
सर्वार्थसिद्धि :
शुभकर्मका कारण होने से इसे शुभ कहा है। यह शरीर आहारक काययोगरूप शुभकर्मका कारण है, इसलिए आहारक शरीर शुभ कहलाता है। यहाँ कारणमें कार्यका उपचार है। जैसे अन्नमें प्राणका उपचार करके अन्नको प्राण कहते हैं। विशुद्धकर्मका कार्य होनेसे आहारक शरीरको विशुद्ध कहा है। तात्पर्य यह हैकि जो चित्र-विचित्र न होकर निर्दोष है ऐसे विशुद्ध अर्थात् पुण्यकर्मका कार्य होनेसे आहारक शरीरको विशुद्ध कहते हैं। यहाँ कार्य में कारणका उपचार है। जैसे तन्तुओंमें कपासका उपचार करके तन्तुओं को कपास कहते हैं। दोनों ओरसे व्याघात नहीं होता, इसलिए यह अव्याघाती है। तात्पर्य यह है कि आहारक शरीरसे अन्य पदार्थका व्याघात नहीं होता और अन्य पदार्थसे आहारक शरीरका व्याघात नहीं होता। आहारक शरीरके प्रयोजनका समुच्चय करने के लिए सूत्रमें 'च' शब्द दिया है। यथा – आहारक शरीर कदाचित् लब्धि-विशेषके सद्भावको जतानेके लिए, कदाचित् सूक्ष्म पदार्थका निश्चय करनेके लिए और संयमकी रक्षा करनेके लिए उत्पन्न होता है। सूत्रमें 'आहारक' पद आया है उससे पूर्व में कहे गये आहारक शरीरको दुहराया है। जिस समय जीव आहारक शरीरकी रचना का आरम्भ करता है उस समय वह प्रमत्त हो जाता है, इसलिए सूत्रमें प्रमत्तसंयतके ही आहारक शरीर होता है यह कहा है। इष्ट अर्थके निश्चय करनेके लिए सूत्रमें 'एवकार' पदको ग्रहण किया है। जिससे यह जाना जाय कि आहारक शरीर प्रमत्तसंयतके ही होता है अन्यके नहीं किन्तु यह न जाना जाय कि प्रमत्तसंयतके आहारक ही होता है। तात्पर्य यह है कि प्रमत्तसंयतके औदारिक आदि शरीरोंका निराकरण न हो, इसलिए प्रमत्तसंयत पदके साथ ही एवकार पद लगाया है। इस प्रकार इन शरीरोंको धारण करनेवाले संसारी जीवोंके प्रत्येक गतिमें क्या तीनों लिंग होते हैं या लिंगका कोई स्वतन्त्र नियम है ? अब इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं – |
राजवार्तिक :
1-3. जैसे प्राणों का कारण होने से उपचार से अन्न को भी प्राण कह देते हैं उसी तरह शुभ आहारकयोग का कारण होने से यह शरीर शुभ कहा जाता है। विशुद्ध कर्म के उदय से होने के कारण यह विशुद्ध है। न तो आहारक शरीर किसी का व्याघात करता है और न किसी से व्याघातित ही होता है अतः अव्याघाती है। 4. भरत और ऐरावत क्षेत्र में केवलियों का अभाव होने पर महाविदेह क्षेत्र में केवली भगवान् के पास औदारिक शरीर से जाना तो शक्य नहीं है और असंयम भी बहुत होगा अतः प्रमत्तसंयत मुनि सूक्ष्म पदार्थक निर्णय के लिए या ऋद्धि का सद्भाव जानने के लिए या संयम परिपालन के लिए आहारक शरीर की रचना करता है। इन बातों के समुनचय के लिए 'च' शब्द दिया गया है। 5-7. 'प्रमत्त संयत के ही आहारक होता है' इस प्रकार अवधारण करने के लिए एवकार है न कि 'प्रमत्तसंयत के आहारक ही होता है' इस अनिष्ट अवधारण के लिए। जिस समय मुनि आहारक शरीर की रचना करता है उस समय वह प्रमत्तसंयत ही हो जाता है। 