
सर्वार्थसिद्धि :
इन सब लौकान्तिकों की शुक्ल लेश्या होती है। और शरीर की ऊँचाई पाँच हाथ होती है। इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामवाली तत्त्वार्थवृत्ति में चौथा अध्याय समाप्त हुआ ।।4।। |
राजवार्तिक :
1. सभी लौकान्तिकों की दोनों प्रकार की स्थिति आठ सागर प्रमाण है। 2. जीव पदार्थ का व्याख्यान हुआ। 3. वह एक होकर भी अनेकात्मक है क्योंकि वह अभाव से विलक्षण है। 'अभूत' 'नहीं है' आदि अभाव में कोई भेद नहीं पाया जाता पर भाव में तो अनेक धर्म और अनेक भेद पाये जाते हैं । भाव में ही जन्म, सद्भाव, विपरिणाम, वृद्धि , अपक्षय और विनाश देखे जाते हैं। बाह्य आभ्यन्तर दोनों निमित्तों से आत्मलाभ करना जन्म है, जैसे मनुष्यगति आदि के उदय से जीव मनुष्य पर्यायरूप से उत्पन्न होता है । आयु आदि निमित्तों के अनुसार उस पर्याय में बने रहना सद्भाव या स्थिति है। पूर्वस्वभाव को कायम रखते हुए अधिकता हो जाना वृद्धि है । क्रमशः एक देश का जीर्ण होना अपक्षय है । उस पर्याय की निवृत्ति को विनाश कहते हैं। इस तरह पदार्थों में अनन्तरूपता होती है। अथवा सत्त्व, ज्ञेयत्व, द्रव्यत्व, अमूर्तत्व, अतिसूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, असंख्येयप्रदेशत्व, अनादिनिधनत्व और चेतनत्व आदि की दृष्टि से जीव अनेक रूप है। 5. अनेक शब्द और अनेक ज्ञान का विषय होने से । जिस पदार्थ में जितने शब्दों का प्रयोग होता है उसमें उतनी ही वाच्य-शक्तियाँ होती हैं तथा वह जितने प्रकार के ज्ञानों का विषय होता है उसमें उतनी ही ज्ञेय शक्तियाँ होती हैं। शब्द प्रयोग का अर्थ है प्रतिपादन, क्रिया । उसके साधन दोनों ही हैं - शब्द और अर्थ। एक ही घट में घट, पार्थिव, मार्तिक-मिट्टी से बना हुआ, सन्, ज्ञेय, नया, बड़ा आदि अनेकों शब्दों का प्रयोग होता है तथा इन अनेक ज्ञानों का विषय होता है । अतः जैसे घड़ा अनेकान्त रूप है । उसी तरह आत्मा भी अनेक धर्मात्मक है । 6. अनेक शक्तियों का आधार होने से। जैसे घी चिकना है, तृप्ति करता है, उपबृहण करता है अतः अनेक शक्तिवाला है अथवा, जैसे घड़ा जल-धारण, आहरण आदि अनेक शक्तियों से युक्त है उसी तरह आत्मा भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से अनेक प्रकार की वैभाविक पर्यायों की शक्तियों को धारण करता है। 7. जिस प्रकार एक ही घड़ा अनेक सम्बन्धियों की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम, दूर-पास, नया-पुराना, समर्थ-असमर्थ, देवदत्त कृत चैत्रस्वामिक, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभागादि के भेद से अनेक व्यवहारों का विषय होता है उसी तरह अनन्त सम्बन्धियों की अपेक्षा आत्मा भी उन-उन अनेक पर्यायों को धारण करता है । अथवा, जैसे अनन्त पुद्गल सम्बन्धियों की अपेक्षा एक ही प्रदेशिनी अंगुली अनेक भेदों को प्राप्त होती है उसी तरह जीव भी कर्म और नोकर्म विषय उपकरणों के सम्बन्ध से जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, दंडी, कुंडली आदि अनेक पर्यायों को धारण करता है। प्रदेशिनी अंगुली में मध्यमा की अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिका की अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक पर रूप का भेद जुदा-जुदा है। मध्यमा ने प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया, अन्यथा खरविषाण में भी उत्पन्न हो जाना चाहिए था, और न स्वतः ही था, अन्यथा मध्यमा के अभाव में भी उसकी प्रतीति हो जानी चाहिए थी । तात्पर्य यह कि अनन्त परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। 