+ जीव के भेद -
संसारिणो मुक्ताश्‍च ॥10॥
अन्वयार्थ : जीव दो प्रकार के हैं - संसारी और मुक्त ॥१०॥
Meaning : The transmigrating and the emancipated souls.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

संसरण करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिवर्तन है । यह जिन जीवों के पाया जाता है वे संसारी हैं । परिवर्तन के पाँच भेद हैं - द्रव्‍य-परिवर्तन, क्षेत्र-परिवर्तन, काल-परिवर्तन, भव-परिवर्तन और भाव-परिवर्तन ।

द्रव्‍य-परिवर्तन के दो भेद हैं - नोकर्म द्रव्‍य-परिवर्तन और कर्म द्रव्‍य-परिवर्तन ।

अब नोकर्म द्रव्‍य-परिवर्तन का स्‍वरूप कहते हैं -- किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्‍य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया । अनन्‍तर वे पुद्गल स्निग्‍ध या रूक्ष स्‍पर्श तथा वर्ण और गन्‍ध आदि के द्वारा जिस तीव्र, मन्‍द और मध्‍यम भाव-रूप से ग्रहण किये थे उस रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये । तत्‍पश्‍चात् अगृहीत परमाणुओं को अनन्‍त बार ग्रहण करके छोड़ा, मिश्र परमाणुओं को अनन्‍त बार ग्रहण करके छोड़ा और बीच में गृहीत परमाणुओं को अनन्‍त बार ग्रहण करके छोड़ा । तत्‍पश्‍चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये वे ही नोकर्म परमाणु उसी प्रकार से नोकर्म-भाव को प्राप्‍त होते हैं तब यह सब मिलकर एक नोकर्म द्रव्‍य-परिवर्तन होता है ।

अब कर्म-द्रव्‍य-परिवर्तन का कथन करते हैं -- एक जीव ने आठ प्रकार के कर्म-रूप से जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, वे समया‍धिक एक आवली काल के बाद द्वितीयादिक समयों में झर गये । पश्‍चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्‍य-परिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से उस जीव के जब कर्मभाव को प्राप्‍त होते हैं तब यह सब एक कर्म-द्रव्‍य-परिवर्तन कहलाता है । कहा भी है - 'इस जीवने सभी पुद्गलोंको क्रमसे भोगकर छोड़ दिया । और इस प्रकार यह जीव असकृत अनन्‍तबार पुद्गल परिवर्तन-रूप संसार में घूमता है।'

अब क्षेत्रपरिवर्तन का कथन करते हैं -- जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है ऐसा एक सूक्ष्‍म निगोद लब्‍ध्‍यपर्याप्‍तक जीव लोक के आठ मध्‍य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्‍य में करके उत्‍पन्‍न हुआ और क्षुद्र-भव ग्रहण काल तक जीकर मर गया । पश्‍चात् वही जीव पुन: उसी अवगाहना से वहाँ दूसरी बार उत्‍पन्‍न हुआ, तीसरी बार उत्‍पन्‍न हुआ, चौथी बार उत्‍पन्‍न हुआ । इस प्रकार घनांगुल के असंख्‍यातवें भाग में आकाश के जितने प्रदेश प्राप्‍त हों उतनी बार वहीं उत्‍पन्‍न हुआ । पुन: उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोक को अपना जन्‍म-क्षेत्र बनाया । इस प्रकार यह सब मिलकर एक क्षेत्र-परिवर्तन होता है । कहा भी है -

'सब लोक क्षेत्र में ऐसा एक प्रदेश नहीं है जहाँ यह अवगाहना के साथ क्रम से नहीं उत्‍पन्‍न हुआ । इस प्रकार इस जीव ने क्षेत्र संसार में अनेक बार परिभ्रमण किया ।'



अब कालपरिवर्तन का कथन करते हैं -- कोई जीव उत्‍सर्पिणी के प्रथम समय में उत्‍पन्‍न हुआ और आयु के समाप्‍त हो जाने पर मर गया । पुन: वही जीव दूसरी उत्‍सर्पिणी के दूसरे समय में उत्‍पन्‍न हुआ और अपनी आयु के समाप्‍त हो जाने पर मर गया । पुन: वही जीव तीसरी उत्‍सर्पिणी के तीसरे समय में उत्‍पन्‍न हुआ । इस प्रकार इसने क्रम से उत्‍सर्पिणी समाप्‍त की और इसी प्रकार अवसर्पिणी भी । यह जन्‍म का नैरन्‍तर्य कहा । तथा इसी प्रकार मरण का भी नैरन्‍तर्य लेना चाहिए । इस प्रकार यह सब मिलकर एक काल-परिवर्तन है। कहा भी है - 'कालसंसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव उत्‍सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब समयों में अनेक बार जन्‍मा और मरा ।'

