+ सात क्षेत्र -
भरतहैमवत-हरि-विदेह-रम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि॥10॥
अन्वयार्थ : भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्‍यकवर्ष, हैरण्‍यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात क्षेत्र हैं ॥१०॥
Meaning : Bharata, Haimavata, Hari, Videha, Ramyaka, Hairaòyavata, and Airâvata are the seven regions.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

क्षेत्रोंकी भर‍त आदि संज्ञाएँ अनादिकालसे चली आ रही हैं और अनिमित्तक हैं। इनमें-से भरत क्षेत्र कहाँ स्थित है ? हिमवान् पर्वतके दक्षिणमें और तीन समुद्रोंके बीचमें चढे़ हुए धनुषके आकारवाला भरत क्षेत्र है जो विजयार्ध और गंगा-सिन्‍धुसे विभाजित होकर छह खण्‍डोंमें बटा हुआ है। क्षुद्र हिमवान् के उत्तरमें और महाहिमवान के दक्षिणमें त‍था पूर्व-पश्चिम समुद्रके बीचमें हैमवत क्षेत्र है। निषधके दक्षिणमें और महाहिमवान् के उत्तरमें तथा पूर्व और पश्चिम समुद्रके बीचमें हरिक्षेत्र है। निषधके उत्तरमें और नीलके दक्षिणमें तथा पूर्व और पश्चिम समुद्रके बीचमें हरिक्षेत्र है। नीलके उत्तरमें और रुक्‍मीके दक्षिणमें तथा पूर्व पश्चिम समुद्रके बीचमें रम्‍यक क्षेत्र है। रुक्‍मीके उत्तरमें और शिखरीके दक्षिणमें तथा पूर्व और पश्चिम समुद्रके बीचमें हैरण्‍यवत क्षेत्र है। शिखरीके उत्तरमें और तीन समुद्रोंके बीचमें ऐरावत क्षेत्र है जो विजयार्द्ध और रक्‍ता रक्‍तोदा से विभाजित होकर छह खण्‍डोंमें बँटा हुआ है।

कुलपर्वत छह हैं य‍ह पहले कह आये हैं, परन्‍तु कौन हैं और कहाँ स्थित हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
राजवार्तिक :

1. विजया से दक्षिण, समुद्र से उत्तर और गंगा सिन्धु नदियों के मध्य भाग में 12 योजन लम्बी 9 योजन चौड़ी विनीता नाम की नगरी थी। उसमें भरत नाम का षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती हुआ था। उसने सर्वप्रथम राजविभाग करके इस क्षेत्र का शासन किया था अतः इसका नाम भरत पड़ा।

2. अथवा, जैसे संसार अनादि है उसी तरह क्षेत्र आदि के नाम भी बिना किसी कारण के स्वाभाविक अनादि हैं।

3. तीन ओर समुद्र और एक ओर हिमवान् पर्वत के बीच में भरतक्षेत्र है। इसके गंगा सिन्धु और विजयार्द्ध पर्वत से विभक्त होकर छह खंड हो जाते हैं।

4. चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र की आधी सीमा इस पर्वत से निर्धारित होती है। अतः इसे विजया कहते हैं। यह 50 योजन विस्तृत 25 योजन ऊँचा 6 1/4 योजन गहरा है और अपने दोनों छोरों से पूर्व और पश्चिम के समुद्र को स्पर्श करता है। इसके दोनों ओर आधा योजन चौड़े और पर्वत बराबर लंबे वनखंड हैं । ये वन आधी योजन ऊंची, पांच सौ धनुष चौड़ी और वन बराबर लंबी वेदिकाओं से घिरे हुए हैं। इस पर्वत में तमिस्र और खण्डप्रपात नाम की दो गुफाएँ हैं। ये गुफाएँ उत्तर दक्षिण 50 योजन लंबी पूर्व-पश्चिम 12 योजन चौड़ी हैं। इसके उत्तर दक्षिण दिशाओं में 8 योजन ऊँचे दरवाजे हैं। इनमें 61 योजन चौड़े एक कोश मोटे और आठ योजन ऊँचे वज्रमय किवाड़ लगे हैं। इनसे चक्रवर्ती उत्तरभरत विजयार्ध को जाता है। इन्हीं से गंगा और सिन्धु निकली है। इनमें विजयार्द्ध से निकली हुई उन्मग्नजला और निमग्नजला दो नदियाँ मिलती हैं। इसी पहाड़ की तलहटी में भूमितल से दस योजन ऊपर दोनों ओर दस योजन चौड़ी और पर्वत बराबर लम्बी विद्याधर श्रेणियां हैं। दक्षिण श्रेणी में रथनूपुर चक्रवाल आदि 50 विद्याधरनगर हैं। उत्तर श्रेणी में गगनवल्लभ आदि 60 विद्याधर नगर हैं। यहाँ के निवासी भी यद्यपि भरतक्षेत्र की तरह षटकर्म से ही आजीविका करते हैं, किन्तु प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं को धारण करने के कारण विद्याधर कहे जाते हैं। इनसे दश योजन ऊपर दोनों ओर दश योजन विस्तृत व्यन्तर श्रेणियाँ हैं। इनमें इन्द्र के सोम, यम, वरुण और वैश्रवण ये चार लोकपाल तथा आभियोग्य व्यन्तरों का निवास है। इससे पाँच योजन ऊपर दश योजन विस्तृत शिखरतल है। पूर्वदिशा में 6 योजन और एक कोस ऊंचा तथा इतना ही विस्तृत, वेदिका से वेष्टित सिद्धायतनकूट है। इसपर उत्तर दक्षिण लंबा, पूर्व-पश्चिम चौड़ा, एक कोस लंबा, आधा कोस चौड़ा कुछ कम एक कोस ऊंचा, वेदिका से वेष्टित, चतुर्दिक द्वारवाला सुन्दर जिनमन्दिर है । इसके बाद दक्षिणार्ध भरतकूट, खण्डकप्रपातकूट, माणिकभद्रकूट, विजयार्धकूट, पूर्णभद्रकूट, तमिस्रगुहाकूट, उत्तरार्धभरतकूट और वैश्रवणकूट ये आठ कूट सिद्धायतनकूट के समान लंबे-चौड़े-ऊंचे हैं। इनके ऊपर क्रमशः दक्षिणार्धभरतदेव, वृत्तमाल्यदेव, माणिभद्रदेव, विजयागिरिकुमारदेव, पूर्णभद्रदेव, कृतमालदेव, उत्तरार्धभरतदेव और वैश्रवणदेवों के प्रासाद हैं।

5-7. हिमवान् नाम के पर्वत के पास का क्षेत्र, या जिसमें हिमवान् पर्वत है वह हैमवत है । यह क्षुद्रहिमवान् और महाहिमवान् तथा पूर्वापर समुद्रों के बीच में है। इसके बीच में शब्दवान् नाम का वृत्तवेदाढ्य पर्वत है। यह एक हजार योजन ऊंचा, 250 योजन जड़ में, ऊपर और मूल में एक हजार योजन विस्तारवाला है। इसके चारों ओर आधा योजन विस्तारवाली तथा चतुर्दिक द्वारवाली वेदिका है। उसके तल में 623 योजन ऊंचा 313 योजन विस्तृत स्वातिदेव का विहार है।

8-10. हरि अर्थात् सिंह के समान शुक्ल रूपवाले मनुष्य इसमें रहते हैं अतः यह हरिवर्ष कहलाता है । यह निषध से दक्षिण महाहिमवान् से उत्तर और पूर्वापर समुद्रों के मध्य में है । इसके बीच में विकृतवान् नाम का वृत्तवेदाढ्य है । इसपर अरुणदेव का विहार है।

11-12. निषध से उत्तर नील पर्वत से दक्षिण और पूर्वापर समुद्रों के मध्य में विदेह-क्षेत्र है। इसमें रहनेवाले मनुष्य सदा विदेह अर्थात् कर्मबन्धोच्छेद के लिए यत्न करते रहते हैं इसलिए इस क्षेत्र को विदेह-क्षेत्र कहते हैं। यहाँ कभी भी धर्म का उच्छेद नहीं होता।

