+ संसारी जीवों के और भी भेद -
संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥12॥
अन्वयार्थ : तथा संसारी जीव त्रस और स्‍थावर के भेद से दो प्रकार हैं ॥१२॥
Meaning : The transmigrating souls are (of two kinds), the mobile and the immobile beings.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

शंका – सूत्र में 'संसारी' पद का ग्रहण करना निरर्थक है, क्‍योंकि वह प्रकरण प्राप्‍त है ?

समाधान –
इसका प्रकरण कहाँ है ?

शंका – 'संसारिणो मुक्‍ताश्‍च' इस सूत्र में उसका प्रकरण है।

समाधान –
सूत्रमें 'संसारी' पद का ग्रहण करना अनर्थक नहीं है, क्‍योंकि पूर्व सूत्र की अपेक्षा इस सूत्रमें 'संसारी' पद का ग्रहण किया है। तात्‍पर्य यह है कि पूर्व सूत्र में जो समनस्‍क और अमनस्‍क जीव बतलाये हैं वे संसारी हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रमें 'संसारी' पद दिया है । यदि 'संसारी' पद को पूर्व का विशेषण न माना जाय तो समनस्‍क और अमनस्‍क इनका संसारी और मुक्त इनके साथ क्रमसे सम्‍बन्‍ध हो जायेगा। और इस अभिप्राय से 'संसारिणो' पद का इस सूत्र के आदि में ग्रहण करना बन जाता है । इस प्रकार 'संसारिणो' पद का ग्रहण पूर्व सूत्र की अपेक्षा से होकर अगले सूत्र के लिए भी हो जाता है । यथा - वे संसारी जीव दो प्रकार के हैं त्रस और स्‍थावर । जिनके त्रस नामककर्म का उदय है वे त्रस कहलाते हैं और जिनके स्‍थावर नामकर्म का उदय है उन्‍हें स्‍थावर कहते हैं ।

शंका – 'त्रस्‍यन्ति' अर्थात् जो चलते-फिरते हैं वे त्रस हैं और जो स्थिति स्‍वभाववाले हैं वे स्‍थावर हैं, क्‍या त्रस और स्‍थावरका यह लक्षण ठीक है ?

समाधान –
यह कहना ठीक नहीं है, क्‍योंकि ऐसा माननेमें आगम से विरोध आता है, क्‍योंकि कायानुवाद की अपेक्षा कथन करते हुए आगममें बतलाया है कि द्वीन्द्रिय जीवों से लकर अयोगकेवली तक के सब जीव त्रस हैं, इसलिए गमन करने और न करने की अपेक्षा त्रस और स्‍थावर यह भेद नहीं है, किन्‍तु त्रस और स्‍थावर कर्मों के उदय की अपेक्षा से ही है । सूत्र में त्रसपद का प्रारम्‍भ में ग्रहण किया है, क्‍योंकि स्‍थावर पद से इसमें कम अक्षर हैं और यह श्रेष्‍ठ है । त्रस श्रेष्‍ठ इसलिए हैं कि इनके सब उपयोगों का पाया जाना सम्‍भव है ।

एकेन्द्रियों के विषय में अधिक वक्तव्‍य नहीं है, इसलिए आनुपूर्वी को छोडकर पहले स्‍थावर के भेदों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -
राजवार्तिक :

1-2. जीव-विपाकी त्रस नाम-कर्म के उदय से त्रस होते हैं। 'जो भयभीत होकर गति करें वे त्रस' यह व्युत्पत्त्यर्थ ठीक नहीं है, क्योंकि गर्भस्थ, अण्डस्थ, मूर्च्छित, सुषुप्त आदि में बाह्य भय के निमित्त मिलने पर भी हलन-चलन नहीं होता अतः इनमें अत्रसत्व का प्रसङ्ग प्राप्त होता है । 'त्रस्यन्तीति त्रसाः' यह केवल 'गच्छतीति गौः' की तरह व्युत्पत्ति मात्र है।

3-5. जीवविपाकी स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर होते हैं । 'जो ठहरें वे स्थावर' यह व्युत्पत्ति करने पर वायु, अग्नि, जल आदि गतिशील जीव स्थावर नहीं कहे जा सकेंगे । आगम में भी द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगकेवली तक जीवों को त्रस कहा है। अतः वायु आदि को स्थावर कोटि से निकालकर त्रसकोटि में लाना उचित नहीं है । इसलिए चलन और अचलन की अपेक्षा त्रस और स्थावर व्यवहार नहीं किया जा सकता।

6. त्रस शब्द कि अल्प अक्षरवाला है और पूज्य है इसलिए पहिले लिया गया है। त्रसों के सभी उपयोग हो सकते हैं अतः वह पूज्य है।