8. इन शरीरों में परस्पर संज्ञा, लक्षण, कारण, स्वामित्व, सामर्थ्य, प्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, संख्या, प्रदेश, भाव और अल्पबहुत्व आदि की दृष्टिसे भेद है । यथा, संज्ञा - औदारिक आदि के अपने-अपने जुदे नाम हैं। लक्षण - स्थूल शरीर औदारिक है। विविधगुण ऋद्धिवाली विक्रिया करनेवाला शरीर वैक्रियिक है। सूक्ष्मपदार्थविषयक निर्णय के लिए आहारक शरीर होता है। शंख के समान शुभ तैजस होता है। वह दो प्रकार का है - १ निःसरणात्मक 2 अनिःसरणात्मक । औदारिक वैक्रियिक और आहारक शरीर में दीप्ति करनेवाला-रौनक लानेवाला अनिःसरणात्मक तैजस है। निःसरणात्मक तेजस उग्रचारित्रवाले अतिक्रोधी यति के शरीर से निकल कर जिसपर क्रोध है उसे घेरकर ठहरता है और उसे शाक की तरह पका देता है, फिर वापिस होकर यति के शरीर में ही समा जाता है। यदि अधिक देर ठहर जाय तो उसे भस्मसात् कर देता है । सभी शरीरों में कारणभूत कर्मसमुह को कार्मण शरीर कहते हैं । कारण - औदारिक आदि भिन्न-भिन्न नाम कर्मों के उदय से ये शरीर होते हैं। अतः कारणभेद स्पष्ट है। स्वामित्व - औदारिक शरीर तिर्यञ्च और मनुष्यों के होता है । वैक्रियिक शरीर देव, नारकी, तेजस्काय, वायुकाय और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा मनुष्यों में किसी के होता है। प्रश्न – जीवस्थान के योगभंग प्रकरण में तिर्यञ्च और मनुष्यों के औदारिक और औदारिक मिश्र तथा देव और नारकियों के वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र बताया है पर यहां तो तिर्यञ्च और मनुष्यों के भी वैक्रियिक का विधान किया है । इस तरह परस्पर विरोध आता है ? उत्तर – व्याख्या प्रज्ञप्ति दंडक के शरीरभंग में वायुकायिक के औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण ये चार शरीर तथा मनुष्यों के पांच शरीर बताए हैं । भिन्न-भिन्न अभिप्रायों से लिखे गये उक्त सन्दर्भो में परस्पर विरोध भी नहीं है। जीवस्थान में जिस प्रकार देव और नारकियों के सर्वदा वैक्रियिक शरीर रहता है उस तरह तिर्यञ्च और मनुष्यों के नहीं होता, इसीलिए तिर्यञ्च और मनुष्यों के वैक्रियिक शरीर का विधान नहीं किया है जब कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में उसके सद्भावमात्र से ही उसका विधान कर दिया है। आहारक प्रमत्तसंयत के ही होता है । तैजस और कार्मण सभी संसारियोंके होते हैं। सामर्थ्य - मनुष्य और तिर्यञ्चों में सिंह और केशरी, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के औदारिक शरीरों में शक्ति का तारतम्य सर्वानुभूत है। यह भवप्रत्यय है । उत्कृष्ट तपस्वियों के शरीरविक्रिया करने की शक्ति गुणप्रत्यय है। वैक्रियिक शरीर में मेरुकम्पन और समस्त भूमण्डल को उलटा-पुलटा करने की शक्ति है। आहारक शरीर अप्रतिघाती होता है, वज्रपटल आदि से भी वह नहीं रुकता। यद्यपि वैक्रियिक शरीर भी साधारणतया अप्रतिघाती होता है, फिर भी इन्द्र सामानिक आदि में शक्ति का तारतम्य देखा जाता है । अनन्तवीर्ययति ने इन्द्र की शक्ति को कुंठित कर दिया था यह प्रसिद्ध ही है। अत: वैक्रियिक क्वचित् प्रतिघाती होता है किन्तु सभी आहारक शरीर समशक्तिक और सर्वत्र अप्रतिघाती होते हैं। तेजस शरीर क्रोध और प्रसन्नता के अनुसार दाह और अनुग्रह करने की शक्ति रखता है । कार्मण शरीर सभी कर्मों को अवकाश देता है, उन्हें अपने में शामिल कर लेता है। प्रमाण - सबसे छोटा औदारिक शरीर सूक्ष्मनिगोदिया जीवों के अंगुल के असंख्यात भाग बराबर होता है और सबसे बड़ा नन्दीश्वरवापी के कमल का कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाण का होता है। वैक्रियिक मूल शरीर की दृष्टि से सबसे छोटा सर्वार्थसिद्धि के देवों के एक अरत्नि प्रमाण और सबसे बड़ा सातवें नरक में पांच सौ धनुष प्रमाण है। विक्रिया की दृष्टि से