अब भव-परिवर्तन का कथन करते हैं -- नरकगति में सबसे जघन्‍य आयु दस हजार वर्ष की है । एक जीव उस आयु से वहाँ उत्‍पन्‍न हुआ, पुन: घूम-फिरकर उसी आयु से वहीं उत्‍पन्‍न हुआ । इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार व‍हीं उत्‍पन्‍न हुआ और मरा । पुन: आयु के एक-एक समय बढ़ाकर नरक की तेंतीस सागर आयु समाप्‍त की । तदनन्‍तर नरक से निकलकर अन्‍तमुहूर्त आयु के साथ तिर्यंचगति में उत्‍पन्‍न हुआ । और पूर्वोक्त क्रम से उसने तिर्यंचगति की तीन पल्‍योपम आयु समाप्‍त की । इसी प्रकार मनुष्‍यगति में अन्‍तर्मुहूर्त से लेकर तीन पल्‍योपम आयु समाप्‍त की । तथा देवगति में नरकगति के समान आयु समाप्‍त की । किन्‍तु देवगति में इतनी विशेषता है कि यहाँ इकतीस सागरोपम आयु समाप्‍त होने तक कथन करना चाहिए । इस प्रकार यह सब मिलकर एक भव-परिवर्तन है ।

अब भाव-पिरवर्तन का कथन करते हैं -- पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्‍तक मिथ्‍यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृति की सबसे जघन्‍य अपने योग्‍य अन्‍त:कोड़ाकोड़ी-प्रमाण स्थिति को प्राप्त होता है । उसके उस स्थिति के योग्‍य षट्स्थानपतित असंख्‍यात लोकप्रमाण कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थान होते हैं । और सबसे जघन्‍य इन कषायअध्‍यवसाय-स्‍थानों के निमित्त से असंख्‍यात लोकप्रमाण अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्‍य स्थिति, सबसे जघन्‍य कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थान और सबसे जघन्‍य अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान को धारण करने वाले इस जीव के तद्योग्‍य सबसे जघन्‍य योग-स्‍थान होता है । तत्‍पश्‍चात् स्थ्‍िाति, कषाय अध्‍यवसाय-स्‍थान और अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान वही रहते हैं, किन्‍तु योग-स्‍थान दूसरा हो जाता है जो असंख्‍यात भाग-वृद्धि-संयुक्त होता है । इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि योगस्‍थानों में समझना चाहिए । ये सब योग-स्‍थान चार स्‍थान पतित होते हैं और इनका प्रमाण श्रेणी के असंख्‍यातवें भाग-प्रमाण है । तदनन्‍तर उसी स्थिति और उसी कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थान को धारण करने वाले जीव के दूसरा अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान होता है । इसके योग-स्‍थान पहले के समान जानना चाहिए । तात्‍पर्य यह है कि यहाँ भी पूर्वोक्‍त तीनों बातें ध्रुव रहती हैं किन्‍तु योग-स्‍थान जग-श्रेणी के असंख्‍यातवें भाग-प्रमाण होते हैं । इस प्रकार असंख्‍यात लोकप्रमाण अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थानों के होने तक तीसरे आदि अनुभाग अध्‍यवसाय-स्‍थानों में जानना चाहिए । तात्‍पर्य यह है कि यहाँ स्थिति और कषाय अध्‍यवसाय-स्‍थान तो जघन्‍य ही रहते हैं किन्‍तु अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान क्रम से असंख्‍यात लोक-प्रमाण हो जाते हैं और एक-एक अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान के प्रति जग-श्रेणी के असंख्‍यातवें भाग-प्रमाण योगस्‍थान होते हैं । तत्‍पश्‍चात् उसी स्थिति को प्राप्‍त होने वाले जीव के दूसरा कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थान होता है । इसके भी अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान और योग-स्‍थान पहले के समान जानना चाहिए । अर्थात् एक-एक कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थान के प्रति असंख्‍यात लोक-प्रमाण अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान होते हैं और एक-एक अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान के प्रति जग-श्रेणी असंख्‍यातवें भाग-प्रमाण योग-स्‍थान होते हैं । इस प्रकार असंख्‍यात लोकप्रमाण कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थानों के होने तक तीसरे आदि कषाय-अध्‍यसाय-स्‍थानों में वृद्धि का क्रम जानना चाहिए । जिस प्रकार सबसे जघन्‍य स्थिति के कषायादि स्‍थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्‍य स्थिति के भी कषायादि स्‍थान जानना चाहिए और इसी प्रकार एक-एक समय अधिक के क्रम से तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्‍कृष्‍ट स्थिति तक प्रत्‍येक स्थिति-विकल्‍प के भी कषायादि स्‍थान जानना चाहिए । अनन्‍त भाग-वृद्धि, असंख्‍यात भाग-वृद्धि, संख्‍यात भाग-वृद्धि, संख्‍यात गुण-वृद्धि, असंख्‍यात गुण-वृद्धि और अनन्‍त गुण-वृद्धि इस प्रकार ये वृद्धि के छह स्‍थान हैं तथा इसी प्रकार हानि भी छह प्रकार की है । इनमें-से अनन्‍त भाग-वृद्धि और अनन्‍त गुण-वृद्धि इन दो स्‍थानों के कम कर देने पर चार स्‍थान होते हैं । इसी प्रकार सब मूल प्रकृतियों का और उनकी उत्तर प्रकृतियों के परिवर्तन का क्रम जानना चाहिए । यह सब मिलकर एक भाव-परिवर्तन होता है । कहा भी है -