8. जिस प्रकार एक ही घड़े के रूपादि गुणों में अन्यद्रव्यों के रूपादि गुणों की अपेक्षा एक, दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात आदि रूप से तरतम भाव व्यक्त होता है और इसलिए वह अनेक है, उसी तरह जीव में भी अन्य आत्माओं की अपेक्षा क्रोधादि के अविभाग प्रतिच्छेदों की तरतमता होती है। अन्य सहकारियों की अपेक्षा वैसे क्रोधादि परिणाम अभिव्यक्त होते रहते है। 9. जैसे मिट्टी आदि द्रव्य प्रध्वंसरूप अतीतकाल, संभावनारूप भविष्यत् काल तथा क्रिया सातत्यरूप वर्तमानकाल के भेद से उन-उन कालों में अनेक पर्यायों को प्राप्त होता है, उसीतरह जीव भी अनादि अतीतकाल, संभावनीय अनागत और वर्तमान अर्थपर्याय व्यञ्जनपर्यायों से अनन्तरूप को धारण करता है। यदि वर्तमान मात्र माना जाय तो पूर्व और उत्तर की रेखा न होने से वर्तमान का भी अभाव हो जायगा। 10. अनन्तकाल और एककाल में अनन्त प्रकार के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने के कारण आत्मा अनेकान्तरूप है। जैसे घड़ा एक काल में द्रव्य दृष्टि से पार्थिव रूप में उत्पन्न होता है जलरूप में नहीं, देश दृष्टि से यहाँ उत्पन्न होता है पटना आदि में नहीं, कालदृष्टि से वर्तमानकाल में उत्पन्न होता है अतीत-अनागत में नहीं, भावदृष्टि से बड़ा उत्पन्न होता है छोटा नहीं । यह उत्पाद अन्य सजातीय घट, किंचित् विजातीय घट, पूर्ण विजातीय पटादि तथा द्रव्यान्तर आत्मा आदि के अनन्त उत्पादों से भिन्न है अतः उतने ही प्रकार का है। इसी प्रकार उस समय उत्पन्न नहीं होनेवाले द्रव्यों की ऊपर, नीची, तिरछी, लम्बी, चौड़ी आदि अवस्थाओं से भिन्न वह उत्पाद अनेक प्रकार का है। अनेक अवयववाले मिट्टी के स्कन्ध से उत्पन्न होने के कारण भी उत्पाद अनेक प्रकार का है। इसी तरह जल-धारण आहरण हर्ष, भय, शोक, परिताप आदि अनेक अर्थक्रियाओं में निमित्त होने से उत्पाद अनेक तरह का है । उसी समय उतने ही प्रतिपक्षभूत व्यय होते हैं । जब तक पूर्व पर्याय का विनाश नहीं होगा तब तक नूतन के उत्पाद की संभावना नहीं है । उत्पाद और विनाश की प्रतिपक्षभूत स्थिति भी उतने ही प्रकार की है। जो स्थित नहीं है उसके उत्पाद और व्यय नहीं हो सकते । 'घट' उत्पन्न होता है' इस प्रयोग को वर्तमान तो इसलिए नहीं मान सकते कि अभी तक घड़ा उत्पन्न ही नहीं हुआ है, उत्पत्ति के बाद यदि तुरन्त विनाश मान लिया जाय तो सद्भाव को अवस्था का प्रतिपादक कोई शब्द ही प्रयुक्त नहीं होगा, अतः उत्पाद में भी अभाव और विनाश में भी अभाव, इस तरह पदार्थ का अभाव ही होने से तदाश्रित व्यवहार का लोप हो जायगा। अतः पदार्थ में उत्पद्यमानता, उत्पन्नता और विनाश ये तीन अवस्थाएँ माननी ही होंगी। इसी तरह एक जीव में भी द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नय की विषयभूत अनन्त शक्तियाँ तथा उत्पत्ति, विनाश, स्थिति आदि रूप होने से अनेकान्तात्मकता समझनी चाहिए। 