
सर्वार्थसिद्धि :
जीव शब्द का व्याख्यान कर आये । सूत्र में जो बहुवचन दिया है वह जीव-द्रव्य के कहे गये भेदों के दिखलाने के लिए दिया है । 'च' शब्द द्रव्य संज्ञा के खींचने के लिए दिया है जिससे 'जीव भी द्रव्य है' यह अर्थ फलित हो जाता है । इस प्रकार ये पाँच आगे कहे जानेवाले काल के साथ छह द्रव्य होते हैं । शंका – आगे 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इस सूत्र-द्वारा द्रव्य का लक्षण कहेंगे; अत: लक्षण के सम्बन्ध से धर्मादिक को 'द्रव्य' संज्ञा प्राप्त हो जाती है फिर यहाँ उनकी अलग से गिनती करने का कोई कारण नहीं ? समाधान – गिनती निश्चय करने के लिए की है । इससे अन्यवादियों के द्वारा माने गये पृथिवी आदि द्रव्यों का निराकरण हो जाता है । शंका – कैसे ? समाधान – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मन इनका पुद्गल द्रव्य में अन्तर्भाव हो जाता है; क्योंकि ये रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले होते है। शंका – वायु और मन में रूपादिक नहीं हैं ? समाधान – नहीं, क्योंकि वायु रूपादिवाला है, स्पर्शवाला होने से, घट के समान । इस अनुमान के द्वारा वायु में रूपादिक की सिद्धि होती है । शंका – चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा वायु का ग्रहण नहीं होता, इसलिए उसमें रूपादिक का अभाव है ? समाधान – नहीं; क्योंकि इस प्रकार मानने पर परमाणु आदि में अतिप्रसंग दोष आता है । अर्थात् परमाणु आदि को भी चक्षु आदि इंन्द्रियाँ नहीं ग्रहण करतीं, इसलिए उनमें भी रूपादिक का अभाव मानना पड़ेगा । इसी प्रकार जल गन्धवाला है, स्पर्शवाला होने से, पृथिवी के समान । अग्नि भी रस और गन्धवाली है, रूपवाली होने से, पृथिवी के समान । मन भी दो प्रकार का है -- द्रव्यमन और भावमन । उनमें-से भावमन ज्ञानस्वरूप है और ज्ञान जीव का गुण है, इसलिए इसका आत्मा में अन्तर्भाव होता है । तथा द्रव्यमन में रूपादिक पाये जाते हैं, अत: पुद्गलद्रव्य की पर्याय है । यथा - मन रूपादिवाला है, ज्ञानोपयोग का करण होने से, चक्षु इन्द्रिय के समान । शंका – शब्द अमूर्त होते हुए भी उसमें ज्ञानोपयोग की करणता देखी जाती है, अत: मन को रूपादिवाला सिद्ध करने के लिए जो हेतु दिया है वह व्यभिचारी है ? समाधान – नहीं; क्योंकि शब्द पौद्गलिक है, अत: उसमें मूर्तपना बन जाता है । शंका – जिस प्रकार परमाणुओं के रूपादि गुणवाले कार्य नहीं देखे जाते हैं अत: वे रूपादिवाले सिद्ध होते हैं उस प्रकार वायु और मन के रूपादि गुणवाले कार्य नहीं दिखाई देते ? समाधान – नहीं, क्योंकि वायु और मन के भी रूपादि गुणवाले कार्य सिद्ध हो जाते हैं; क्योंकि सब परमाणुओं में सब रूपादि गुणवाले कार्यों के होने की योग्यता मानी है । कोई पार्थिव आदि भिन्न-भिन्न जाति के अलग-अलग परमाणु हैं, यह बात नहीं है; क्योंकि जाति का संकर होकर सब कार्यों का आरम्भ देखा जाता है । इसी प्रकार दिशा का भी आकाश में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि सूर्य के उदयादिक की अपेक्षा आकाश प्रदेशपंक्तियों में यहाँ से यह दिशा है इस प्रकार के व्यवहार की उत्पत्ति होती है । अब उक्त द्रव्यों के विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1-2. 'जीवत्व नामक अपरसामान्य के सम्बन्ध से जीव हैं, स्वतःसिद्ध नहीं' यह वैशेषिक का मत ठीक नहीं है क्योंकि द्रव्यत्व के सम्बन्ध से द्रव्य मानने में जो दोष दिये हैं वे 'सब यहाँ लागू हो जाते हैं। यदि जीवमें 'जीवत्व' के सम्बन्ध से जीव प्रत्यय होता है तो 'जीवत्व' में अन्य 'जीवत्वत्व' के सम्बन्ध से प्रत्यय मानने पर अनवस्था दूषण होता है । यदि इस अनवस्था दोष के भय से 'जीवत्व' को स्वतःसिद्ध मानते हो तो 'अर्थान्तर के संसर्ग से प्रत्यय होता है । इस प्रतिज्ञा की हानि हो जायगी । अतः जिस प्रकार जीवत्व स्वतःसिद्ध है उसी तरह जीव को भी स्वतःसिद्ध मान लेना चाहिए । प्रदीप की तरह 'जीवत्व' में स्वतः प्रत्यय मानना उचित नहीं है; क्योंकि उसी तरह जीव में भी स्वतःप्रत्यय मानने में कोई बाधा नहीं है । 