बड़ी-से-बड़ी विक्रिया जम्बूद्वीप प्रमाण होती है। आहारक शरीर एक अरत्नि प्रमाण होता है। तैजस और कार्मण शरीर जघन्य से अपने औदारिक शरीर के बराबर होते हैं और उत्कृष्ट से केवलि समुद्घात में सर्वलोकप्रमाण होते हैं। क्षेत्र - औदारिक वैक्रियिक और आहारक का लोक का असंख्यातवां भाग क्षेत्र है। तैजस और कार्मण का लोक का असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग या सर्वलोक क्षेत्र होता है, प्रतर और लोकपूरण अवस्था में । स्पर्शन - तिर्यञ्चों ने औदारिक शरीर से सम्पूर्ण लोक का स्पर्शन किया है, और मनुष्यों ने लोक के असंख्यातवें भाग का । मूल वैक्रियिक शरीर से लोक के असंख्यात बहुभाग और उत्तर वैक्रियिक से कुछ कम भाग स्पृष्ट होते हैं। सौधर्मस्वर्ग के देव स्वयं या परनिमित्त से ऊपर आरण अच्युत स्वर्ग तक छह राजू जाते हैं और नीचे स्वयं बालुकाप्रभा नरक तक दो राजू, इस तरह पर भाग होते हैं । आहारक शरीर के द्वारा लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया जाता है । तैजस और कार्मण समस्त लोक का स्पर्शन करते हैं। काल - तिर्यञ्च और मनुष्यों के औदारिक शरीर का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्य है। यह अन्तर्महूर्त अपर्याप्तक का काल है । वैक्रियिक शरीर का देवों की अपेक्षा मूलवैक्रियिक का जघन्य काल अपर्याप्तकाल के अन्तर्मुहूर्त से कम दस हजार वर्ष प्रमाण है। उत्कृष्ट अपर्याप्तकालीन अन्तर्मुहूर्त से कम तेतीस सागर है। उत्तर वैक्रियिक का जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। तीर्थङ्करों के जन्मोत्सव, नन्दीश्वरपूजा आदि के समय अन्तर्मुहुर्त के बाद नए-नए उत्तरवैक्रियिक शरीर उत्पन्न होते जाते हैं। आहारक का जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही काल अन्तर्मुहूर्त है। तेजस और कार्मण शरीर अभव्य और दूरभव्यों की दृष्टि से सन्तान की अपेक्षा अनादि अनन्त हैं। भव्यों की दृष्टि से अनादि और सान्त है । निषेक की दृष्टि से एक समयमात्र काल है। तेजस शरीर की उत्कृष्ट निषेक स्थिति छयासठ सागर और कार्मण शरीर की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है। अन्तर - औदारिक शरीर का जघन्य अन्तर अन्तर्महूर्त है। उत्कृष्ट अपर्याप्तिकाल के अन्तर्मुहूर्त से अधिक तेंतीस सागर है। वैक्रियिक शरीर का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है । आहारक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट से अन्तमुहूर्त कम अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल प्रमाण है। तेजस और कार्मण शरीर का अन्तर नहीं है। संख्या - औदारिक असंख्यात लोक प्रमाण हैं। वैक्रियिक असंख्यात श्रेणी और लोकप्रतर का असंख्यातवाँ भाग हैं । आहारक 54 हैं । तैजस और कार्मण अनन्त हैं, अनन्तानन्त लोक प्रमाण हैं। प्रदेश - औदारिक के प्रदेश अभव्यों से अनन्तगुणें और सिद्धों के अनन्तभाग प्रमाण हैं। शेष चार के प्रदेश उत्तरोत्तर अधिक अनन्त प्रमाण हैं। भाव - औदारिकादि नाम के उदय से सभी के औदयिकभाव हैं। अल्पबहुत्व - सबसे कम आहारकशरीर हैं, वैक्रियिकशरीर असंख्यातगुणे हैं। असंख्यात श्रेणी वा लोकप्रतर का असंख्यातवां भाग गुणकार है । उससे औदारिक शरीर असंख्यातगुणे हैं। यहां गुणकार असंख्यात लोक हैं। तेजस और कार्मण अनन्तगुणे हैं। यहां गुणकार सिद्धों का अनन्तगुणा है । |