
सर्वार्थसिद्धि :
लेश्यादिकका पहले व्याख्यान कर आये हैं। 'अशुभतर' इस पदके द्वारा तिर्यंचगतिमें प्राप्त होनेवाली अशुभ लेश्या आदिककी अपेक्षा और नीचे-नीचे अपनी गतिकी अपेक्षा लेश्यादिककी प्रकर्षता बतलायी है। अर्थात् तिर्यंचोंमें जो लेश्यादिक हैं उनसे प्रथम नरकके नारकियोंके अधिक अशुभ हैं आदि। नित्य शब्द आभीक्ष्ण्य अर्थात् निरन्तरवाची है। तात्पर्य यह है कि नारकियोंकी लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया निरन्तर अशुभ होते हैं। यथा, प्रथम और दूसरी पृथिवीमें कापोत लेश्या है। तीसरी पृथिवीमें ऊपरके भागमें कापोत लेश्या है और नीचेके भागमें नील लेश्या है। चौथी पृथिवीमें नील लेश्या है। पाँचवीं पृथिवीमें ऊपरके भागमें नील लेश्या है और नीचेके भागमें कृष्ण लेश्या है। छठी पृथिवीमें कृष्ण लेश्या है। और सातवीं पृथिवीमें परम कृष्ण लेश्या है। द्रव्य लेश्याएँ अपनी आयु तक एक सी कही गयी हैं। किन्तु भावलेश्याएँ अन्तर्मुहूर्तमें बदलती रहती हैं। परिणाम से यहाँ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द लिये गये हैं। ये क्षेत्रविशेषके निमित्तसे अत्यन्त दुःखके कारण अशुभतर हैं। नारकियोंके शरीर अशुभ नामकर्मके उदयसे होनेके कारण उत्तरोत्तर अशुभ हैं। उनकी विकृत आकृति है, हुंड संस्थान है और देखनेमें बुरे लगते हैं। उनकी ऊँचाई प्रथम पृथिवीमें सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है। तथा नीचे-नीचे प्रत्येक पृथिवीमें वह दूनी-दूनी है। नारकियोंके अभ्यन्तर कारण असाता वेदनीयका उदय रहते हुए अनादिकालीन शीत और उष्णरूप बाह्य निमित्तसे उत्पन्न हुई तीव्र वेदना होती है। पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी पृथिवीमें मात्र उष्ण वेदनावाले नरक हैं। पाँचवीं पृथिवीमें ऊपरके दो लाख नरक ऊष्ण वेदनावाले हैं। और नीचेके एक लाख नरक शीत वेदनावाले हैं। तथा छठी और सातवीं पृथिवी के नरक शीत वेदनावाले ही हैं। नारकी 'शुभ विक्रिया करेंगे' ऐसा विचार करते हैं पर उत्तरोत्तर अशुभ विक्रिया को ही करते हैं। 'सुखकर हेतुओंको उत्पन्न करेंगे' ऐसा विचार करते हैं, परन्तु वे दुःखकर हेतुओंको ही उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार ये भाव नीचे-नीचे अशुभतर जानने चाहिए। क्या इन नारकियोंके शीतोष्णजनित ही दुःख है या दूसरे प्रकारका भी दुःख है, इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं- |
राजवार्तिक :
1-3 तिर्यञ्चों की अपेक्षा अथवा ऊपर के नरकों की अपेक्षा नीचे नरकों में लेश्या आदि अशुभतर होते हैं। 4 जैसे 'नित्यप्रहसितो देवदत्तः - देवदत्त नित्य हंसता है' यहाँ नित्य शब्द बहुधा अर्थ में है अर्थात् निमित्त मिलनेपर देवदत्त जरूर हंसता है उसी तरह नारकी भी निमित्त मिलने पर अवश्य ही अशुभतर लेश्यावाले होते हैं। यहाँ नित्य का अर्थ शाश्वत या कूटस्थ नहीं है। अतः लेश्या की अनिवृत्ति का प्रसंग नहीं होता।
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