11. अन्वय व्यतिरेक रूप होने से भी। जैसे एक ही घड़ा सत्, अचेतन आदि सामान्य रूप से अन्वयधर्म का तथा नया-पुराना आदि विशेष रूप से व्यतिरेक धर्म का आधार होता है उसी तरह आत्मा भी सामान्य और विशेष धर्मों की अपेक्षा अन्वय और व्यतिरेकात्मक है। अनुगताकार बुद्धि और अनुगताकार शब्द प्रयोग के विषयभूत स्वास्तित्व, आत्मत्व, ज्ञातृत्व, द्रष्टृत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, अमूर्तत्व, असंख्यातप्रदेशत्व, अवगाहनत्व, अतिसूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व, अहेतुकत्व, अनादि सम्बन्धित्व, ऊर्ध्वगतिस्वभाव आदि अन्वय धर्म हैं। व्यावृत्ताकार बुद्धि और शब्द प्रयोग के विषयभूत परस्पर विलक्षण उत्पत्ति, स्थिति, विपरिणाम, वृद्धि, ह्रास, क्षय, विनाश, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, दर्शन, संयम, लेश्या, सम्यक्त्व आदि व्यतिरेक धर्म हैं। 12-13. इस अनेकान्तात्मक जीव का कथन शब्दों से दो रूप में होता है - एक क्रमिक और दूसरा यौगपद्य रूप से । तीसरा कोई प्रकार नहीं है। जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादि की अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित होते हैं उस समय एक शब्द में अनेक अर्थों के प्रतिपादन की शक्ति न होने से क्रम से प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। परन्तु जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मों की कालादिक की दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है तब एक भी शब्द के द्वारा एकधर्ममुखेन तादात्म्यरूप से एकत्व को प्राप्त सभी धर्मों का अखंड भाव से युगपत् कथन हो जाता है। यह सकलादेश कहलाता है। विकलादेश नयरूप हैं और सकलादेश प्रमाण रूप। कहा भी है - सकलादेश प्रमाणाधीन है और विकलादेश नयाधीन । एक गुणरूप से संपूर्ण वस्तुधर्मों का अखंडभाव से ग्रहण करना सकलादेश है । जिस समय एक अभिन्न वस्तु अखंडरूप से विवक्षित होती है उस समय वह अस्तित्वादि धर्मों का अभेदवृत्ति या अभेदोपचार करके पूरी की पूरी एक शब्द से कही जाती है यही सकलादेश है। द्रव्याथिकनय से धर्मों में अभेद है तथा पर्यायार्थिक की विवक्षा में भेद होने पर भी अभेदोपचार कर लिया जाता है। 15. इस सकलादेश में प्रत्येक धर्म की अपेक्षा सप्तभंगी होती है।
"प्रश्न के वश से सात ही भंग होते हैं। वस्तु सामान्य और विशेष उभय धर्मों से युक्त है।" 'स्यात् अस्त्येव जीवः' इस वाक्य में जीव शब्द विशेष्य है द्रव्यवाची है और 'अस्ति' शब्द विशेषण है गुणवाची है। उनमें विशेषण विशेष्यभाव द्योतन के लिए 'एव' का प्रयोग है। इससे इतर धर्मों की निवृत्ति का प्रसंग होता है, अतः उन धर्मों का सद्भाव द्योतन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'स्यात्' शब्द तिङ्न्तप्रतिरूपक निपात है। इसके अनेकान्त विधि विचार आदि अनेक अर्थ हो सकते हैं परन्तु विवक्षावश यहाँ 'अनेकान्त' अर्थ लिया जाता है। यद्यपि 'स्यात्' शब्द से सामान्यतया अनेकान्त का द्योतन हो जाता है फिर भी विशेषार्थी विशेष शब्द का प्रयोग करते हैं जैसे 'वृक्ष' कहने से धव, खदिर आदि का ग्रहण हो जाने पर भी धव, खदिर आदि के इच्छुक उन-उन शब्दों का प्रयोग करते हैं । अथवा 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक होता है । जो द्योतक होता है वह किसी वाचक शब्द के द्वारा कहे गये अर्थ का ही द्योतन कर सकता है अतः उसके द्वारा प्रकाश्य धर्म की सूचना के लिए इतर शब्दों का प्रयोग किया गया है। प्रश्न – यदि 'स्यात् अस्त्येव जीव:' यह वाक्य सकलादेशी है तो इसी से जीवद्रव्य के सभी धर्मों का संग्रह हो ही जाता है, तो आगे के भंग निरर्थक