय के द्वारा संगृहीत पदार्थों में विधिपूर्वक विभाजन करना व्यवहारनय है। जैसे सर्वसंग्रहनय ने 'सत्' ऐसा सामान्य ग्रहण किया था पर इससे तो व्यवहार चल नहीं सकता था अतः भेद किया जाता है कि - जो सत् है वह द्रव्य है या गुण ? द्रव्य भी जीव है या अजीव ? जीव और अजीव सामान्य से भी व्यवहार नहीं चलता था, अतः उसके भी देव, नारक आदि और घट, पट आदि भेद लोक-व्यवहार के लिए किए जाते हैं। कषायरस को किसी वैद्य ने दवारूप में बताया तो जब तक किसी खास 'आंवला' आदि का निर्देश न किया जाय तबतक समस्त संसार का कषाय रस तो सम्राट भी इकट्ठा नहीं कर सकता । यह व्यवहार नय वहाँ तक भेद करता जायगा जिससे आगे कोई भेद नहीं हो सकता होगा। 7. जिस प्रकार सरल सूत डाला जाता है उसी तरह ऋजुसूत्र नय एक समयवर्ती वर्तमान पर्याय को विषय करता है । अतीत और अनागत चूंकि विनष्ट और अनुत्पन्न हैं अतः उनसे व्यवहार नहीं हो सकता । इसका विषय एक क्षणवर्ती वर्तमान पर्याय है । 'कषायो भैषज्यम्' में वर्तमानकालीन वह कषाय भैषज हो सकती है जिसमें रस का परिपाक हुआ है न कि प्राथमिक अल्परसवाला कच्चा कषाय । पच्यमान इस नय का विषय है। पच्यमान में भी कुछ अंश तो वर्तमान में पकता है तथा कुछ अंश पक चुकते हैं । अतः पच्यमान भात को अंशतः पक्व कहने में भी कोई विरोध नहीं है; क्योंकि पाक के प्रथम समय में कुछ अंश यदि पक जाता है तो मान लेना चाहिए कि पच्यमान पदार्थ अंशतः पक्व हो चुका है । यदि नहीं पकता; तो द्वितीयादि क्षणों में भी पकने की गुञ्जाइश नहीं हो सकती । अतः पाक का ही अभाव हो जायगा । उस दशा में स्यात् पच्यमान ही कह सकते हैं ; क्योंकि जितने विशद रंधे हुए भात में 'पक्व' का अभिप्राय है उतना पाक अभी नहीं हुआ है । स्यात् पक्व भी कह सकते हैं; क्योंकि किसी भोजनार्थी को उतना ही पाक इष्ट हो सकता है। इसी तरह क्रियमाण में भी अंशतः कृत व्यवहार, भुज्यमान में भी अंशतः भुक्त व्यवहार, बध्यमान में भी अंशतः बद्ध व्यवहार आदि कर लेना चाहिए। जिस समय प्रस्थ से धान्य आदि मापा जाता हो उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं। वर्तमान में अतीत और अनागत से धान्य का माप तो होता ही नहीं है। इस नय की दृष्टि से कुम्भकार व्यवहार नहीं हो सकता; क्योंकि शिविक आदि पर्यायों के बनाने तक तो उसे कुम्भकार कह ही नहीं सकते और घट पर्याय के समय अपने अवयवों से स्वयं ही घड़ा बन रहा है। जिस समय जो बैठा है वह उस समय यह नहीं कह सकता कि 'अभी ही आ रहा हूँ'; क्योंकि उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है। जितने आकाश प्रदेशों में वह ठहरा है उतने ही प्रदेशों में उसका निवास है अथवा स्वात्मा में; अतः ग्रामनिवास गृहनिवास आदि व्यवहार नहीं हो सकते । इस नय की दृष्टि में 'कौआ काला' नहीं है क्योंकि काला रंग काला है और कौआ कौआ है। यदि काला रंग कौआ रूप हो जाय तो संसार के भौंरा आदि सभी काले पदार्थ कौआ बन जायंगे। इसी तरह यदि कौआ काले रंग स्वरूप हो जाय तो शुक्ल काक का अभाव ही हो जायगा। फिर कौआ का रक्त मांस पित्त हड्डी चमड़ा आदि मिलकर पंचरंगी वस्तु होती है, अतः उसे केवल काला ही कैसे कह सकते हैं ? कृष्ण और काक में सामानाधिकरण्य भी नहीं बन सकता; क्योंकि विभिन्न शक्तिवाली