13. यह पूर्वविदेह, अपरविदेह, उत्तरकुरु और देवकुरु इन चार भागों में विभाजित है। भरतक्षेत्र के दिग्विभाग की अपेक्षा मेरु के पूर्व में पूर्वविदेह, उत्तर में उत्तर कुरु, पश्चिम में अपर विदेह और दक्षिण में देवकुरु है। विदेह के मध्यभाग में मेरु पर्वत है। उसकी चारों दिशाओं में चार वक्षार पर्वत हैं। सीतानदी के पूर्व की ओर जम्बूवृक्ष है। उसके पूर्व दिशा की शाखा पर वर्तमान प्रासाद में जम्बूद्वीपाधिपति अनावृत नाम का व्यन्तरेश्वर रहता है । तथा अन्य दिशाओं में उसके परिवार का निवास है। नील की दक्षिण दिशा में एक हजार योजन तिरछे जाने पर सीतानदी के दोनों तटों पर दो यमकाद्रि हैं । सीतानदी से पूर्वविदेह के दो भाग हो जाते हैं - उत्तर और दक्षिण । उत्तरभाग चार वक्षार पर्वत और तीन विभंग नदियों से बंट जाता है और ये आठों भूखण्ड आठ चक्रवतियों के उपभोग्य होते हैं। कच्छ, सुकच्छ, महाकच्छ, कच्छक, कच्छकावर्त, लांगलावर्त, पुष्कल और पुष्कलावर्त ये उन देशों के नाम हैं। उनमें क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपरी, खड़गा, मंजूषा, ओषधि और पुण्डरीकिणी ये आठ राजनगरियाँ हैं। कच्छदेश में पूर्व पश्चिम लंबा विजयार्ध पर्वत है। वह गंगा सिन्धु और विजया से बंटकर छह खंड को प्राप्त हो जाता है। इसी तरह दक्षिण पूर्वविदेह भी चार वक्षार और तीन विभंग नदियों से विभाजित होकर आठ चक्रवर्तियों के उपभोग्य होता है । वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सावती, रम्या, रम्यका, रमणीया और मंगलावती ये आठ देशों के नाम हैं। इसी तरह अपर विदेह भी उत्तर-दक्षिण विभक्त होकर आठ-आठ देशों में विभाजित होकर आठ-आठ चक्रवर्तियों के उपभोग्य होता है। विदेह के मध्य में मेरु पर्वत है। यह 99 हजार योजन ऊंचा, पृथिवीतल में एक हजार योजन नीचे गया है । इसके ऊपर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पांडुक ये चार वन हैं। पांडुक-वन में बीचोंबीच मेरु की शिखर प्रारम्भ होती है । उस शिखर की पूर्व दिशा में पांडुक शिला, दक्षिण में पाण्डुकम्बल शिला, पश्चिम में रक्तकम्बल शिला और उत्तर में अतिरक्त कम्बल नाम की शिला हैं। उनपर पूर्वमुख सिंहासन रखे हुए हैं। पूर्व सिंहासनपर पूर्वविदेह के तीर्थङ्करों का, दक्षिण के सिंहासन पर भरतक्षेत्र के तीर्थङ्करों का, पश्चिम में अपर विदेह के तीर्थङ्करों का और उत्तर में ऐरावत के तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक देवगण करते हैं। यह मेरु-पर्वत तीनों-लोकों का मानदंड है । इसके नीचे अधोलोक, चूलिका के ऊपर ऊर्ध्वलोक है और मध्य में तिरछा फैला हुआ मध्यलोक है । इत्यादि विदेह क्षेत्र का विस्तृत वर्णन मूल-ग्रन्थ से जान लेना चाहिए।

14-16. नील पर्वत के उत्तर रुक्मि पर्वत के दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम समुद्रों के बीच रम्यक क्षेत्र है। रमणीय देश नदी-पर्वतादि से युक्त होने के कारण इसे रम्यक कहते हैं। वैसे 'रम्यक' नाम रूढ़ ही है । रम्यक क्षेत्र के मध्य में गन्धवान् नामक वृत्तवेदाढ्य है। यह शब्दवान् वृत्तवेदाढ्य के समान लम्बा-चौड़ा है। इसपर पमदेव का निवास है।

17-19. रुक्मि के उत्तर शिखरी के दक्षिण तथा पूर्व पश्चिम समुद्रों के बीच हैरण्यवत-क्षेत्र है। हिरण्यवाले रुक्मि पर्वत के पास होने से इसका नाम हैरण्यवत पड़ा है। इसमें शब्दवान् वृत्तवेदाढ्य की तरह माल्यवान् वृत्तवेदाढ्य है। इसपर प्रभासदेव का निवास है।

20-22. शिखरी पर्वत तथा पूर्व-पश्चिम और दक्षिण-उत्तर समुद्रों के बीच ऐरावत क्षेत्र है। रक्ता तथा रक्तोदा नदियों के बीच अयोध्या नगरी है। इसमें एक ऐरावत नाम का राजा हुआ था। उसके कारण इस क्षेत्र का ऐरावत नाम पड़ा है। इसके बीच में विजया पर्वत है।