+ ज्योतिष्क देव में स्थिरता -
बहिरवस्थिता: ॥15॥
अन्वयार्थ : मनुष्य लोक के बाहर ज्योतिष्क देव स्थिर हैं, गमन नहीं करते ।
Meaning : They are stationary outside.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

सूत्र में 'बहिः' पद दिया है।

शंका – किससे बाहर ?

समाधान –
मनुष्‍य लोक से बाहर।

शंका – यह कैसे जाना जाता है।

समाधान –
पिछले सूत्र में नृलोके पद आया है। अर्थ के अनुसार उस‍की विभक्ति बदल जाती है। जिससे यह जाना जाता है। कि यहाँ 'बहिः' पद से मनुष्‍यलोक के बाहर यह अर्थ इष्‍ट है।

शंका – मनुष्‍यलोक में ज्‍योतिषी निरन्‍तर गमन करते है। यह पिछले सूत्र में कहा ही है। अत: अन्‍यत्र ज्‍योतिषियों का अवस्‍थान सुतरां सिद्व है। इसलिए बहिरवस्थिता: यह सूत्रवचन निरर्थक है।

समाधान –
यह कहना ठीक नहीं, क्‍योंकि मनुष्‍यलोक के बाहर ज्‍योतिषियों का अस्तित्‍व औार अवस्‍थान ये दोनों असिद्ध है। अत: इन दोनों की सिद्धि के लिए बहिरवस्थिता: यह सूत्रवचन कहा है। दूसरे विपरीत गति के निराकरण करने के लिए यह सूत्र रचा है। अत: यह सूत्र वचन अनर्थक नहीं है।

अब चौथे निकाय की सामान्‍य संज्ञा के कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -
राजवार्तिक :

मनुष्य-लोक से बाहिर ज्योतिषी हैं और अवस्थित हैं, इन दोनों बातों की सिद्धि के लिए यह सूत्र बनाया है। यदि यह न बनाया जाता तो पहिले के सूत्र से 'मनुष्यलोक में ही ज्योतिषी हैं और वे नित्यगति हैं' यह अर्थ स्थित रह जाता है।