पर्याएं ही अपना अस्तित्व रखती हैं द्रव्य नहीं। यदि कृष्णगुण की प्रधानता से काक को काला कहा जाता है तो कम्बल आदि में अतिप्रसंग हो जायगा क्योंकि उनमें भी काला रंग विशेष है, अतः उन्हें भी काक कहना चाहिए । अधिक कसैले और स्वल्प मधुर मधु को फिर मधु नहीं कहना चाहिए । परोक्ष में कहने पर संशय भी हो सकता है कि क्या कृष्णगुण की प्रधानता से काक की कृष्णता का वर्णन 'कृष्णः' शब्द से हो रहा है या कृष्णपरिणमन वाले द्रव्य का ही ? इस नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता ; क्योंकि अग्नि सुलगाना, धौंकना और जलाना आदि असंख्य समय की क्रियाएँ वर्तमान क्षण में नहीं हो सकती। जिस समय दाह है उस समय पलाल नहीं और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं, तब पलालदाह कैसा ? 'जो पलाल है वह जलता है' यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि बहुत पलाल बिना जला भी बाकी है। यह समाधान भी उचित नहीं है कि - 'समुदायवाची शब्दों की अवयव में भी प्रवृत्ति देखी जाती है अतः अंशदाह से सर्वदाह ले लेंगे' क्योंकि कुछ पलाल तो बिना जला शेष है ही। यदि संपूर्णदाह नहीं हो सकता; तो 'पलालदाह' यह प्रयोग ही नहीं करना चाहिए। यदि संपूर्णदाह नहीं हो सकता अतः एकदेशदाह से पलाल का दाह माना जायगा उसमें, 'अदाह' नहीं होगा तो आपके वचन भी संपूर्ण रूप से परपक्ष के दूषक नहीं हो सकते, अतः एकदेश के दूषक होने से उन्हें सर्वथा दूषक ही माना जायगा किसी भी तरह 'अदूषक' नहीं होंगे और इस तरह उनमें स्वपक्ष-अदूषकत्व अर्थात् साधकत्व भी नहीं होगा। यदि अनेक अवयव होने से कुछ अवयवों में दाह होने से सर्वत्र दाह माना जाता है तो कुछ अवयवों में अदाह होने से सर्वत्र अदाह क्यों नहीं माना जायगा ? यदि सर्वत्र दाह है तो अदाह सर्वत्र क्यों नहीं? इसी तरह इस नय की दृष्टि से पान-भोजन आदि कोई व्यवहार नहीं बन सकते । इस नय की दृष्टि से सफेद चीज काली नहीं बन सकती; क्योंकि दोनों का समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमान के साथ अतीत का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह नय व्यवहारलोप की कोई चिंता नहीं करता। यहाँ तो उसका विषय बताया गया है। व्यवहार तो पूर्वोक्त व्यवहार आदि नयों से ही सध जाता है। 8-9. जिस व्यक्ति ने संकेतग्रहण किया है उसे अर्थबोध करानेवाला शब्द होता है । शब्दनय लिंग, संख्या, साधनादि सम्बन्धी व्यभिचार की निवृत्ति करता है अर्थात् उसकी दृष्टि से ये व्यभिचार हो ही नहीं सकते क्योंकि अन्य अर्थ का अन्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । वह व्याकरण-शास्त्र के इन व्यभिचारों को न्याय्य नहीं मानता।
10. अनेक अर्थों को छोड़कर किसी एक अर्थ में मुख्यता से रूढ होने को समभिरूढ नय कहते हैं। जैसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान अर्थ व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति न होने से मात्र एक सूक्ष्म काययोग में परिनिष्ठित हो जाता है उसी तरह 'गौ' आदि शब्द वाणी, पृथ्वी आदि ग्यारह अर्थों में प्रयुक्त होने पर भी सब को छोड़कर मात्र एक सास्नादिवाली 'गाय' में रूढ़ हो जाता है । अथवा, शब्द का प्रयोग अर्थज्ञान के लिए किया जाता