+ ज्योतिषी-विमान द्वारा काल-की गणना -
तत्कृत: काल विभाग: ॥14॥
अन्वयार्थ : उन (ज्योतिष्क देवों )के द्वारा काल-विभाग होता है ।
Meaning : The divisions of time are caused by these.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

गमन करने वाले ज्‍योतिषी देवों का निर्देश करने के लिए सूत्र में 'तत्' पदका ग्रहण किया है। केवल गति से काल का निर्णय नहीं हो सकता, क्‍योंकि वह पायी नहीं जाती और गति के बिना केवल ज्‍योति से भी काल का निर्णय नहीं हो सकता, क्‍योंकि परिवर्तन के बिना वह सदा एक सी रहेगी। यही कारण है कि यहाँ 'तत्' पद के द्वारा गति वाले ज्‍योतिषियों का निर्देश किया है। काल दो प्रकार का है व्‍यावहारिक काल और मुख्‍य काल। इनमें-से समय और आवलि आदि रूप व्‍यावहारिक काल विभाग गति वाले ज्‍योतिषी देवों के द्वारा किया हुआ है। यह क्रिया विशेष से जाना जाता है और अन्‍य नहीं जानी हुई वस्‍तुओं के जानने का हेतु है। मुख्‍यकाल इससे भिन्‍न है जिसका लक्षण आगे कहने वाले हैं -

विशोषार्थ - मनुष्‍य मानुषोत्‍तर पर्वतके भीतर पाये जाते है। मानुषोत्तर पर्वत के एक ओर से लेकर दूसरी ओर तक कुल विस्‍तार पैंतालीस लाख योजन है। मनुष्‍य इसी क्षेत्रमें पाये जाते हैं इसलिए यह मनुष्‍यलोक कहलाता है। इस लोकमें ज्‍योतिष्‍क सदा भ्रमण किया करते है। इनका भ्रमण मेरू के चारों ओर होता है। मेरू के चारों ओर ग्‍यारहसौ इक्‍कीस योजन तक ज्‍योतिष्‍क मण्‍डल नहीं है। इसके आगे वह आकाश में सर्वत्र बिखरा हुआ है। जम्‍बूद्वीपमें दो सूर्य और दो चन्‍द्र हैं। एक सूर्य जम्‍बूद्वीप की पूरी प्रदिक्षिणा दो दिन-रातमें करता है। इसका चार क्षेत्र जम्‍बूद्धीप मे 180 योजन और लवण समुद्र में 330 48/61 योजन माना गया है। सूर्य के घूमने की कुल गलियां 184 हैं। इनमें यह क्षेत्र विभाजित हो जाता है। एक गली से दूसरी गली में दो योजन का अन्‍तर माना गया है। इसमें सूर्य बिम्‍ब के प्रमाण को मिला देने पर वह 2 48/61 योजन होता है। इतना उदयान्‍तर है। मण्‍डलान्‍तर दो योजन का ही है। चन्‍द्र को पूरी प्रदक्षिणा करने में दो दिन रात से कुछ अधि‍क समय लगता है। चन्‍द्रोदय में न्‍यूनाधिकता इसी से आती है। लवण समुद्रमें चार सूर्य, चार चन्‍द्र, धातकीखण्‍ड में बारह सूर्य, बारह चन्‍द्र, कालोदधि में व्‍यालीस सूर्य, व्‍यालीस चन्‍द्र और पुष्‍करार्ध में बहत्तर सूर्य, बहत्‍तर चन्‍द्र हैं। इस प्रकार ढाई द्वीपमें एक सौ बत्‍तीस सूर्य और एक सौ बत्‍तीस चन्‍द्र हैं। इन दोनों में चन्‍द्र इन्‍द्र और सूर्य प्रतीन्‍द्र है। एक एक चन्‍द्र का परिवार एक सूर्य, अट्ठाईस नक्षत्र, अठासी ग्रह और छयासठ हजार नौ सौ कोडा कोड़ा तारे हैं। इन ज्‍योतिष्‍कों का गमन स्‍वभाव है तो भी आभियोग्‍य देव सूर्य आदिके विमानों को निरन्‍तर ढोया करते हैं। ये देव सिंह, गज, बैल और घोडे़ का आकार धारण किये रहते हैं। सिंहकार देवों का मुख पूर्व दिशा की ओर र‍हता है। तथा गजाकार देवों का मुख दक्षिण दिशा की ओर, वृषभाकार देवों का मुख पश्चिम की ओर और अश्‍वाकार देवोंका मुख उतर दिशा की ओर रहता है।

अव ढाई द्वीपके बाहर ज्‍योतिषियों के अवस्थान का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते है -
राजवार्तिक :

1. 'तत्' शब्द से ज्ञात होता है कि न तो केवल गति से कालविभाग होता है और न केवल ज्योतिषियों से; क्योंकि गतिकी उपलब्धि नहीं होती और ज्योतिषियों में परिवर्तन नहीं होता।

2-4. काल दो प्रकार का है - मुख्य और व्यवहार । समय आवली आदि व्यवहार काल ज्योतिषियों की गति से गिना जाता है। यह क्रियाविशेष से परिच्छिन्न होता है और अन्य पदार्थों के परिच्छेद का कारण होता है।

प्रश्न – सूर्य आदि की गति से पृथक् कोई मुख्य काल नहीं है, क्योंकि उसका अनुमापक लिंग नहीं पाया जाता। कलाओं के समूह को काल कहते हैं। कला अर्थात् क्रिया के भाग। आगम में पाँच ही अस्तिकाय बताए हैं अतः छठवाँ काल कोई पदार्थ नहीं है।

उत्तर –
सूर्यगति आदि में जिस काल का उपचार किया जाता है वही मुख्य काल है। मुख्य के बिना कहीं भी गौण व्यवहार नहीं होता। यदि मुख्य गौ न होती तो बोझा ढोनेवाले में गौण गौ व्यवहार कैसे होता ? अतः काल का गौण व्यवहार ही वर्तना लक्षणवाले मुख्य काल का अस्तित्व सिद्ध करता है। इसीलिए कलाओं के समूह को ही काल नहीं कहते। अस्तिकायों में उन द्रव्यों को गिनाया है जिनमें प्रदेशप्रचय-बहुत प्रदेश पाये जाते हैं। काल एकप्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है। यदि काल की सत्ता ही न होती तो वह द्रव्यों में क्यों गिनाया जाता?