+ अजीव के भेद -
अजीव-काया-धर्माधर्माकाश-पुद्गला: ॥1॥
अन्वयार्थ : धर्म, अधर्म, आकाश, और पुद्गल अजीव (चेतना रहित) और कायावान (बहु प्रदेशी) है ।
Meaning : The non-soul substances (bodies) are the medium of motion, the medium of rest, space and matter.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

व्‍युत्‍पत्ति से काय शब्‍द का अर्थ शरीर है तो भी इन द्रव्‍यों में उपचार से उसका आरोप किया है ।

शंका – उपचार का क्‍या कारण है ?

समाधान –
जिस प्रकार शरीर पुद्गल द्रव्‍य के प्रचयरूप होता है उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्‍य भी प्रदेश-प्रचय की अपेक्षा काय के समान होने से काय कहे गये हैं । अजीव और काय इनमें कर्मधारय-समास है जो 'विशेषणं विशेष्‍येण' इस सूत्र से हुआ है ।

शंका- नीलोत्‍पल इत्‍यादि में नील और उत्‍पल इन दोनों का व्‍यभिचार देखा जाता है अत: वहाँ विशेषण-विशेष्‍य सम्‍बन्‍ध किया गया है, किन्‍तु अजीवकाय में विशेषणविशेष्‍य सम्‍बन्‍ध करने का क्‍या कारण है ?

समाधान – अजीवकाय का यहाँ भी व्‍यभिचार देखा जाता है क्‍योंकि अजीव शब्‍द काल में भी रहता है जो कि काय नहीं है और काय शब्‍द जीव में रहता है, अत: इस दोष के निवारण करने के लिए यहाँ विशेषण-विशेष्‍य सम्‍बन्‍ध किया है ।

शंका – काय शब्‍द किसलिए दिया है ?

समाधान –
प्रदेश बहुत्‍व का ज्ञान कराने के लिए । धर्मादिक द्रव्‍यों के बहुत प्रदेश हैं यह इससे जाना जाता है ।

शंका – आगे यह सूत्र आया है कि 'धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्‍यात प्रदेश हैं' इसी से इनके बहुत प्रदेशों का ज्ञान हो जाता है फिर यहाँ कायशब्‍द के देने की क्‍या आवश्‍यकता ?

समाधान –
यह ठीक है । तो भी इस कथन के होने पर उस सूत्र से प्रदेशों के विषय में यह निश्‍चय किया जाता है कि इन धर्मादिक द्रव्‍यों के प्रदेश असंख्‍यात हैं, न संख्‍यात हैं और न अनन्‍त । दूसरे काल-द्रव्‍य में प्रदेशों का प्रचय नहीं है यह ज्ञान कराने के लिए इस सूत्रमें 'काय' पद का ग्रहण किया है । काल का आगे व्‍याख्‍यान करेंगे । उसके प्रदेशों का निषेध करने के लिए यहाँ 'काय' शब्‍द का ग्रहण किया है । जिसप्रकार अणु एक-प्रदेशरूप होन के कारण उसके द्वितीय आदि प्रदेश नहीं होते इसलिए अणु को अप्रदेशी कहते हें उसीप्रकार काल परमाणु भी एकप्रदेशरूप होने के कारण अप्रदेशी हैं । धर्मादिक द्रव्‍यों में जीव का लक्षण नहीं पाया जाता, इसलिए उनकी अजीव यह सामान्‍य संज्ञा है । तथा धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये उनकी विशेष संज्ञाएँ हैं जो कि यौगिक हैं ।

'सर्वद्रव्‍यपर्यायेषु केवलस्‍य' इत्‍यादि सूत्रों में द्रव्‍य कह आये हैं । वे कौन हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --
राजवार्तिक :