हैं ? उत्तर – गौण और मुख्य विवक्षा से सभी भंगों की सार्थकता है। द्रव्यार्थिक की प्रधानता तथा पर्यायाथिक की गौणता में प्रथम भंग सार्थक है और द्रव्याथिक की गौणता और पर्यायाथिक की प्रधानता में द्वितीय भंग । यहाँ प्रधानता केवल शब्द प्रयोग की है, वस्तु तो सभी भंगों में पूरी ही ग्रहण की जाती है। जो शब्द से कहा नहीं गया है अर्थात् गम्य हुआ है वह यहाँ अप्रधान है। तृतीय भंग में युगपत् विवक्षा होने से दोनों ही अप्रधान हो जाते हैं क्योंकि दोनों को प्रधान भाव से कहने वाला कोई शब्द नहीं है। चौथे भंग में क्रमशः उभय प्रधान होते हैं । यदि अस्तित्वैकान्तवादी 'जीव एव अस्ति' ऐसा अवधारण करते हैं तो अजीव के नास्तित्व का प्रसंग आता है अतः 'अस्त्येव' यहीं एवकार दिया जाता है । 'अस्त्येव' कहने से पुद्गलादिक के अस्तित्व से भी जीव का अस्तित्व व्याप्त हो जाता है अतः जीव और पुद्गल में एकत्व का प्रसंग होता है । "अस्तित्व सामान्य से जीव का सम्बन्ध होगा अस्तित्व विशेष से नहीं, जैसे 'अनित्यमेव कृतकम्' कहने से अनित्यत्व के अभाव में कृतकत्व नहीं होता ऐसा अवधारण करने पर भी सब प्रकार के अनित्यत्व से सब प्रकार के कृतकत्व की व्याप्ति नहीं होती किन्तु अनित्यत्व सामान्य से ही होती है न कि रथ, घट, पट आदि के अनित्यत्व विशेष से । ' यह समाधान प्रस्तुत करने पर तो यही फलित होता है कि आप स्वयं अवधारण को निष्फलता स्वीकार कर रहे हैं । 'स्वगत विशेष से अनित्यत्व है' इसका स्पष्ट अर्थ है कि परगत विशेष से अनित्यत्व नहीं है। फिर तो 'अनित्यं कृतकम्' ऐसा बिना अवधारण का वाक्य कहना चाहिए। ऐसी दशा में अनित्यत्व का अवधारण न होने से नित्यत्व का भी प्रसंग प्राप्त होता है। इसी तरह आप यदि "अस्तित्व सामान्य से जीव 'स्यादस्ति' है पुद्गलादिगत अस्तित्व विशेष से नहीं" यह स्वीकार करते हैं तो यह स्वयं मान रहे हैं कि दो प्रकार का अस्तित्व है - एक सामान्य अस्तित्व और दूसरा विशेष अस्तित्व। ऐसी दशा में सामान्य अस्तित्व से स्यादस्ति और विशेष अस्तित्व से स्यान्नास्ति होने पर अवधारण निष्फल हो ही जाता है । सब प्रकार से अस्तित्व स्वीकृत होने पर ही नास्तित्व के निराकरण से ही अवधारण सार्थक हो सकता है। नियम न रहने पर पुद्गलादि के अस्तित्व से भी 'स्यादस्ति' की प्राप्ति होती है अतः एकान्तवादी को अवधारण मानना ही होगा और ऐसी स्थिति में पूर्वोक्त दोष आता है। 'जो अस्ति है वह अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से, इतर द्रव्यादि से नहीं क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं । जैसे घड़ा पार्थिव रूप से, इस क्षेत्र से, इस काल की दृष्टि से तथा अपनी वर्तमान पर्यायों से 'अस्ति' है अन्य से नहीं क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं।' इस समाधान से ही फलित होता है कि घड़ा स्यादस्ति और स्यानास्ति है । यदि नियम न माना गया तो वह घडा ही नहीं हो सकता क्योंकि सामान्यात्मकता के अभाव में विशेषरूपता भी नहीं टिक सकती, अथवा अनियत दव्यादिरूप होने से वह घड़ा ही नहीं रह सकता किंतु सर्वरूप होने से महा सामान्य बन जायगा । यदि घड़ा पार्थिवत्व की तरह जलादि रूप से भी अस्ति हो जाय तो जलादि रूप भी होने से वह एक सामान्य द्रव्य बन जायगा न कि घड़ा । यदि इस क्षेत्र की तरह अन्य समस्त क्षेत्रों में भी घड़ा अस्ति हो जाय तो वह घड़ा नहीं रह