
सर्वार्थसिद्धि :
'मेरूप्रदक्षिणा' इस पद में षष्ठी तत्पुरूष समास है। 'मेरूप्रदक्षिणा' यह वचन गतिविशेष का ज्ञान करने के लिए और कोई विपरीत गति न समझ बैठे इसके लिए दिया है। वे निरन्तर गतिरूप क्रिया युक्त हैं इस बात का ज्ञान कराने के लिए 'नित्यगतय' पद दिया है। इस प्रकार के ज्योतिषी देवों का क्षेत्र बताने के लिए 'नृलोक' पद का ग्रहण किया है। तात्पर्य यह है कि ढाई द्वीप और दो समुद्रों में ज्योतिषी देव निरन्तर गमन करते रहते हैं अन्यत्र नहीं। शंका – ज्योतिषी देवों के विमानों की गति का कारण नहीं पाया जाता अत: उनका गमन नहीं बन सकता ? समाधान – नहीं, क्योंकि यह हेतु असिद्ध है। बात यह है कि गमन करने में रत जो अभियोग जाति के देव हैं उनसे प्रेरित होकर देवों के विमानों का गमन होता रहता है। यदि कहा जाए कि अभियोग्य जाति के देव निरन्तर गति में ही क्यों रत रहते हैं तो उसका उत्तर यह है कि यह कर्म के परिपाक की विचित्रता है। उनका कर्म गतिरूप से ही फलता है। यही कारण है कि वे निरन्तर गमन करने में ही रत रहते हैं। यद्यपि ज्योतिषी देव मेरूपर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं तो भी मेरूपर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर रह कर ही विचरण करते हैं। अब गमन करने वाले ज्योतिषियों के सम्बन्ध से व्यवहार-काल का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1. अन्य प्रकार की गति की निवृत्ति के लिए 'मेरुप्रदक्षिणा' शब्द दिया है। 2-3. यद्यपि गति प्रतिक्षण भिन्न होने के कारण अनित्य है फिर भी सतत गति की सूचना के लिए 'नित्य' पद दिया है । तात्पर्य यह कि वे सदा चलते हैं कभी रुकते नहीं। गति भी द्रव्यदृष्टि से नित्य होती है क्योंकि सभी पदार्थ द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य इस तरह अनेकान्तरूप हैं। 4. 'नृलोक' ग्रहण सूचित करता है कि ढाई-द्वीप के ज्योतिषी नित्यगतिवाले हैं, बाहर के नहीं। गतिपरिणत आभियोग्य जाति के देवों द्वारा इनके विमान ढोए जाते हैं अतः वे नित्यगतिक हैं। इन देवों के ऐसे ही कर्म का उदय है जिससे इन्हें विमानों को वहन करके ही अपना कर्मफल भोगना पड़ता है। ये मेरु पर्वत से 11 सौ योजन दूर घूमते हैं।
चन्द्रमण्डल 15 हैं। द्वीप के भीतर पाँच मंडल हैं और समुद्र में दस । 15 मंडलों के 14 अन्तर हैं। एक-एक मंडलान्तर का प्रमाण 3530⁄61-4⁄7 योजन है। सर्वाभ्यन्तर मंडलको 13725 से भाग देने पर 507344⁄177, शेष रहता है। यह चन्द्रमण्डल की एक मुहूर्त की गति का परिमाण है । सर्व बाह्यमंडल को 13725 से भाग देने पर 512569⁄190 शेष रहता है। यह चन्द्रमंडल की एक मुहूर्त की गति का परिमाण है। 510 योजन सूर्य और चन्द्र का चार क्षेत्र का विस्तार है। |