सर्वार्थसिद्धि :
जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव अन्य द्रव्यों में नहीं होते इसलिए ये आत्मा के जानने चाहिए । शंका – ये पारिणामिक क्यों हैं ? समाधान – ये तीनों भाव कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होते हैं, इसलिए पारिणामिक हैं । जीवत्व का अर्थ चैतन्य है । जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है । वह भव्य कहलाता है । अभव्य इसका उलटा है । ये तीनों जीव के पारिणामिक भाव हैं । शंका – अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशवत्त्व आदिक भी भाव हैं उनका इस सूत्र में ग्रहण करना चाहिए ? समाधान – अलग से उनके ग्रहण करने का कोई काम नहीं; क्योंकि उनका ग्रहण किया ही है । शंका – कैसे ? समाधान – क्योंकि सूत्र में आये हुए 'च' शब्द से उनका समुच्चय हो जाता है । शंका – यदि ऐसा है तो 'तीन' संख्या विरोध को प्राप्त होती है, क्योंकि इस प्रकार तीन से अधिक पारिणामिक भाव हो जाते हैं ? समाधान – तब भी 'तीन' यह संख्या विरोध को नहीं प्राप्त होती, क्योंकि जीव के असाधारण पारिणामिक भाव तीन ही हैं । अस्तित्वादिक तो जीव और अजीव दोनों के साधारण हैं इसलिए उनका 'च' शब्दके द्वारा अलगसे ग्रहण किया है । शंका – औपशमिक आदि भाव नहीं बन सकते; क्योंकि आत्मा अमूर्त है । ये औपशमिक आदि भाव कर्मबन्ध की अपेक्षा होते हैं परन्तु अमूर्त आत्मा के कर्मों का बन्ध नहीं बनता है ? समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकान्त है । यह कोई एकान्त नहीं कि आत्मा अमूर्त ही है । कर्म-बन्ध-रूप पर्याय की अपेक्षा उसका आवेश होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है। शंका – यदि ऐसा है तो कर्म-बन्ध के आवेश से आत्मा का ऐक्य हो जाने पर आत्मा का उससे भेद नहीं रहता ? समाधान – यह कोई दोष नहीं, क्योंकि यद्यपि बन्ध की अपेक्षा अभेद है तो भी लक्षण के भेद से कर्म से आत्मा का भेद जाना जाता है । कहा भी है - 'आत्मा बन्ध की अपेक्षा एक है तो भी लक्षण की अपेक्षा वह भिन्न है । इसलिए जीव का अमूर्तिक-भाव अनेकान्त-रूप है । वह एक अपेक्षा से है और एक अपेक्षा से नहीं है।' यदि ऐसा है तो वही लक्षण कहिए जिससे कर्म से आत्मा का भेद जाना जाता है, इसी बात को ध्यान में रखकर आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1-2. कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा न रखनेवाले मात्र द्रव्य की स्वभावभूत अनादि पारिणामिकी शक्ति से ही आविर्भूत ये भाव पारिणामिक हैं। 3-6. यदि आयु नामक कर्म पुद्गल के सम्बन्ध से जीवत्व माना जाय तो उस कर्म-पुद्गल का सम्बन्ध तो धर्म-अधर्म आदि द्रव्यों से भी है अतः उनमें भी जीवत्व होना चाहिए और सिद्धों में कर्म-सम्बन्ध न होने से जीवत्व का अभाव हो जाना चाहिए, अतः अनादि पारिणामिक जीवद्रव्य का निज परिणाम ही जीवत्व है । 'जीवति अजीवीत् जीविष्यति' यह प्राणधारण की अपेक्षा जो व्युत्पत्ति है वह केवल व्युत्पत्ति है उससे कोई सिद्धान्त फलित नहीं होता जैसे कि 'गच्छतीति गौः' से मात्र गोशब्द की व्युत्पत्ति ही होती है न कि गौ का लक्षण आदि। जीव का वास्तविक अर्थ तो चैतन्य ही है और वह अनादि पारिणामिक द्रव्य निमित्तक है। 7-9. सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र पर्याय जिसकी प्रकट होगी वह भव्य है और जिसके प्रकट न होगी वह अभव्य । द्रव्य की शक्ति से ही यह भेद है । उस भव्य को जो अनन्तकाल में भी सिद्ध नहीं होगा, अभव्य नहीं कह सकते, क्योंकि उसमें भव्यत्वशक्ति है। जैसे कि उस कनक-पाषाण को जो कभी भी सोना नहीं बनेगा अन्धपाषाण नहीं कह सकते अथवा उस आगामी-काल को जो अनन्तकाल में भी नहीं आयगा अनागामी नहीं कह सकते उसी तरह सिद्धि न होने पर भी भव्यत्वशक्ति होने के कारण उसे अभव्य नहीं कह सकते । वह भव्यराशि में ही शामिल है। 