पायगा किन्तु आकाश बन जायगा । यदि इस काल की तरह अतीत अनागत काल से भी वह 'अस्ति' हो तो भी घड़ा नहीं रह सकता किन्तु त्रिकालानुयायी होने से मृद् द्रव्य बन जायगा, फिर तो जिस प्रकार इस देश काल रूप से हमलोगों के प्रत्यक्ष है और अर्थक्रियाकारी है उसीतरह अतीत अनागतकाल तथा सभी देशों में उसकी प्रत्यक्षता तथा तत्सम्बन्धी अर्थक्रियाकारिता होनी चाहिये । इसी तरह जैसे वह नया है उसी तरह पुराने या सभी रूप-रस-गन्ध-स्पर्श, संख्या संस्थान आदि की दृष्टिसे भी 'अस्ति' हो तो वह घड़ा नहीं रह जायगा किन्तु सर्वव्यापी होने से महासत्ता बन जायगा । इसी तरह मनुष्य जीव भी स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से ही 'अस्ति' है अन्यरूपों से नास्ति है। यदि मनुष्य अन्य रूप से भी 'अस्ति' हो जाय तो वह मनुष्य ही नहीं रह सकता, महासामान्य हो जायगा । इसी तरह अनियत क्षेत्र आदि रूप से 'अस्ति' मानने में अनियतरूपता का प्रसंग आता है। स्वसद्भाव और पर-अभाव के अधीन जीव का स्वरूप होने से वह उभयात्मक है। यदि जीव परसत्ता के अभाव की अपेक्षा न करे तो वह जीव न होकर सन्मात्र हो जायगा। इसी तरह परसत्ता के अभाव की अपेक्षा होने पर भी स्वसत्ता का सद्भाव न हो तो वह वस्तु ही नहीं हो सकेगा, जीव होने की बात तो दूर ही रही। अतः पर का अभाव भी स्वसत्ता सद्भाव से ही वस्तु का स्वरूप बन सकता है। जैसे अस्तित्व धर्म अस्तित्व रूप से ही है नास्तित्व रूप से नहीं, अतः उभयात्मक है । अन्यथा वस्तु का अभाव ही हो जायगा क्योंकि अभाव, भावनिरपेक्ष होकर सर्वथा शून्य का ही प्रतिपादन करेगा तथा भाव अभावरूप से निरपेक्ष रहकर सर्वसन्मात्ररूप वस्तु को कहेगा। सर्वथा सत या सर्वथा अभाव रूप से वस्तु की स्थिति तो है नहीं। क्या कभी वस्तु सर्वाभावात्मक या सर्वसत्तात्मक देखी गई है ? वैसी वस्तु ही नहीं हो सकती क्योंकि वह खरविषाण की तरह सर्वाभाव रूप है । जब वस्तुत्व श्रावणत्व की तरह सपक्ष विपक्ष दोनों से व्यावृत्त होने के कारण असाधारण हो गया तब उसका बोध होना भी कठिन है। वस्तु में क्रियागुण व्यपदेश का अभाव होने से भावविलक्षणता के कारण अभावता आती है तथा भावता अभाव वैलक्षण्य से । इस तरह भावरूपता और अभाव रूपता दोनों परस्पर सापेक्ष हैं अभाव अपने सद्भाव तथा भाव के अभाव की अपेक्षा सिद्ध होता है तथा भाव स्वसद्भाव और अभाव के अभाव की अपेक्षा से । यदि अभाव को एकांत से अस्ति स्वीकार किया जाय तो जैसे वह अभावरूप से अस्ति है उसी तरह भावरूप से भी 'अस्ति' हो जाने के कारण भाव और अभाव में स्वरूपसांकर्य हो जायगा। यदि अभाव को सर्वथा 'नास्ति' माना जाय तो जैसे वह भावरूप से 'नास्ति' है उसी तरह अभावरूप से भी 'नास्ति' होने से अभाव का सर्वथा लोप होने के कारण भावमात्र ही जगत् रह जायगा। और इस तरह खपुष्प आदि भी भावात्मक हो जायंगें । अतः घटादिक भाव स्यादस्ति और स्यान्नास्ति हैं । इस तरह घटादि वस्तुओं में भाव और अभाव को परस्पर सापेक्ष होने से प्रतिवादी का यह कथन कि 'अर्थ या प्रकरण से जब घट में पटादि की सत्ता का प्रसंग ही नहीं है तब उसका निषेध क्यों करते हो ?' अयुक्त हो जाता है । किंच, अर्थ होने के कारण सामान्यरूप से घट में पटादि अर्थों की सत्ता का प्रसंग प्राप्त है ही, यदि उसमें हम विशिष्ट घटरूपता स्वीकार करना चाहते हैं तो वह पटादि की सत्ता का निषेध करके ही आ सकती है । अन्यथा वह घट नहीं कहा