+ संसारी जीवों के भेद -
समनस्काऽमनस्काः ॥11॥
अन्वयार्थ : मनवाले और मनरहित ऐसे संसारी जीव हैं ॥११॥
Meaning : (The two kinds of transmigrating souls are those) with and without minds.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

मन दो प्रकार का है -- द्रव्‍य-मन और भाव-मन । उनमें-से द्रव्‍य-मन पुद्गल-विपाकी अंगोपांग नाम-कर्म के उदय से होता है तथा वीर्यान्‍तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखनेवाले आत्‍मा की विशुद्धि को भाव-मन कहते हैं । यह मन जिन जीवों के पाया जाता है वे समनस्‍क हैं । और जिनके मन नहीं पाया जाता है वे अमनस्‍क हैं । इस प्रकार मन के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा संसारी जीव दो भागोंमें बँट जाते हैं ।। 'समनस्‍कामनस्‍का:' इसमें समनस्‍क और अमनस्‍क इस प्रकार द्वन्‍द्व समास है । समनस्‍क शब्‍द श्रेष्‍ठ है अत: उसे सूत्रमें पहले रखा ।

शंका – श्रेष्‍ठता किस कारण से है ?

समाधान –
क्‍योंकि समनस्‍क जीव गुण और दोषोंके विचारक होते हैं, इ‍सलिए समनस्‍क पद श्रेष्‍ठ है ।

अब फिर से भी संसारी जीवों के भेदों का ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
राजवार्तिक :

1. मन दो प्रकार का है - एक द्रव्य-मन और दूसरा भाव-मन । पुद्गलविपाकी नाम-कर्म के उदय से द्रव्यमन होता है और वीर्यान्तराय तथा नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशम से होनेवाली आत्मविशुद्धि भावमन है । मन सहित जीव समनस्क और मनरहित अमनस्क, इस प्रकार दो तरह के संसारी हैं।

2-7. प्रश्न – दो प्रकार के जीवों का प्रकरण है अत: संसारी समनस्क और मुक्त अमनस्क इस प्रकार यथाक्रम सम्बन्ध कर लेना चाहिए । मुक्त जीवों को मनरहित मानना इष्ट भी है।

उत्तर –
इस प्रकार सभी संसारी जीवों में समनस्कता का प्रसंग आता है। 'संसारिणो मुक्ताश्च' और 'समनस्काऽमनस्काः' ये दो पृथक् सूत्र बनाने से ज्ञात होता है कि पूर्वसूत्र से केवल संसारी पद का यहां सम्बन्ध होता है अन्यथा एक ही सूत्र बनाना चाहिए था । अथवा आगे आनेवाले 'संसारिणः त्रसस्थावराः' सूत्र से 'संसारी' पद का यहां सम्बन्ध कर लेना चाहिए। आगे के पूरे सूत्र का यहां सम्बन्ध विवक्षित नहीं है अन्यथा सभी त्रसों में समनस्कता का अनिष्ट प्रसङ्ग प्राप्त होता। यदि 'सस्थावराः' का भी सम्बन्ध इष्ट होता तो एक ही सूत्र बनाना चाहिए था। तात्पर्य यह कि तीनों पृथक्-सूत्र बनाने से यही फलित होता कि विवक्षानुसार पदों का सम्बन्ध करना चाहिए। यदि एक सूत्र बनाना इष्ट होता तो एक संसारी पद निरर्थक हो जाता है और सूत्र का आकार 'संसारिमुक्ताः समनस्कामनस्कास्त्रसस्थावराश्च' यह होता । ऐसी दशा में कई अनिष्ट प्रसङ्ग होते हैं।

8. समनस्क ग्रहण प्रथम किया है क्योंकि वह पूज्य है। समनस्क के सभी इन्द्रियां होती हैं।