सर्वार्थसिद्धि :
जो अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के निमित्तों से होता है और चैतन्य का अन्वयी है अर्थात् चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता वह परिणाम उपयोग कहलाता है । यद्यपि आत्मा बन्ध की अपेक्षा एक है तो भी इससे वह स्वतन्त्र जाना जाता है । जिस प्रकार स्वर्ण और चाँदी बन्ध की अपेक्षा एक हैं तो भी वर्णादि के भेद से उनमें पार्थक्य रहता है उसी प्रकार प्रकृत में समझना चाहिए । अब उपयोग के भेद दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1. दो प्रकार के बाह्य तथा दो प्रकार के आभ्यन्तर हेतुओं का यथासंभव सन्निधान होने पर आत्मा के चैतन्यान्वयी परिणमन को उपयोग कहते हैं । बाह्य हेतु आत्मभूत और अनात्मभूत के भेद से दो प्रकार के हैं। आत्मा से सम्बद्ध शरीर में निर्मित चक्षु आदि इन्द्रियां आत्मभूत बाह्य हेतु हैं और प्रदीप आदि अनात्मभूत बाह्य हेतु । मन-वचन-काय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप द्रव्ययोग अन्तःप्रविष्ट होने से आभ्यन्तर अनात्मभूत हेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा आत्मा की विशुद्धि आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है । इन हेतुओं का यथासंभव ही सन्निधान होता है । मनुष्यों को दीपक की आवश्यकता होती है, पर रात्रिचर बिल्ली आदि को नहीं। इन्द्रियां भी एकेन्द्रियादि के यथायोग्य ही रहती हैं । असंज्ञी जीवों के मन नहीं होता है। एकेन्द्रिय, विग्रहगति प्राप्त जीव और समुद्घातगत सयोगकेवली के एक काययोग ही होता है । क्षीणकषाय तक क्षयोपशमानुसार तन्निमित्तक एक ही भावयोग होता है। आगे ज्ञानावरणादि का क्षय होता है। इस तरह विभिन्न जीवों के उपयोग के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं। चैतन्य केवल सुख-दुःख मोह रूप ही नहीं है जिससे ज्ञानदर्शन को चैतन्य कहने से पूर्वापर विरोध हो । चैतन्य आत्मा का सामान्य असाधारण धर्म है । वह सुख दुःखादि रूप भी होता है और ज्ञान दर्शनादि रूप भी। 'समुदायवाची शब्दों का प्रयोग अवयवों में भी हो जाता है' इस न्याय के अनुसार सुखदुःखादि को चैतन्य कह दिया गया है । 2-3. परस्पर सम्मिलित वस्तुओं से जिसके द्वारा किसी वस्तु का पृथक्करण हो वह उसका लक्षण होता है । जैसे सोना और चांदी की मिली हुई डली में पीला रंग और वजन सोने का भेदक होता है उसी तरह शरीर और आत्मा में बंध की दृष्टि से परस्पर एकत्व होने पर भी ज्ञानादि उपयोग उसके भेदक आत्मभूत लक्षण होते हैं । लक्षण आत्मभूत और अनात्मभूत के भेद से दो प्रकार का है। अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और दण्डी पुरुष का भेदक दंड अनात्मभूत है। 4. गुणी आत्मा और ज्ञानादि गुण में सर्वथा भेद मानना उचित नहीं है । क्योंकि यदि आत्मा ज्ञानादि स्वभाव न हो तो उसका निश्चायक कोई स्वभाव न होने से अभाव हो जायगा और इसी तरह ज्ञानादि का भी निराश्रय होने से सद्भाव सिद्ध नहीं हो सकेगा। 5-6. प्रश्न – गुणी लक्ष्य है और गुण लक्षण है । लक्ष्य और लक्षण तो जुदे-जुदे होते हैं। अतः आत्मा और ज्ञान में भेद मानना चाहिए ? उत्तर – यदि लक्ष्य और लक्षण में सर्वथा भेद माना जाय तो अनवस्था हो जायगी क्योंकि लक्षण का परिचायक अन्य लक्षण मानना होगा उसका भी परिचायक अन्य। यदि लक्षण का परिचायक अन्य लक्षण नहीं माना जाता है तो लक्षणशून्य होने से उसका मण्डूक शिखण्ड की तरह अभाव हो जायगा । लक्ष्य और लक्षण में कथञ्चित् भेद मानने से लक्षण के पृथक् लक्षण की आवश्यकता नहीं रहती उसका साधारण लक्षण 'तल्लक्ष्य में रहनेवाला' यह बन जाता है। लक्ष्य और लक्षण पृथक् उपलब्ध न होने से अभिन्न होकर भी संज्ञा, संख्या, गुण-गुणी आदि के भेद से भिन्न भी होते हैं। 