'इस जीव ने मिथ्‍यात्‍व के संसर्ग से सब प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्‍धके स्‍थानों को प्राप्‍त कर भाव-संसार में परिभ्रमण किया।'

जो उक्त पाँच प्रकार के संसार से निवृत्त हैं वे मुक्त हैं । सूत्रमें 'संसारि' पद का पहले ग्रहण किया, क्‍योंकि 'मुक्त' यह संज्ञा संसार पूर्वक प्राप्‍त होती है ।



पहले जो संसारी जीव कह आये हैं वे दो प्रकार के हैं । आगे के सूत्र-द्वारा इसी बात को बतलाते हैं -
राजवार्तिक :

1-2. अपने किए कर्मों से स्वयं पर्यायान्तर को प्राप्त होना संसार है । आत्मा स्वयं कर्मों का कर्ता है और उनके फलों का भोक्ता। सांख्य का यह मत कि - 'प्रकृति कर्त्री है और पुरुष फल भोगता है' नितान्त असङ्गत है; क्योंकि अचेतन प्रकृति में घटादि की तरह पुण्यपाप की कर्तृता नहीं आ सकती। यदि अन्यकृत कर्मों का फल अन्य को भोगना पड़े तो मुक्ति नहीं हो सकती और कृतप्रणाश (किये गये कर्मों का निष्फल होना) नाम का दूषण होता है । संसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव इस प्रकार पांच प्रकार का है। जिनके संसार है वे संसारी हैं। जिनके पुद्गलकर्मरूप द्रव्यबन्ध और तज्जनित क्रोधादिकषायरूप भावबन्ध दोनों नष्ट हो गये हैं वे मुक्त हैं।

3-5. यदि सूत्र में लघुता के विचार से द्वन्द्व-समास किया जाता तो अल्प-अक्षर और पूज्य होने से मुक्त शब्द का पूर्वनिपात होने पर 'मुक्तसंसारिणः' यह प्रयोग प्राप्त होता। इसका सीधा अर्थ निकलता - 'छोड़ दिया है संसार जिनने' ऐसे जीव । अर्थात् केवल मुक्तजीवों का ही बोध हो पाता। अतः 'संसारिणः मुक्ताश्च' यह पृथक्-पृथक् वाक्य ही दिए गए हैं। सूत्र में 'च' शब्द समुच्चयार्थक नहीं है किन्तु अन्वाचय अर्थ में है । संसारी जीवों में उपयोग की मुख्यता और मुक्त जीवों में उपयोग की गौणता बताने के लिए 'च' शब्द दिया है । संसारी जीवों में उपयोग बदलता रहता है अतः जैसे एकाग्र चिन्तानिरोधरूप ध्यान छद्मस्थों में मुख्य है, केवली में तो उसका फल कर्मध्वंस देखकर उपचार से ही वह माना जाता है उसी तरह संसारियों में पर्यायान्तर होने से उपयोग मुख्य है, मुक्त जीवों में सतत एक-सी धारा रहने से गौण है।

6. संसारियों के अनेक भेद हैं तथा मोक्ष संसारपूर्वक ही होता है और सभी के स्वसंवेद्य है अतः संसारी का ग्रहण प्रथम किया है। मुक्त तो अत्यन्त परोक्ष हैं, उनका अनुभव अभी तक अप्राप्त ही है।