10. प्रश्न – द्वन्द्व-समास के बाद भावार्थक 'त्व' प्रत्यय करने पर चूंकि भाव एक है अतः एकवचन प्रयोग होना चाहिए ? उत्तर – द्रव्य भेद से भाव भी भिन्न हो जाता है अतः भेद विवक्षा में बहुवचन किया गया है। 'स्व' का प्रत्येक से सम्बन्ध कर लेना चाहिए -- जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व। 11. आगम में सासादन गुणस्थान में दर्शन-मोह के उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशम की अपेक्षा न रखने के कारण जो पारिणामिक भाव बताया है वह सापेक्ष है। वस्तुतः वहां अनन्तानुबन्धि का उदय होने से औदयिक भाव ही है । अतः उसका यहां ग्रहण नहीं किया है। 12-13. अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायवत्त्व, असर्वगतत्व, अनादिसन्ततिबन्धनबद्धत्व, प्रदेशवत्त्व, अरूपत्व, नित्यत्व आदि के समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया है। चूंकि ये भाव अन्य द्रव्यों में भी पाए जाते है अतः असाधारण पारिणामिक जीवभावों के निर्देशक इस सूत्र में इनका ग्रहण नहीं किया है, यद्यपि ये सभी भाव, कर्म के उदय उपशम, क्षय, क्षयोपशम की अपेक्षा न रखने के कारण पारिणामिक हैं।
14-18. प्रश्न – गति आदि औदयिक भावों के संग्रह के लिए 'च' शब्द मानना चाहिये। उत्तर – गति आदि पारिणामिक नहीं हैं किन्तु कर्मोदय-निमित्तक हैं अतः सूत्र में पारिणामिक-भाव तीन ही बताए हैं। क्षयोपशम-भाव की तरह गति आदि को औदयिक और पारिणामिक रूप से उभयरूप नहीं कह सकते; गति आदि भाव केवल औदयिक हैं पारिणामिक नहीं । यदि ये पारिणामिक होते तो जीवत्व की तरह सिद्धों में भी पाए जाते। आगम में जिस प्रकार क्षय और उपशम का 'मिश्र' क्षायोपशमिक बताया है उस तरह औदयिक और पारिणामिक को मिलाकर एक अन्य मिश्र' नहीं बताया है । अतः अस्तित्व आदि के समुच्चय के ही लिए 'च' शब्द दिया गया है। 19-20. प्रश्न – अस्तित्व आदि के समुच्चय के लिए सूत्र में 'आदि' शब्द देना चाहिये? उत्तर – आदि शब्द देने से पारिणामिक भाव 'तीन' ही नहीं रहेंगे। च शब्द से गौणरूप से द्योतित होनेवाले अस्तित्व आदि भावों की संख्या से पारिणामिक भावों की मुख्य तीन संख्या का व्याघात नहीं होता; क्योंकि प्रधान और असाधारण पारिणामिक तीन ही विवक्षित हैं । और यदि 'आदि' शब्द दिया जाता तो आदि शब्द से सूचित होनेवाले अस्तित्व आदि का ही प्राधान्य हो जाता; जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व तो उपलक्षक हो जाने से गौण ही हो जाते। यदि तद्गुणसंविज्ञान पक्ष भी लिया जाय तो भी दोनों की ही समानरूप से प्रधानता हो जायगी। 21-22. सान्निपातिक नाम का कोई छठवां भाव नहीं है। यदि है भी तो वह 'मिश्र' शब्द से गृहीत हो जाता है। 'मिश्र' शब्द केवल क्षयोपशम के लिए ही नहीं है किन्तु उसके पास ग्रहण किया गया 'च' शब्द सूचित करता है कि मिश्र शब्द से क्षायोपशमिक और सन्निपातिक दोनों का ग्रहण करना चाहिए । सान्निपातिक नाम का एक स्वतन्त्र भाव नहीं है । संयोग भंग की अपेक्षा आगम में उसका निरूपण किया गया है। सान्निपातिक भाव 26, 36 और 41 आदि प्रकार के बताए हैं। द्विसंयोगी 10, त्रिसंयोगी 10, चतुःसंयोगी 5 और पंचसंयोगी 1 इस तरह 26 भाव होते हैं।
36 प्रकार - दो औदयिक भाव और औदयिक का औपशमिक आदि से संयोग करने पर 5 भंग होते हैं -
दो औपशमिक और औपशमिक का शेष चार के साथ संयोग करने पर पांच भंग होते हैं -
दो क्षायिक और क्षायिक का औपशमिक आदि से मेल करने पर पांच भंग होते हैं
दो क्षायोपशमिक और क्षायोपशमिक का शेष के साथ मेल करने पर पांच भंग होते हैं।
दो पारिणामिक और पारिणामिक का शेष के साथ मेल करने पर पांच भंग होते हैं -