7-12. प्रश्न – जैसे दूध का दूध रूप से ही परिणमन नहीं होता किन्तु दही रूप से, उसी तरह ज्ञानात्मक आत्मा का ज्ञानरूप से परिणमन नहीं हो सकेगा। अतः जीव के ज्ञानादि उपयोग नहीं होना चाहिए। यदि आप यह कहें कि आत्मा का ज्ञानरूप से तो उपयोग होगा दूध का दूध रूप से नहीं तो हम भी यह कह सकते हैं कि दूध का दूध रूप से उपयोग हो, पर आत्मा का ज्ञान रूप से न हो। यह पक्ष आपके लिए अनिष्ट है। उत्तर – चूंकि आत्मा और ज्ञान में अभेद है इसीलिए उसका ज्ञानरूप से उपयोग होता है । आकाश का सर्वथा भिन्न रूपादिक रूप से उपयोग नहीं देखा जाता । जिस प्रकार गाय के उदर में दूध बनने के योग्य तृण, जलादि द्रव्यों का दूध रूप से परिणमन होता है । वे तृणादि द्रव्यदृष्टि से दूध पर्याय के सम्मुख होने से दूध कहे जाते हैं और आगे वे ही दूध पर्याय को धारण करते हैं उसी तरह ज्ञानपर्याय के अभिमुख जीव भी ज्ञानव्यपदेश को प्राप्त करके स्वयं घटपटादि-विषयक अवग्रहादि ज्ञान पर्याय को धारण करता है अतः द्रव्यदृष्टि से उसका ही उसी रूप से परिणमन सिद्ध होता है । जो जिस रूप नहीं उसका उस रूप से परिणमन मानने में अतिप्रसङ्ग दोष आता है । देखिए आपके वचन स्वपक्ष-साधन और परपक्ष-दूषणरूप हैं। उनका स्वपक्ष-साधन और परपक्ष-दूषणरूप से ही परिणमन होता है। जैसे आप दूध का दही रूप अन्यथा परिणमन ही मानते हो दूध रूप नहीं उसी तरह अपने वचनों का भी स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषणरूप से परिणमन नहीं होकर अन्यथा ही परिणमन मानना होगा। आप स्वयं रूपाद्यात्मक पृथिवी आदि महाभूतों का रूपादिक रूप से ही परिणमन मानते ही हैं। यदि अन्यथा परिणमन मानोगे तो स्वसिद्धान्त विरोध होगा। जिसके मत में सदा आत्मा ज्ञानात्मक ही रहता है उसके मत में आत्मा का ज्ञानरूप से परिणमन तो कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस रूप से वह स्वयं परिणत है ही। जैन मत में आत्मा कभी ज्ञानरूप से, कभी दर्शनरूप से और कभी सुखादिरूप से परिणमन करता रहता है। अतः कभी ज्ञानात्मक का ज्ञानात्मक भी परिणमन होता है तथा कभी दर्शनात्मक आदि रूप भी । यदि सर्वथा किसी एक रूप से आत्मा का परिणमन माना जाय तो फिर उस पर्याय का कभी विराम नहीं हो सकेगा। यदि हुआ तो आत्मा का ही अभाव हो जायगा । तदात्मक का ही तद्रूप परिणमन देखा जाता है । देखो, गाय के स्तनों से निकला हुआ दूध गरम ठंडा मीठा गाढा आदि अनेक पर्यायों को धारण करके भी दूध तो रहता ही है। इन अवस्थाओं में दूध का दूध रूप से ही परिणमन होता है । इसी तरह आत्मा का भी उपयोग रूप से ही परिणमन होता रहता है । यदि तत् का तदात्मक परिणमन न माना जाय तो वस्तु परिणामशून्य ही हो जायगी; क्योंकि अन्यथा परिणमन मानने पर सर्व-पदार्थसांकर्य दूषण होता है, जो कि अनिष्ट है । अतः परिणामशून्यता और अन्यथापरिणमन के दूषणों से बचने के लिए वस्तु में तत् का तदात्मक ही परिणमन स्वीकार करना होगा। 13-15. प्रश्न – चूंकि आत्मा के कोई उत्पादक कारण आदि नहीं हैं अतः मण्डूक शिखण्ड की तरह उसका अभाव ही है । अतः लक्ष्यभूत आत्मा के अभाव में उपयोग आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता । आत्मा का सद्भाव सिद्ध हो भी तो भी उपयोग चूंकि अस्थिर है अतः वह आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता। अस्थिर पदार्थ को लक्षण बनाने पर वही दशा होगी जैसे किसी ने देवदत्त के घर की पहिचान बताई कि 'जिस पर कौआ बैठा है वह देवदत्त का घर है' सो जब कौआ उड़ जाता है तो देवदत्त के घर की पहिचान समाप्त हो जाती है और लक्षणके अभाव में लक्ष्य के अवधारण का कोई उपाय ही नहीं बच पाता । 