1-5. 'अजीव जो काय' इस प्रकार समानाधिकरणा वृत्ति यहाँ समझनी चाहिए। अजीव शब्द की काल में तथा काय शब्द की जीव में भी वृत्ति होने से यहाँ परस्पर व्यभिचार है अतः नीलोत्पल की तरह समानाधिकरण वृत्ति है। यदि भिन्न अधिकरणरूप वृत्ति मानी जाय तो 'राजा का पुरुष राज-पुरुष' इसकी तरह अजीवों का काय इस प्रकार के सर्वथा भेद का प्रसंग आयगा । यद्यपि 'सुवर्ण की अंगूठी' यहाँ सुवर्ण और अंगूठी में अभेद रहने पर भी भेदमूलक षष्ठी-समास देखा गया है तो भी जैसे 'सुवर्ण की अंगूठी' इस स्थल पर सुवर्ण का प्रयोग चाँदी आदि की निवृत्ति के लिए है कि - यह अंगूठी सुवर्ण की है, चाँदी आदि की नहीं है और न मासा रत्ती आदि की, उस तरह 'अजीव के काय' यहाँ किसी पदार्थान्तर की निवृत्ति नहीं करनी है। अथवा, भिन्नाधिकरण भी वृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं है। जीव भी काय है क्योंकि पाँच अस्तिकायों में जीव का भी नाम है। इसलिए उसकी निवृत्ति के लिए यहाँ अजीव शब्द का प्रयोग किया गया है कि अजीव के काय, जीव के नहीं । 'सुवर्ण की अंगूठी' यहाँ भी सुवर्ण द्रव्य से अंगूठी पर्याय में संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिके भेद से भेद है ही । यदि सुवर्ण और अंगूठी में सर्वथा अभेद माना जाय तो सुवर्ण की कुंडल आदि पर्यायों में वृत्ति नहीं होनी चाहिए, या सुवर्ण की तरह अंगुलीयकत्व (अंगूठीपना) कुंडल आदि में भी पाया जाना चाहिए । इसीलिए अन्य चाँदी आदि की निवृत्ति के लिए 'सुवर्ण' शब्द का प्रयोग किया गया है । सर्वथा अभेद में 'सुवर्ण की अंगूठी' यह भेद प्रयोग ही नहीं हो सकता। 'अजीवकाया? यहाँ काय शब्द प्रदेशवाचक है । धर्मादि द्रव्य अपने प्रदेशों से संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन आदि की दृष्टि से भिन्न भी हैं । यदि सर्वथा अभेद हो तो जैसे धर्मादि एक हैं उसी तरह प्रदेशों में भी एकत्व होना चाहिए, अथवा जैसे प्रदेश बहुत हैं उसी तरह धर्मादिक में भी बहुत्व होना चाहिए । इसीलिए अन्यनिवृत्ति के लिए 'अजीव शब्द का प्रयोग किया है कि - अजीवों के काय, न कि जीव के । यदि सर्वथा एकत्व होता तो 'अजीव के काय' यह भेद-व्यवहार ही नहीं हो सकता था । 'शिलापुत्रक का शरीर या राहु का सिर' इन प्रयोगों में भी कथंचित् भेद है ही । बुद्धि शब्द और प्रयोजन आदि के भेद से उनमें भेद है । इसलिए यहाँ भी अन्य निवृत्ति के लिए शिलापुत्रक या राहु शब्द दिया जाता है । अर्थात् शिंलापुत्रक का यह शरीर है अन्य मनुष्य आदि का नहीं, राहु का यह शिर है अन्य का नहीं । सर्वथा अभेद में अन्यनिवृत्ति की आवश्यकता ही नहीं रह जाती जैसे सुवर्ण का सुवर्ण या घट का घट ।

6. 'न जीवः अजीवः' कहने से अजीव को केवल जीवाभाव रूप ही नहीं समझना चाहिए, किन्तु जैसे 'अनश्व' कहने से घोड़े के निषेध के साथ ही घोड़े सरीखे अन्य प्राणी (गधा आदि) का प्रत्यय होता है उसी तरह अजीव से भी जीव से भिन्न अन्य अचेतन पदार्थ का संप्रत्यय होता है । जड़ और चेतन में सत्त्व द्रव्यत्व आदि की दृष्टि से सादृश्य है ही । एक 'सत्' पदार्थ ही पररूप आदि की अपेक्षा अभाव-प्रत्यय का विषय होता है ।

7-8. काय शब्द में 'काय की तरह काय' यह सादृश्य अर्थ अन्तर्भूत है । अर्थात जैसे काय-शरीर औदारिकादि शरीर नामकर्म के उदय से अनेक पुद्रल-परमाणुओं से संचित होता है उसी तरह धर्मादि द्रव्य अनादि-पारिणामिक प्रदेशोंवाले होने से काय हैं । काय शब्द का ग्रहण ही प्रदेश या अवयवों की बहुतायत सूचित करने के लिए है । धर्मादिक में मुख्य रूप से प्रदेश न रहने पर भी एक परमाणु के द्वारा रोके गये आकाश-प्रदेश के नाप से बुद्धि के द्वारा उनमें असंख्येय आदि प्रदेश स्वीकार किये जाते हैं ।

