
सर्वार्थसिद्धि :
'भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्' इत्यादिक सूत्रोंमें नारक शब्द सुना है इसलिए पूछते हैं कि वे नारकी कौन हैं ? अतः नारकियोंका कथन करनेके लिए उनकी आधारभूत पृथिवियोंका निर्देश करते हैं- 'रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमाः' इनमें सब पदोंका परस्पर द्वन्द्व समास है। प्रभा शब्दको प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। पृथिवियोंकी प्रभा क्रमसे रत्न आदिके समान होनेसे इनके रत्नप्रभा आदि नाम पडे़ हैं। यथा - जिसकी प्रभा चित्र आदि रत्नोंकी प्रभाके समान है वह रत्नप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा शर्कराके समान है वह शर्कराप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा वालुकाकी प्रभाके समान है वह वालुकाप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा कीचड़के समान है वह पंकप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा धुँवाके समान है वह धूमप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा अन्धकारके समान है वह तमःप्रभा भूमि है और जिसकी प्रभा गाढ अन्धकारके समान है वह महातमःप्रभा भूमि है। इस प्रकार इन नामोंकी व्युत्पत्ति कर लेनी चाहिए। सूत्रमें भूमि पदका ग्रहण अधिकरण विशेषका ज्ञान करानेके लिए किया है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्वर्गपटल भूमिके बिना स्थित है उस प्रकार नारकियोंके निवासस्थान नहीं हैं। किन्तु वे भूमिके आश्रयसे अवस्थित हैं। इन भूमियोंके आलम्बनका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें 'घनाम्बुवात' आदि पद का ग्रहण किया है। अभिप्राय यह है कि ये भूमियाँ क्रमसे घनोदधिवातवलय, घनवातवलय, तनुवातवलय और आकाशके आश्रयसे स्थित हैं इस बातके दिखलानेके लिए सूत्रमें 'घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः' पद दिया है। ये सब भूमियाँ घनोदधिवातवलयके आश्रयसे स्थित हैं। घनोदधिवातवलय घनवातवलयके आधारसे स्थित है। घनवातवलय तनुवातवलयके आश्रयसे स्थित है। तनुवातवलय आकाशके आश्रयसे स्थित है और आकाश स्वयं अपने आधारसे स्थित है; क्योंकि वह आधार और आधेय दोनों है। ये तीनों वातवलय प्रत्येक बीस-बीस हजार योजन मोटे हैं। सूत्रमें 'सप्त' पदका ग्रहण दूसरी संख्या के निराकरण करनेके लिए दिया है। भूमियाँ सात ही हैं, न आठ हैं और न नौ हैं। ये भूमियाँ तिर्यक् रूपसे अवस्थित नहीं हैं। इस बातको दिखानेके लिए सूत्रमें 'अधोऽधः' यह वचन दिया है। क्या इन भूमियोंमें सर्वत्र नारकियोंके निवास-स्थान हैं या कहीं-कहीं, इस बातका निश्चय करनेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं- |
राजवार्तिक :
1-4. रत्न आदि शब्दों का द्वन्द्व समास करके प्रत्येक में प्रभा शब्द जोड़ देना चाहिए, रत्नप्रभा शर्कराप्रभा आदि । जैसे यष्टि सहित देवदत्त को यष्टि कहते हैं उसी तरह चित्र, वज्र, वैडूर्य, लोहित आदि सोलह रत्नों की प्रभा से सहित होने के कारण रत्नप्रभा संज्ञा की गई है। इसी तरह शर्कराप्रभा आदि समझना चाहिए। तम की भी अपनी एक आभा होती है। केवल दीप्ति का नाम ही प्रभा नहीं है किन्तु द्रव्यों का जो अपना विशेष-विशेष सलोनापन होता है, उसी से कहा जाता है कि यह स्निग्ध कृष्ण प्रभावाला है, यह रूक्ष कृष्ण प्रभावाला। 5-6. जैसे मखमली कीड़े की 'इन्द्रगोप' संज्ञा रूढ़ है, इसमें व्युत्पत्ति अपेक्षित नहीं है उसी तरह तमःप्रभा आदि संज्ञाएँ अनादि पारिणामि की रूढ़ समझनी चाहिए। यद्यपि ये रूढ शब्द हैं फिर भी ये अपने प्रतिनियत अर्थों को कहते हैं। 7-8. जिस प्रकार स्वर्गपटल भूमिका आधार लिए बिना ही ऊपर-ऊपर हैं उस प्रकार नरक नहीं है किन्तु भूमियों में है। इन
13-14. श्वेताम्बर सूत्रपाठ में 'पृथुतराः' यह पाठ है किन्तु जब तक कोई 'पृथु' सामने न हो तब तक किसी को 'पृथुतर' कैसे कहा जा सकता है ? दो में से किसी एक में अतिशय दिखाने के लिए 'तर' का प्रयोग होता है, खासकर रत्नप्रभा में तो 'पृथुतर' प्रयोग हो ही नहीं सकता; क्योंकि कोई इससे पहिले की भूमि ही नहीं हैं। नीचे-नीचे की पृथिवियाँ उत्तरोत्तर हीन परिमाणवाली हैं, अतः उनमें भी 'पृथुतरा' प्रयोग नहीं किया जा सकता। अधोलोक का आकार वेत्रासन के समान नीचे-नीचे पृथु होता गया है, अतः इसकी अपेक्षा 'पृथुतर' प्रयोग की उपपत्ति किसी तरह बैठ भी जाय तो भी इससे भूमियों के आजू-बाजू बाहर पृथुत्व आयगा न कि नरकभूमियों में। कहा है - "स्वयम्भूरमण समुद्र के अन्त से यदि सीधी रस्सी डाली जाय तो वह सातवीं नरकभूमि के काल महाकाल रौरव महारौरव के अन्त में जाकर गिरती है"। यदि कथञ्चित् 'पृथुतराः' पाठ बैठाना भी हो तो 'तिर्यक् पृथुतराः' कहना चाहिए, न कि 'अधोऽधः' । अथवा नीचे-नीचे के नरकों में चूंकि दुःख अधिक है आयु भी बड़ी है अतः इनकी अपेक्षा भूमियों में भी 'पृथुतरा' व्यवहार यथाकथंचित् किया जा सकता है। फिर भी रत्नप्रभा में 'पृथुतरा' व्यवहार किसी भी तरह नहीं बन सकेगा। |