है । जब एक शब्द से अर्थबोध हो जाता है तब उसी में अन्य पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग निरर्थक है। शब्दभेद से अर्थभेद होना ही चाहिए, जैसे इन्दन क्रिया से इन्द्र, शासन या शक्ति के कारण शक और पूरण से पुरन्दर । अथवा जो जहां अधिरूढ है वहीं उसका मुख्य रूप से प्रयोग करना समभिरूढ है। जैसे किसी ने पूछा कि - आप कहां हैं ? तो समभिरूढ नय उत्तर देगा - 'अपने स्वरूपमें' क्योंकि अन्य पदार्थ की अन्यत्र वत्ति नहीं हो सकती अन्यथा ज्ञानादि और रूपादि की भी आकाश में वृत्ति होनी चाहिए। 11-12. जिस समय जो पर्याय या क्रिया हो उस समय तद्वाची शब्द के प्रयोग को ही एवंभूत नय स्वीकार करता है । जिस समय इन्दन अर्थात् परमैश्वर्य का अनुभव करे उसी समय इन्द्र कहा जाना चाहिए, नाम स्थापना द्रव्यनिक्षेप की दशा में नहीं। इसी तरह प्रत्येक शब्द का प्रयोग उस क्रिया में परिणत अवस्था में ही उचित है। अथवा, यह नय जिस पर्याय में है उसी रूप से निश्चय करता है। गौ जिस समय चलती है उसी समय गौ है न तो बैठने की अवस्था में और न सोने की अवस्था में । पूर्व और उत्तर अवस्थाओं में वह पर्याय नहीं रहती अतः उस शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है। अथवा, इन्द्र या अग्नि ज्ञान से परिणत आत्मा ही इन्द्र या अग्नि है ऐसा निश्चय एवम्भूत नय करता है। ज्ञान या आत्मा में अग्निव्यपदेश करने के कारण दाहकत्व आदि का अतिप्रसङ्ग आत्मा में नहीं देना चाहिए; क्योंकि नाम स्थापना आदि में पदार्थ के जो-जो धर्म वाच्य होते हैं वे ही उनमें रहेंगे, नोआगमभाव अग्नि में ही दाहकत्व आदि धर्म होते हैं उनका प्रसङ्ग आगमभाव अग्नि में देना उचित नहीं है। ये नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयक तथा पूर्व-पूर्व हेतुक हैं अतः इनका निर्दिष्ट क्रम के अनुसार निर्देश किया है । ये नय पूर्व-पूर्व में विरुद्ध और महा विषयवाले हैं और उत्तरोत्तर अनुकूल और अल्प विषयवाले हैं। अनन्तशक्तिक द्रव्य की हर एक शक्ति की अपेक्षा इनके बहुत भेद होते हैं। गौण-मुख्य विवक्षा से परस्पर सापेक्ष होकर ये नय सम्यग्दर्शन के कारण होते हैं और पुरुषार्थ क्रिया में समर्थ होते हैं। जैसे तन्तु परस्पर सापेक्ष होकर पट अवस्था को प्राप्त करके ही शीत निवारण कर सकते हैं और स्वतन्त्र दशा में न तो पट ही कहे जाते हैं और न शीत से रक्षा ही कर सकते हैं। जिस प्रकार अकेला तन्तु पट के द्वारा होनेवाली अर्थक्रिया नहीं कर सकता वैसे ही निरपेक्ष नय सम्यग्ज्ञानोत्पत्ति नहीं कर सकते। तन्तु तन्तुसाध्य अर्थक्रिया भी अपने अंशुओं की अपेक्षा रखकर ही कर सकता है। यदि तन्तुओं में शक्ति की अपेक्षा पट कार्य की संभावना है तो निरपेक्ष नयों में भी शक्तयपेक्षया सम्यग्ज्ञानोत्पत्ति की संभावना है ही। इस अध्याय में ज्ञान दर्शन तत्त्व नयों के लक्षण और ज्ञान की प्रमाणता आदि का निरूपण किया गया है। प्रथम अध्याय समाप्त
लघुहव्व नृपति के वर अर्थात् ज्येष्ठ या श्रेष्ठ पुत्र, निखिल विद्वज्जनों के द्वारा जिनकी विद्या का लोहा माना जाता है, जो सज्जन पुरुषों के हृदयों को आह्लादित करनेवाले हैं वे अकलङ्क ब्रह्मा जयशील हैं।
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