16-18. उत्तर – 'अकारणत्वात्' हेतु से आत्मा का लोप करना उचित नहीं है; क्योंकि आत्मा नर नारकादि पर्यायों से पृथक् तो मिलता नहीं है और ये पर्यायें मिथ्यादर्शन आदि कारणों से होती है अतः अकारणत्व हेतु असिद्ध है। पर्यायों को छोड़कर पृथक् आत्मद्रव्य की सत्ता न होने से आश्रयासिद्ध भी है । जितने घटादि सत् हैं वे स्वभाव से ही सत् हैं न कि किसी कारणविशेष से । जो सत् है वह तो अकारण ही होता है । मण्डूकशिखण्ड भी 'नास्ति' इस प्रत्यय का होने से 'सत्' तो है पर इसके उत्पादक कारण नहीं है अत: यह हेतु अनैकान्तिक भी है। मण्डूक शिखण्ड दृष्टान्त भी साध्यसाधन उभयधर्मों से विकल होने के कारण दृष्टान्ताभास है। क्योंकि उसके भी किसी अपेक्षा से कारण बन जाते हैं और वह 'सत्' भी सिद्ध हो जाता है । यथा - कोई जीव मेंढक था और वही जीव जब युवती की पर्याय को धारण करता है तो भूतपूर्वनय की अपेक्षा उस युवती को भी हम मेंढक कह ही सकते हैं और उसके युवति-पर्यायापन्न मंडूक के शिखा होने से मंडूकशिखण्ड व्यवहार हो सकता है। पुदगलद्रव्य की पर्यायों का कोई नियम नहीं है अतः यवती के द्वारा उपभक्त भोजन आदि पुद्गल द्रव्यों का शिखण्डक रूप से परिणमन होने के कारण सकारणता भी बन जाती है। इसी तरह आकाशकुसुम भी अपेक्षा से बन जाता है। वनस्पतिनामकर्म का जिस जीव के उदय है वह जीव और पुद्गल का समुदाय पुष्प कहा जाता है । जिस प्रकार वृक्ष के द्वारा व्याप्त होने से वह पुष्प पुद्गल वृक्ष का कहा जाता है उसी तरह आकाश के द्वारा व्याप्त होने के कारण आकाश का क्यों न कहा जाय ? वक्ष के द्वारा उपकृत होने के कारण यदि वह वृक्ष का कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहनरूप उपकार की अपेक्षा उसे आकाश का भी कहना चाहिए। वृक्ष से टूटकर फूल गिर भी जाय पर आकाश से तो कभी भी दूर नहीं हो सकता, सदा आकाश में ही रहता है । अथवा मण्डूकशिखण्ड विषयक ज्ञान का विषय होने से भी मंडूक शिखंड का सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए। इसी तरह 'अप्रत्यक्ष' हेतु के द्वारा आत्मा का अभाव करना भी उचित नहीं हैं, क्योंकि शुद्ध आत्मा केवलज्ञान के प्रत्यक्ष होता है तथा अशुद्ध कार्मणशरीरसंयुक्त आत्मा अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान के द्वारा। इन्द्रिय प्रत्यक्ष की दृष्टि से तो आत्मा परोक्ष ही माना जाता है। घटादि परोक्ष हैं क्योंकि वे अग्राहकनिमित्त से ग्राह्य होते हैं जैसे कि धूम से अनुमित अग्नि । इन्द्रियाँ अग्राहक हैं क्योंकि उनके नष्ट हो जाने पर भी स्मृति देखी जाती है। जैसे खिड़की के नष्ट हो जाने पर भी उसके द्वारा देखनेवाला कायम रहता है उसी तरह इन्द्रियों से देखनेवाला ग्राहक आत्मा स्थिर है। अतः अग्राहकनिमित्त से ग्राह्य होने के कारण इन्द्रियग्राह्य पदार्थ परोक्ष ही है। अप्रत्यक्ष शब्द को यदि पर्युदासरूप लिया जाता है तो प्रत्यक्ष से भिन्न अप्रत्यक्ष वस्त्वन्तर सिद्ध होता है । यदि प्रसज्यपक्ष लेते हैं तो प्रतिषेध्य का क्वचित् सद्भावसिद्ध होने पर ही प्रतिषेध किया जाता है अतः कथञ्चित् सत्ता सिद्ध होने से हेतु असिद्ध हो जाता है। असत् खरविषाण आदि अप्रत्यक्ष हैं तथा विद्यमान ज्ञान आदि भी अप्रत्यक्ष हैं अतः यह हेतु अनैकान्तिक है। यदि ज्ञान को स्वप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष होने से प्रत्यक्ष मानते हो