9-14. प्रश्न –'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधमैकजीवानाम्' इस सूत्र से ही बहुप्रदेशीपना सिद्ध है फिर काय ग्रहण करना निरर्थक है । प्रदेशों की संख्या के निश्चय के लिए भी इसकी उपयोगिता नहीं है क्योंकि इससे तो प्रदेशप्रचय मात्र की ही प्रतीति होती है । 'लोकाकाशेऽवगाहः' के बाद 'धर्माधर्मयोः कृत्स्ने' कहने से द्रव्यों के प्रदेशों के परिमाण का निश्चय हो जाता है । काय ग्रहण के बिना अप्रदेशी एक-द्रव्यपने का प्रसंग भी नहीं आ सकता; क्योंकि 'असंख्ययाः प्रदेशा धर्माधमैकजीवानाम्' सूत्र से ही बहुप्रदेशित्व सूचित हो जाता है । पंचास्तिकाय के आर्ष उपदेश के अनुवाद के लिए काय शब्द का ग्रहण निरर्थक है क्योंकि 'असंख्येयाः प्रदेशाः' इत्यादि सूत्र से ही वह कार्य हो जाता है । 'काय-बहुप्रदेशित्वरूप स्वभाव उनका सदा रहता है छूटता नहीं' इस बात के द्योतन के लिए भी काय शब्द का कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि 'नित्य और अवस्थित' कथन से ही स्वभाव का अपरित्याग सिद्ध हो जाता है ।

15-16.
उत्तर –
कायशब्द के ग्रहण से पाँचों ही अस्तिकायों में प्रदेश-बहुत्व की सिद्धि होने पर ही 'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मेकजीवानाम्' यह सूत्र प्रदेशों की असंख्येयता का अवधारण कर सकता है कि असंख्येय ही प्रदेश हैं न संख्येय और न अनन्त । अवधारण विधिपूर्वक होता है । फिर काल-द्रव्य के बहुप्रदेशित्व के प्रतिषेध के लिए यहाँ 'काय' का ग्रहण करना उपयुक्त है । जिसप्रकार अणु को एकप्रदेशी होने से अर्थात् द्वितीय आदि प्रदेश न होने से 'अप्रदेश' कहते हैं उसी तरह काल-परमाणु भी एकप्रदेशी होने से अप्रदेशी हैं ।

17. सर्वज्ञ प्रतिपादित आर्हत आगम में ये धर्म अधर्म आकाश आदि संज्ञाएँ सांकेतिक हैं, रूढ़ हैं ।

18-23. अथवा, इन संज्ञाओं को क्रिया-निमित्तक भी कह सकते हैं । स्वयं क्रिया-परिणत जीव और पुद्गलों को जो सहायक हो (साचिव्यं दधातीति धर्मः) वह धर्म है । इससे विपरीत अर्थात् स्थिति में सहायक अधर्म होता है । जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी अपनी पर्यायों के साथ प्रकाशमान हों तथा जो स्वयं अपने को भी प्रकाशित करे वह आकाश । अथवा, जो अन्य सब द्रव्यों को अवकाश दान दे वह आकाश । यद्यपि अलोकाकाश में द्रव्यों का अवगाह न होने से यह लक्षण नहीं घटता तथापि शक्ति की दृष्टि से उसमें भी आकाश-व्यवहार होता ही है । जैसे अतिदूर भविष्यत् काल में वर्तमान प्राप्ति की योग्यता के कारण ही भविष्यत् व्यपदेश होता है उसी तरह अलोकाकाश में अवगाही द्रव्यों के न होने पर भी अवगाहनशक्ति के कारण अखंड-द्रव्य-प्रयुक्त आकाश व्यवहार हो जाता है ।

24-26. जैसे भा को करनेवाला भास्कर कहा जाता है उसी तरह जो भेद, संघात और भेदसंघात से पूरण और गलन को प्राप्त हों वे पुद्गल हैं । यह शब्द 'शवशयनं श्मसानम्' की तरह पृषोदरादिगण में निष्पन्न होता है । परमाणुओं में भी शक्ति की अपेक्षा पूरण और गलन है तथा प्रतिक्षण अगुरुलधुगुणकृत गुणपरिणमन गुणवृद्धि और गुणहानि होती रहती है अतः उनमें भी पूरण और गलन व्यवहार मानने में कोई बाधा नहीं है । अथवा, पुरुप यानी जीव जिनको शरीर, आहार, विषय और इन्द्रिय-उपकरण आदि के रूप में निगलें (ग्रहण करें) वे पुद्गल हैं । परमाणु भी स्कन्ध-दशा में जीवों के द्वारा निगले ही जाते हैं ।