23. यद्यपि औपशमिक, क्षायिक, औदयिक आदि भाव पुद्गल कर्मों के उदय, उपशम, निर्जरा आदि की अपेक्षा रखते हैं, फिर भी वे आत्मा के ही परिणाम हैं। आत्मा ही कर्मनिमित्त से उन-उन परिणामों को प्राप्त करता है, और इसीलिए इन परिणामों को आत्मा का असाधारण स्वतत्त्व कहा है। कहा भी है - "जिस समय जो द्रव्य जिस रूप से परिणत होता है उस समय वह तन्मय हो जाता है। इसलिए धर्मपरिणत आत्मा धर्म कहा जाता है।" 24-27. प्रश्न – जूंकि आत्मा अमूर्त है अतः उसका कर्मपुद्गलों से अभिभव नहीं होना चाहिए ? उत्तर – अनादि कर्मबन्धन के कारण उसमें विशेष शक्ति आ जाती है । अनादि पारिणामिक चैतन्यवान् आत्मा की नारकादि मतिज्ञानादि रूप पर्याएं भी चेतन ही हैं। वह अनादि कार्मण शरीर के कारण मूर्तिमान् हो रहा है और इसीलिए उस पर्याय सम्बन्धी शक्ति के कारण मूर्तिक कर्मों को ग्रहण करता है। आत्मा कर्मबद्ध होने से कथञ्चित् मूर्तिक है तथा अपने ज्ञानादि स्वभाव को न छोड़ने के कारण अमूर्तिक है । जिस प्रकार मदिरा को पीकर मनुष्य मूर्च्छित हो जाता है, उसकी स्मरण शक्ति-नष्ट हो जाती है उसी तरह कर्मोदय से आत्मा के स्वाभाविक ज्ञानादि गुण अभिभूत हो जाते हैं । मदिरा के द्वारा इन्द्रियों में विभ्रम या मूर्छा आदि मानना ठीक नहीं है; क्योंकि जब इन्द्रियां अचेतन हैं तो अचेतन में बेहोशी आ नहीं सकती अन्यथा जिस पात्र में मदिरा रखी है उसे ही मूर्च्छित हो जाना चाहिए । यदि इन्द्रियों में चैतन्य है तो यह सिद्ध हो जाता है कि बेहोशी चेतन में होती है न कि अचेतन में। प्रश्न – चार्वाक - जिस प्रकार महुआ गुड़ आदि के सड़ाने पर उनमें मादकता प्रकट हो जाती है उसी तरह पृथिवी जल आदि भूतों का विशेष रासायनिक मिश्रण होने पर सुखदुःखादिरूप चैतन्य प्रकट हो जाता है, कोई स्वतन्त्र अमूर्त चैतन्य नहीं है। उत्तर – जैन - सुखादिक से रूपादिक में विलक्षणता है । रूपरसादि पृथिवी आदि के गुण जब पृथिवी आदि को विभक्त कर देते हैं तब कम हो जाते हैं और जब पृथिवी आदि अविभक्त रहते हैं तब अधिक देखे जाते हैं। ऐसे ही शरीर के अवयवों के विभक्त या अविभक्त कहने पर सुख ज्ञानादि गुणों में न्यूनाधिकता नहीं देखी जाती। यदि सुखादि पृथिवी आदि के गुण हों तो मृत शरीर में वे गुण रूपादि गुणों की तरह अवश्य मिलने चाहिए। यह तर्क तो उचित नहीं है कि - 'मृत शरीर से कुछ सूक्ष्म भूत निकल गए हैं, अतः ज्ञानादि नहीं मिलते' ; क्योंकि बहुत से स्थूल भूत जब मिलते हैं तो ज्ञानादि गुणों का अभाव नहीं होना चाहिए । यदि सूक्ष्म भूतों के निकल जाने से वे गुण मृत शरीर में नहीं रहे तो वे गुण उन सूक्ष्म भूतों के ही माने जाने चाहिए न कि समुदाय प्राप्त सभी भूतों के । ऐसी दशा में मदिरा का दृष्टान्त समुचित नहीं होगा क्योंकि मदिरा में तो कण-कण में मादकता व्याप्त रहती है। फिर उन सूक्ष्म भूतों की सिद्धि कैसे की जायगी ? यदि ज्ञानादि के द्वारा, तो ज्ञानादि से आत्मा की ही सिद्धि मान लेनी चाहिए। जिन इन्द्रियों में शराब के द्वारा बेहोशी मानते हैं वे इन्द्रियां यदि बाह्य करण हैं तो अचेतन होने के कारण उनपर मदिरा का कोई असर नहीं होना चाहिए। यदि अन्तःकरण होकर वे अचेतन हैं तो इनमें भी बेहोशी नहीं आ सकती। यदि चेतन हैं; तो यह मानना होगा कि ज्ञानरूप होने से ही इन पर मदिरा का असर हुआ। ऐसी दशा में 'अमूर्त होने से अभिभव नहीं हो सकता' यह पक्ष स्वतः खंडित हो जाता है। यद्यपि आत्मा अनादि से कर्मबद्ध है फिर भी उसका अपने ज्ञानादि गुणों के कारण स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है। कहा भी है "बन्ध की दृष्टि से आत्मा और कर्म में एकत्व होने पर भी लक्षण की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है । अतः आत्मा में एकान्त से अमूर्तिकपना नहीं है।" |