तो आत्मा को ही इस तरह प्रत्यक्ष मानने में क्या बाधा है ? जितने भी पदार्थ शब्दगोचर हैं वे सब विधि-निषेधात्मक हैं। कोई भी वस्तु सर्वथा निषेधगम्य नहीं होती । जैसे कुरवक पुष्प लाल और सफेद दोनों रंगों का नहीं होता, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह वर्णशून्य है । इसी तरह पर की अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व होने पर भी स्वदृष्टि से उसका अस्तित्व प्रसिद्ध ही है। कहा भी है कथञ्चित् असत् की भी उपलब्धि और अस्तित्व है तथा कथञ्चित् सत् की भी अनुपलब्धि और नास्तित्व है । यदि सर्वथा अस्ति और उपलब्धि मानी जाय तो घट की पटादि रूप से भी उपलब्धि होने से सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायंगे और यदि पररूप की तरह स्वरूप से भी असत्त्व माना जाय अर्थात् सर्वथा असत्व माना जाय तो पदार्थ का ही अभाव हो जायगा, वह शब्द का विषय ही नहीं हो सकेगा । अतः नास्तित्व और अप्रत्यक्षत्व से शून्य जो होगा वह अवस्तु ही होगा। इस तरह जब धर्मी ही अप्रसिद्ध हो जाता है तब अनुमान नहीं बन सकेगा। 19-20. इन्द्रियों और तज्जनित ज्ञानों में नहीं पाया जानेवाला 'जो मैं देखनेवाला था वही चखनेवाला हूँ' यह एकत्व-विषयक फल, सभी इन्द्रिय द्वारों से जाननेवाले तथा सभी ज्ञानों में परस्पर एकसूत्रता कायम रखनेवाले गृहीता आत्मा का सद्भाव सिद्ध करता है । 'आत्मा है' यह ज्ञान यदि संशय रूप है तो भी आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है। क्योंकि अवस्तु का संशय नहीं होता। इसी तरह 'आत्मा है' इस ज्ञान को अनादिकाल से प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अनुभव करता है अतः अनध्यवसाय भी नहीं कह सकते । यदि इसे विपरीत ज्ञान कहते हैं तब भी आत्मा की क्वचित् सत्ता सिद्ध हो ही जाती है क्योंकि अप्रसिद्ध पदार्थ का विपर्यय ज्ञान नहीं होता। तात्पर्य यह कि 'आत्मा है' यह ज्ञान किसी भी रूप में आत्मा के अस्तित्व का ही साधक है। सम्यक् रूप में तो आत्मसाधक है ही। 21. बौद्ध का यह पक्ष भी ठीक नहीं है कि अनेकज्ञानक्षणों की एक सन्तान है, इसी से उक्त प्रत्यभिज्ञान आदि हो जाते हैं; क्योंकि उनके मत से सन्तान संवृतिसत् अर्थात् काल्पनिक है वास्तविक नहीं। यदि इस अनेक क्षणवर्ती सन्तान को वस्तु मानते हैं तो आत्मा और सन्तान में नाममात्र का ही अन्तर रहा - पदार्थ का नहीं, क्योंकि अनेक ज्ञानादिपर्यायों में अनुस्यूत द्रव्य को ही आत्मा कहते हैं। 22-23. यह शंका भी ठीक नहीं है कि उपयोग अस्थिर है अतः वह आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता; क्योंकि एक उपयोग क्षण के नष्ट हो जाने पर भी दूसरा उसका स्थान ले लेता है, कभी भी उपयोग की धारा टूटती नहीं है । पर्याय दृष्टि से अमुक पदार्थविषयक उपयोग का नाश होने पर भी द्रव्यदृष्टि से उपयोग सामान्य बना ही रहता है । यदि उपयोग का सर्वथा विनाश माना जाय तो उत्तर-काल में स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि नहीं हो सकेंगे क्योंकि स्मरण स्वयं अनुभूत पदार्थ का स्वयं को ही होता है, अन्य के द्वारा अनुभूत का अन्य को नहीं। स्मरण के अभाव में समस्त लोक-व्यवहार का लोप ही हो जायगा । 24. उपयोग को पृथक् गुण मानकर उसके सम्बन्ध को लक्षण कहना उचित नहीं है। क्योंकि यदि ज्ञानादि उपयोग को आत्मा से पृथक् माना जाता है तो उसका 'आत्मा से ही सम्बन्ध हो अन्य से नहीं' यह नियम नहीं बन सकेगा। अतः उपयोग को आत्मभूत लक्षण मानना ही उचित है । दंड तो अनात्मभूत है । अतः वह पृथक् रहकर भी सम्बन्ध से लक्षण बन सकता है। |