जा सकता क्योंकि पटादि रूपों की व्यावृत्ति न होने से उसमें पटादि रूपता भी उसी तरह मौजूद है। घट में जो पटादि का 'नास्तित्व' है वह भी घड़े का ही धर्म है, वह उसकी स्वपर्याय है। हाँ, पर की अपेक्षा व्यवहार में आने से पर-पर्याय उपचार से कही जाती है। प्रश्न – 'अस्त्येव जीवः' यहाँ 'अस्ति' शब्द के वाच्य अर्थ से जीव शब्द का वाच्य अर्थ भिन्न स्वभाववाला है, या अभिन्न स्वभाववाला ? यदि अभिन्न स्वभाव है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि जो 'सत्' है वही जीव है, उसमें अन्य धर्म नहीं हैं । तब उनमें परस्पर सामानाधिकरण्य विशेषण-विशेष्य भाव आदि नहीं हो सकेंगे, तथा दोनों शब्दों का प्रयोग भी नहीं होना चाहिये। जिस तरह 'सत्त्व' सर्व द्रव्य और पर्यायों में व्याप्त है उसी तरह उससे अभिन्न जीव भी व्याप्त होगा। तात्पर्य यह कि संसार के सब पदार्थों में एक जीवरूपता का प्रसंग आयगा। जीव में सामान्य सत्स्वभाव होने से जीव के चैतन्य ज्ञानादि क्रोधादि नारकत्वादि सभी पर्यायों का अभाव हो जायगा। अथवा, अस्तित्व जब जीव का स्वभाव हो गया, तब पुद्गलादिक में 'सत्' यह प्रत्यय नहीं करा सकेगा। यदि उक्त दोष से बचने के लिए अस्ति शब्द के वाच्य अर्थ से जीव शब्द का वाच्य अर्थ भिन्न माना जाता है तो जीव स्वयं असद्रूप हो जायगा। कहा जा सकता है कि जीव असद्रूप है क्योंकि वह अस्ति शब्द के वाच्य अर्थ से भिन्न है जैसे कि खरविषाण। ऐसी दशा में जीवाश्रित बन्ध मोक्ष आदि सभी व्यवहार नष्ट हो जायेंगे। और जिस तरह अस्तित्व जीव से भिन्न है । उसी तरह अन्य पुद्गलादि से भी भिन्न होगा, तात्पर्य यह कि सर्वथा निराश्रय होने से उसका अभाव ही हो जायगा। किंच, अस्तित्व से भिन्न स्वभाववाले जीव का फिर क्या स्वरूप रह जाता है ? जिसे भी आप स्वभाव कहोगे वह सब असद्रप ही होगा। उत्तर – 'अस्ति' शब्द के वाच्य अर्थ से जीव शब्द का वाच्य अर्थ कथंचित् भिन्न रूप है तथा कथंचित् अभिन्न रूप । पर्यायाथिक नय से भवन और जीवन पर्यायों में भेद होने से दोनों शब्द भिन्नार्थक हैं । द्रव्यार्थिक दृष्टि से दोनों अभिन्न हैं, जीव के ग्रहण से तद्भिन्न अस्तित्व का भी ग्रहण होता ही है अतः पदार्थ स्यात अस्ति और स्यान्नास्ति रूप हैं।
26. विकलादेश में भी सप्तभंगी होती है। गुणभेदक अंशों में क्रम, योगपद्य तथा क्रम-योगपद्य दोनों से विवक्षा के वश विकलादेश होते हैं।
प्रश्न – जब आप 'अस्त्येव' इस तरह विशेषण-विशेष्य के नियमन को एवकार देते हो तब अर्थात् ही इतर की निवृत्ति हो जाती है ? उदासीनता कहाँ रही ? उत्तर – इसीलिए शेष धर्मों के सद्भाव को द्योतन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है । एवकार से जब इतरनिवृत्ति का प्रसंग प्रस्तुत होता है तो सकल लोप न हो जाय इसलिए 'स्यात्' शब्द विवक्षित धर्म के साथ ही साथ अन्य धर्मों के सद्भाव की सूचना दे देता है। इस तरह अपुनरुक्त रूप से अधिक से अधिक सात प्रकार के वचन हो सकते हैं । यह सब द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की विवक्षा से होता है। ये नय संग्रह और व्यवहार रूप होते हैं । शब्द नय और अर्थनय रूप से भी इनके विभाग हैं।
27. इन परस्पर विरुद्ध सरीखे दिखनेवाले धर्मों में नयदृष्टि से योजना करनेपर कोई विरोध नहीं रहता। विरोध तीन प्रकार का है
चतुर्थ अध्याय समाप्त
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