+ ज्‍योतिषी देवों में गति -
मेरु-प्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥13॥
अन्वयार्थ : ज्‍योतिषी देव मनुष्‍यलोक में मेरू की प्रदक्षिणा करते हैं और निरन्‍तर गतिशील हैं ॥१३॥
Meaning : In the human region they are characterized by incessant motion around Meru.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

'मेरूप्रदक्षिणा' इस पद में षष्‍ठी तत्‍पुरूष समास है। 'मेरूप्रदक्षिणा' यह वचन गतिविशेष का ज्ञान करने के लिए और कोई विपरीत गति न समझ बैठे इसके लिए दिया है। वे निरन्तर गतिरूप क्रिया युक्‍त हैं इस बात का ज्ञान कराने के लिए 'नित्‍यगतय' पद दिया है। इस प्रकार के ज्‍योतिषी देवों का क्षेत्र बताने के लिए 'नृलोक' पद का ग्रहण किया है। तात्‍पर्य यह है कि ढाई द्वीप और दो समुद्रों में ज्‍योतिषी देव निरन्‍तर गमन करते रहते हैं अन्‍यत्र नहीं।

शंका – ज्‍योतिषी देवों के विमानों की गति का कारण नहीं पाया जाता अत: उनका गमन नहीं बन सकता ?

समाधान –
नहीं, क्‍योंकि यह हेतु असिद्ध है। बात यह है कि गमन करने में रत जो अभियोग जाति के देव हैं उनसे प्रेरित होकर देवों के विमानों का गमन होता रहता है। यदि कहा जाए कि अभियोग्‍य जाति के देव निरन्‍तर गति में ही क्‍यों रत रहते हैं तो उसका उत्‍तर यह है कि यह कर्म के परिपाक की विचित्रता है। उनका कर्म गतिरूप से ही फलता है। यही कारण है कि वे निरन्‍तर गमन करने में ही रत रहते हैं। यद्यपि ज्‍योतिषी देव मेरूपर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं तो भी मेरूपर्वत से ग्यारह सौ इक्‍कीस योजन दूर रह कर ही विचरण करते हैं।



अब गमन करने वाले ज्‍योतिषियों के सम्‍बन्‍ध से व्यवहार-काल का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -
राजवार्तिक :

1. अन्य प्रकार की गति की निवृत्ति के लिए 'मेरुप्रदक्षिणा' शब्द दिया है।

2-3. यद्यपि गति प्रतिक्षण भिन्न होने के कारण अनित्य है फिर भी सतत गति की सूचना के लिए 'नित्य' पद दिया है । तात्पर्य यह कि वे सदा चलते हैं कभी रुकते नहीं। गति भी द्रव्यदृष्टि से नित्य होती है क्योंकि सभी पदार्थ द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य इस तरह अनेकान्तरूप हैं।

4. 'नृलोक' ग्रहण सूचित करता है कि ढाई-द्वीप के ज्योतिषी नित्यगतिवाले हैं, बाहर के नहीं। गतिपरिणत आभियोग्य जाति के देवों द्वारा इनके विमान ढोए जाते हैं अतः वे नित्यगतिक हैं। इन देवों के ऐसे ही कर्म का उदय है जिससे इन्हें विमानों को वहन करके ही अपना कर्मफल भोगना पड़ता है। ये मेरु पर्वत से 11 सौ योजन दूर घूमते हैं।
  • जम्बूद्वीप में 2 सूर्य, 2 चन्द्र, 56 नक्षत्र, 176 ग्रह, एक कोडाकोड़ी लाख 33 कोडाकोडी हजार 9 कोडाकाडी सैकड़ा 50 कोडाकोड़ी तारागण हैं।
  • लवण समुद्र में 4 सूर्य, 4 चन्द्र, 112 नक्षत्र, 352 ग्रह, 2 कोडाकोडी लाख 67 कोडाकोड़ी हजार 9 सौ कोडाकोड़ी तारा है।
  • धातकीखण्ड में 12 सूर्य, 12 चन्द्र, 336 नक्षत्र, 1056 ग्रह, आठ लाख कोड़ाकोड़ी 37 सौ कोड़ाकोड़ी तारा हैं ।
  • कालोदधि में 42 सूर्य, चन्द्र, 1167 नक्षत्र, 3696 ग्रह, 28 कोड़ाकोड़ी लाख 12 कोड़ाकोड़ी हजार 9 कोडीकोड़ी सैकड़ा 50 कोड़ाकोड़ी तारा है।
  • पुष्करार्ध में 72 सूर्य, 72 चन्द्र, 2016 नक्षत्र, 6336 ग्रह, 48 कोड़ाकोड़ी लाख 22 कोड़ाकोड़ी हजार, दो कोडाकोड़ी सैकड़ा तारा हैं।
  • बाह्य पुष्करार्ध में भी इतने ही ज्योतिष्क देव हैं। पुष्कर समुद्र में इससे चौगुनी संख्या है ।
  • उससे आगे प्रत्येक द्वीप समुद्र में दूनी-दूनी है।
ताराओं का जघन्य अन्तर 17 गव्यूत है, मध्यम 50 गव्यत और उत्कष्ट अन्तर एक हजार योजन है। चन्द्र और सूर्य का जघन्य अन्तर 99640 योजन और उत्कृष्ट अन्तर 100666 योजन है । जम्बूद्वीप आदि में एक-एक चन्द्रमा के 66 हजार कोडाकोड़ी 9 सौ कोडाकोड़ी और 75 कोड़ाकोड़ी तारा, 88 महाग्रह और 28 नक्षत्र हैं। सूर्य के 184 मंडल 80 सौ जम्बूद्वीप के भीतर घुसकर प्रकाशित करते हैं । इनमें 65 आभ्यन्तर मंडल हैं तथा लवणोदधि के भीतर 33 सौ योजन घुसकर प्रकाशित करते हैं । बाह्य मण्डल 119 हैं । एक-एक मण्डल का अन्तर दो-दो योजन है । 2 4891 योजन उदयान्तर है । सबसे भीतरी मण्डल में सूर्य 44820 योजन मेरुपर्वत से दूर सूर्य प्रकाशित होता है । इसका विस्तार 99640 योजन है। इस समय 18 मुहूर्त का दिन होता है। एक मुहूर्त का गतिक्षेत्र 52512960 योजन है। सर्व बाह्य मण्डल में सूर्य 45330 योजन मेरु पर्वत से दूर रहकर प्रकाशित होता है । इसका विस्तार 100660 योजन है। इस समय दिनमान 12 मुहूर्त है। 53051560 योजन मुहूर्त गतिक्षेत्र है । उस समय 3183212 योजन में सूर्य दिखाई देता है।

चन्द्रमण्डल 15 हैं। द्वीप के भीतर पाँच मंडल हैं और समुद्र में दस । 15 मंडलों के 14 अन्तर हैं। एक-एक मंडलान्तर का प्रमाण 353061-47 योजन है। सर्वाभ्यन्तर मंडलको 13725 से भाग देने पर 507344177, शेष रहता है। यह चन्द्रमण्डल की एक मुहूर्त की गति का परिमाण है । सर्व बाह्यमंडल को 13725 से भाग देने पर 512569190 शेष रहता है। यह चन्द्रमंडल की एक मुहूर्त की गति का परिमाण है। 510 योजन सूर्य और चन्द्र का चार क्षेत्र का विस्तार है।