27. 'धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' यहाँ बहुवचन स्वातन्त्र्य प्रतिपत्ति के लिए है । इनका यही स्वातन्त्र्य है कि ये स्वयं गति और स्थिति रूप से परिणत जीव और पुदलों की गति और स्थिति में स्वयं निमित्त होते हैं, जीव या पुदल इन्हें उकसाते नहीं हैं । इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है । यद्यपि इतरेतरयोग द्वन्द्व में बहुवचन न्यायप्राप्त था पर समाहार में समुदाय की प्रधानता होने से एकवचन से ही कार्य चल जाता है, फिर भी जो बहुवचन का निर्देश किया गया है. वह स्वातन्त्र्य का ज्ञापक है । जैसे जैनेन्द्र व्याकरणमें 'हृतः'। यहाँ 'हृत्' इस एक वचन से कार्य चल सकता था फिर भी बहुवचन का निर्देश ज्ञापन करता है कि अनुक्त में भी तद्धितीय प्रत्यय होता है ।

28-30. धर्म शब्द की लोक में प्रतिष्ठा है अतः सूत्र में धर्म का पहिले ग्रहण किया है । अधर्मद्रव्य से लोक की पुरुषाकार आकृति की व्यवस्था बनती है अतः अधर्म का उसके अनन्तर ग्रहण किया है । यदि अधर्म-द्रव्य न माना जाता तो जीव और पुद्गल समस्त आकाश अर्थात् अलोकाकाश में भी जा पहुँचते, इस तरह लोक का कोई आकार ही नहीं बन पाता । अतः लोक-अलोक विभाग अधर्म-द्रव्य के कारण ही बनता है । फिर अधर्म धर्म का

प्रतिपक्षी है, अतः उसका धर्म के बाद ग्रहण करना उचित ही है ।

31-32. धर्म और अधर्म के द्वारा आकाश का परिच्छेद किया जाता है - लोक और अलोक के रूप में । जहाँ तक धर्म और अधर्म हैं वह लोक, आगे का अलोक । अतः धर्म और अधर्म के बाद आकाश को ग्रहण किया है । फिर अमूर्तरूप से आकाश धर्म और अधर्म में सजातीयपना भी है ।

33. आकाश में पुद्गल अवकाश पाते हैं, अतः आकाश के पास पुद्गल का ग्रहण किया गया है ।

34-35. प्रश्न – आकाश का ग्रहण सर्वप्रथम करना चाहिए क्योंकि वह धर्म और अधर्म आदि का आधार है ?

उत्तर –
लोक की यह रचना अनादि से है, इसमें आधाराधेय-भाव-मूलक पौर्वापर्य नहीं है । आदिवाले दही और कुंड आदि में ही आधाराधेयमूलक पौर्वापर्य होता है । यद्यपि आर्ष-ग्रन्थ में यह बताया है कि - "आकाश स्व तनुवातवलय में घनवातवलय, धनवातवलय में घनोदधिवातवलय आधेय रूप से है" इत्यादि फिर भी कोई विरोध नहीं है, क्योंकि यदि आधाराधेयभाव का सर्वथा निषेध किया जाता तो विरोध होता । परन्तु द्रव्यार्थिक की प्रधानता से सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठ हैं, अतएव आधाराधेयभाव नहीं रहने पर भी पर्यायार्थिक की प्रधानता में आधाराधेयभाव है ही । इसी तरह व्यवहार-नय से आकाश को आधार और अन्य द्रव्यों को आधेय कहते ही हैं । एवंभूतनय से अनादि पारिणामिक लोकरचना की अपेक्षा आधाराधेयभाव नहीं भी है । व्यवहार में तनुवातवलय का आधार आकाश को मानने पर आकाश के भी अन्य आधार की कल्पना करके अनवस्था दूषण नहीं आ सकता; क्योंकि आकाश सर्वगत और अनन्त है, अतः उसके अन्य आधार की कल्पना करना उचित नहीं है । असर्वगत सान्त मूर्तिमान् और सावयव पदार्थों में ही अन्य आधार की कल्पना हो सकती है ।

36. यद्यपि काल भी अजीव है और भाष्य में अनेक बार छह द्रव्यों का कथन भी किया है, पर इसका लक्षण आगे किया है अतः उसे यहाँ नहीं गिनाया है ।