
सर्वार्थसिद्धि :
इन पर्वतोंका स्वभाव उन क्षेत्रोंका विभाग करना है, इसलिए इन्हें उनका विभाग करनेवाला कहा है। ये पूर्वसे पश्चिम तक लम्बे हैं। इसका यह भाव है कि इन्होंने अपने पूर्व और पश्चिम सिरेसे लवण समुद्रको स्पर्श किया है। ये हिमवान् आदि संज्ञाएँ अनादि कालसे चली आ रही हैं और बिना निमित्तकी हैं। इन पर्वतोंके कारण क्षेत्रोंका विभाग होता है इसलिए इन्हें वर्षधर पर्वत कहते हैं। हिमवान् पर्वत कहाँ है अब इसे बतलाते हैं- भरत और हैमवत क्षेत्र की सीमापर हिमवान् पर्वत स्थित है। इसे क्षुद्र हिमवान् भी कहते हैं। यह सौ योजन ऊँचा है। हैमवत और हरिवर्षका विभाग करनेवाला महाहिमवान् है। यह दो सौ योजन ऊँचा है। विदेहके दक्षिणमें और हरिवर्षके उत्तरमें निषध पर्वत है। यह चार सौ योजन ऊँचा है। इसी प्रकार आगेके तीन पर्वत भी अपने-अपने क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले जानने चाहिए। उनकी ऊँचाई क्रमशः चार सौ, दो सौ और सौ योजन जाननी चाहिए। इन सब पर्वतोंकी जड़ अपनी ऊँचाईका एक-चौथाई भाग है। अब इन पर्वतोंके वर्णविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं- |
राजवार्तिक :
1-2 हिम जिसमें पाया जाय वह हिमवान् । चूंकि सभी पर्वतों में हिम पाया जाता है अतः रूढि से ही इसकी हिमवान् संज्ञा समझनी चाहिए। यह भरत और हैमवत क्षेत्र की सीमापर स्थित है। इसे क्षुद्रहिमवान् कहते हैं। यह 25 योजन पृथ्वी के नीचे, 100 योजन ऊंचा 105211 योजन विस्तृत है। इसके ऊपर पूर्व दिशा में सिद्धायतन कूट है। पश्चिम दिशा में हिमवत्, भरत, इला, गंगा, श्री, रोहितास्या, सिन्धु, सुरा, हैमवत् और वैश्रवण ये दश कूट हैं इन सब पर चैत्यालय और प्रासाद हैं। इनमें हिमवत्, भरत, हैमवत् और वैश्रवण कूट पर इन्हीं नामवाले देव तथा शेष कूटों पर उसी नामवाली देवियाँ रहती हैं। 3-4. महाहिमवान् संज्ञा रूढ़ि से है। यह हैमवत और हरिवर्ष का विभाग करनेवाला है । 50 योजन गहरा 200 योजन ऊंचा और 421016 योजन विस्तृत है। इसपर सिद्धायतन महाहिमवत्, हैमवत्, रोहित्, हरि, हरिकान्ता, हरिवर्ष और वैडूर्य ये आठ कुट है। कूटों में चैत्यालय और प्रासाद है। प्रासादों में कूट के नामवाले देव और देवियाँ निवास करती हैं। 5-6. जिसपर देव और देवियाँ क्रीड़ा करें वह निषध । यह संज्ञा रूढ है। यह हरि और विदेह क्षेत्र की सीमा पर है। यह 100 योजन गहरा 400 योजन ऊंचा और 1684212 योजन विस्तृत है । इस पर सिद्धायतन, निषध, हरिवर्ष, पूर्वविदेह, हरि, घृति, सीतोदा, अपरविदेह और रुचक नाम के नव कूट हैं । कूटों पर चैत्यालय और देवप्रासाद हैं। इनमें कूटों के नामवाले देव और देवियाँ रहती है। 7-8 नीलवर्ण होने के कारण इसे नील कहते हैं। वासुदेव की कृष्ण संज्ञा की तरह यह संज्ञा है। यह विदेह और रम्यक क्षेत्र की सीमा पर स्थित है। इसका विस्तार आदि निषध के समान है। इस पर सिद्धायतन, नील, पूर्वविदेह, सीता, कीर्ति, नरकान्ता, अपरविदेह, रम्यक और आदर्शक ये नव कूट हैं। इन पर चैत्यालय और प्रासाद हैं। प्रासादों में अपने कूटों के नाम वाले देव और देवियों रहती हैं। 9-10. चाँदी जिसमें पाई जाय वह रुक्मी । यह रूढ संज्ञा है जैसे कि हाथी की करि संज्ञा। यह रम्यक और हैरण्यवत क्षेत्र का विभाग करता है। इसका विस्तार आदि महा हिमवान् के समान है। इस पर सिद्धायतन, रुक्मि, रम्यक, नारी, बुद्धि, रूप्यकूला, हैरण्यवत और मणिकांचन ये आठ कूट हैं। इनपर जिन-मन्दिर और प्रासाद हैं। प्रासादों में अपने कूट के नामवाले देव और देवियाँ रहती हैं। 11-12. जिसके शिखर हों यह शिखरी । यह रूढ संज्ञा है जैसे कि मोर की शिखंडी संज्ञा। यह हैरण्यवत और ऐरावत की सीमा पर पुल के समान स्थित है। इसका विस्तार आदि हिमवान् के समान है । इसपर सिद्धायतन, शिखरी, हैरण्यवत, रसदेवी, रक्तावती, श्लक्ष्णकूला, लक्ष्मी, गन्धदेवी, ऐरावत और मणिकांचन ये 11 कूट हैं। इनपर जिनायतन और प्रासाद हैं। प्रासादों में अपने कूट के नामवाले देव और देवियाँ रहती हैं। |