+ नारक और संमूर्च्छिन में लिंग -
नारकसंमूर्च्छिनो नपुंसकानि ॥50॥
अन्वयार्थ : नारक और संमूर्च्छिन नपुंसक होते हैं ॥५०॥
Meaning : The infernal beings and the spontaneously generated are of the neuter sex.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

नरकों का कथन आगे करेंगे। जो नरकों में उत्‍पन्‍न होते हैं वे नारकी कहलाते हैं। जो संमूर्च्‍छन जन्‍मसे पैदा होते हैं वे संमूर्च्छिन कहलाते हैं। सूत्रमें नारक और संमूर्च्छिन इन दोनों पदोंका द्वन्‍द्वसमास है। चारित्रमोहके दो भेद हैं – कषाय और नोकषाय। इनमें-से नोकषाय के भेद नपुंसकवेद के उदयसे और अशुभ नामकर्मके उदयसे उक्‍त जीव स्‍त्री और पुरुष न होकर नपुंसक होते हैं। यहाँ ऐसा नियम जानना कि नारक और संमूर्च्छिन नपुंसक ही होते हैं। इन जीवोंके मनोज्ञ शब्‍द, गन्‍ध, रूप, रस और स्‍पर्शके सम्‍बन्‍धसे उत्‍पन्‍न हुआ स्‍त्री-पुरुष विषयक थोड़ा भी सुख नहीं पाया जाता है।

यदि उक्‍त जीवोंके नपुंसकवेद निश्चित होता है तो यह अर्थात् सिद्ध है कि इनसे इतिरिक्‍त अन्‍य संसारी जीव तीन वेदवाले होते हैं। इसमें भी जिनके नपुंसकवेदका अत्‍यन्‍त अभाव है उनका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
राजवार्तिक :

धर्म आदि चार पुरुषार्थों का नयन करनेवाले 'नर' होते हैं जो इन नरों को शीत उष्ण आदि की वेदनाओं से शब्दाकुलित कर दे वह नरक है। अथवा पापी जीवों को आत्यन्तिक दुःख को प्राप्त करानेवाले नरक हैं। इन नरकों में जन्म लेनेवाले जीव नारक हैं। जो चारों ओर के परमाणुओं से शरीर बनता है वह संमूर्च्छ है इस सम्मूछे से उत्पन्न होनेवाले जीव सम्मूर्छन कहलाते हैं । ये दोनों चारित्रमोहनीय के नपुंसकवेद नोकषाय तथा अशुभ नामकर्म के उदय से न स्त्री और न पुरुष अर्थात् नपुंसक ही होते हैं। इनमें स्त्री और पुरुष सम्बन्धी स्वल्प सुख भी नहीं है ।