+ भवनवासी देवों के प्रकार -
भवन-वासिनोऽसुरनाग-विद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि-द्वीप-दिक्कुमारा: ॥10॥
अन्वयार्थ : भवनवासी देव दस प्रकार के हैं - असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्‍कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्‍तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्‍कुमार ॥१०॥
Meaning : The Residential devas comprise Asura, Nâga, Vidyut, Suparòa, Agni, Vâta, Stanita, Udadhi, Dvîpa and Dikkumâras.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

जिनका स्‍वाभव भवनों में निवास करना है वे भवनवासी कहे जाते हैं। प्रथम निकाय की यह सामान्‍य संज्ञा है। तथा असुरादिक विशेष संज्ञाएँ हैं जो विशिष्ट नाम कर्म के उदय से प्राप्‍त होती हैं। यद्यपि इन सब देवों का वय और स्‍वभाव अवस्थित है तो भी इनके वेष, भूषा, शस्‍त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है इसलिए सब भवनवासियों में कुमार शब्‍द रूढ़ है। यह कुमार शब्‍द प्रत्‍येक के साथ जोड लेना चाहिए । यथा असुर-कुमार आदि ।

शंका – इनके भवन कहाँ है ?

समाधान –
रत्‍नप्रभा के पंकबहुल भाग में असुरकुमारों के भवन हैं। और खर पृथिवीभाग में ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोडकर शेष नौ प्रकार के कुमारों के भवन हैं।

अब दूसरे निकाय की समान्‍य और विशेष संज्ञा के निश्‍चय करने के लिए आगे का सूत्र कहते है -
राजवार्तिक :

1-3. भवनों में रहने के कारण ये भवनवासी कहे जाते हैं । असुर आदि उनके भेद हैं । ये भेद नामकर्म के कारण हैं।

4-6. 'देवों के साथ असुर का युद्ध होता था अतः ये असुर कहलाते हैं' यह देवों का अवर्णवाद मिथ्यात्व के कारण किया जाता है । क्योंकि सौधर्मादि स्वर्गों के देव महा प्रभावशाली हैं, वे सदा जिनपूजा आदि शुभकार्यों में लगे रहते हैं, उनमें स्त्रीहरण आदि निमित्तों से वैर की संभावना ही नहीं है अत: अल्पप्रभाव वाले असुरों से युद्ध की कल्पना ही व्यर्थ है।

7-8. ये सदा कुमारों की तरह वेषभूषा तथा यौवनक्रीडाओं में लगे रहते हैं अतः कुमार कहलाते हैं। कुमार शब्द का सम्बन्ध प्रत्येक के साथ है - असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार आदि।
  • इस जम्बूद्वीप से तिरछे असंख्यात द्वीपसमुद्रों के बाद पंक बहुल भाग में चमर नाम के असुरेन्द्र के 34 लाख भवन है । इस दक्षिणाधिपति के 64 हजार सामानिक, 33 त्रायस्त्रिंश, तीन परिषत्, सात अनीक, चार लोकपाल, पाँच अग्रमहिषी, 4034 आत्मरक्ष यह विभव परिवार है। उत्तरदिशा में वैरोचन के तीस लाख भवन है। इसके 60 हजार सामानिक, 33 त्रायस्त्रिंश, 3 परिषत्, 7 अनीक, 4 लोकपाल, 5 अग्रमहिषी, 4064 आत्मरक्ष यह विभव परिवार है । कुल मिलाकर पंकबहुल भाग में 64 लाख भवन हैं। खर पृथिवी भाग के ऊपर नीचे एक एक हजार योजन छोड़कर शेष भाग में शेष नव कुमारों के भवन हैं ।
  • इस जम्बूद्वीप से तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों के बाद धरण नागराज के 44 लाख भवन हैं। इसके 60 हजार सामानिक, 33 त्रायस्त्रिंश, तीन परिषत् , सात अनीक, चार लोकपाल, छह अग्रमहिषी, छह हजार आत्मरक्ष हैं। इस जम्बूद्वीप से तिरछे उत्तर की ओर असंख्यात द्वीप-समुद्रों के बाद भूतानन्द नागेन्द्र के 40 लाख भवन हैं । इसका विभव धरणेन्द्र के समान है। इस तरह नागकुमारों के 84 लाख भवन हैं।
  • सुवर्णकुमारों के 72 लाख भवन हैं। इसमें दक्षिणदिशाधिपति वेणुदेव के 38 लाख और उत्तराधिपति वेणुधारी के 34 लाख हैं। विभव धरणेन्द्र के समान है।
  • विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार इन प्रत्येक के 76 लाख भवन हैं। इनमें दक्षिणेन्द्र हरिसिंह, अग्निशिख, सुघोष, जलकान्त, पूर्ण और अमितगति इन प्रत्येक के 40 लाख भवन हैं। हरिकान्त, अग्निमाणव, महाघोष, जलप्रभ, शिष्ट और अमितवाहन इन प्रत्येक उत्तरेन्द्र के 36 लाख भवन हैं। वातकुमारों के 96 लाख भवन हैं। इनमें दक्षिणेन्द्र वैलम्ब के 50 हजार भवन हैं। और उत्तराधिपति प्रभजन के 46 लाख भवन हैं। इस तरह कुल मिलाकर सात करोड 72 लाख भवन हैं ।