'चूंकि जीव और जीवत्व दोनों भिन्न पदार्थ हैं अतः उनमें समानता नहीं लाई जा सकती' यह तर्क उचित नहीं है । क्योंकि जीव और जीवत्व भिन्न पदार्थ ही नहीं हैं । फिर आपके मत से तो दूसरे पदार्थ का धर्म दूसरे पदार्थ में आ ही जाता है जैसे कि सत्ता का 'सत्प्रययहेतुत्व' धर्म द्रव्य, गुण और कर्म में आता है । यदि सत्ता का सम्बन्ध होने पर भी द्रव्यादि में सत्प्रत्ययहेतुता नहीं है किन्तु सत्ता में ही है तो फिर द्रव्यादि को खरविषाण की तरह 'सत्' ही नहीं कह सकेंगे । अतः जीवनक्रिया से उपलक्षित द्रव्य विशेष में 'जीव' यह संज्ञा अनादिपारिणामिकी और स्वभावभूत है । 3. यद्यपि आगे 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इस सूत्रगत द्रव्यलक्षण से ही धर्मादि में द्रव्यता सिद्ध थी, फिर भी यहाँ द्रव्यों की गिनती नियम के लिए की है । धर्म अधर्म आकाश पुदल और जीव काल के साथ मिलकर छह द्रव्य होते हैं अतिरिक्त द्रव्य नहीं हैं । अतः अन्य मतवालों ने जो द्रव्य-संख्याएँ मानी हैं उनकी निवृत्ति हो जाती है । वैशेषिक नव द्रव्यवादी हैं । उनका इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है । पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मन, रूप, रस गन्ध और स्पर्शवाले होने से पुद्गल द्रव्य में अन्तर्भूत हैं । वायु रूपवाली है क्योंकि उसमें घट आदि की तरह स्पर्श पाया जाता है । चक्षु के द्वारा न दिखने के कारण रूप का अभाव नहीं किया जा सकता, अन्यथा परमाणु आदि का भी अभाव हो जायगा । मन दो प्रकार का है - द्रव्यमन और भावमन । भावमन ज्ञानरूप है, वह जीव का गुण होने से आत्मा में अन्तर्भूत है । द्रव्यमन रूपादिवाला होने से पौगलिक है । परमाणु आदि अतीन्द्रिय पदार्थ रूपादिवाले होकर भी आँखों से नहीं दिखते अतः न दिखने मात्र से मन में रूपादि वस्तु का अभाव नहीं किया जा सकता । 'मन ज्ञानोपयोग का करण होने से रूपादिवाला है चक्षु इन्द्रिय की तरह' इस अनुमान से मन में रूपादि का सद्भाव सिद्ध होता है । शब्द भी पौद्गलिक होने से मूर्तिक है । वायु और मन के पुद्गल-परमाणुओं में भी स्कन्ध होने की योग्यता है, अतः वे भी स्कन्ध बनते हैं । पार्थिव और जलीय आदि रूप से परमाणुओं में जातिभेद नहीं है, क्योंकि पार्थिव चन्द्रकान्तमणि से जल की, जल से पार्थिव मोती आदि की जाति-संकररूप से उत्पत्ति देखी जाती है । दिशा का भी आकाश में अन्तर्भाव हो जाता है, सूर्योदय आदि की अपेक्षा आकाश के प्रदेशों में ही 'यह इससे पूर्व है' आदि दिग्व्यवहार हो जाता है । 4. जीवों की अनन्तता और विविधता सूचन करने के लिए 'जीवाश्च' यहाँ बहुवचन का प्रयोग किया है । संसारी जीव गति आदि चौदह मार्गणास्थान, मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थान, सूक्ष्म बादर आदि चौदह जीवस्थानों के विकल्प से अनेक प्रकार के हैं । मुक्त जीव भी एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात, समयसिद्ध, शरीराकार, अवगाहना आदि के भेद से अनेक प्रकार के हैं । 5-8. यदि 'द्रव्याणि जीवाः' ऐसा इकट्ठा एक सूत्र बनाते तो च शब्द न देने के कारण लघुसूत्र तो होता परन्तु इससे जीव ही द्रव्य कहे जा सकते धर्मादि नहीं । 'द्रव्याणि' में जो बहुवचन है वह तो अनेक प्रकार के जीवों के सामानाधिकरण्य के लिए ही सार्थक हो जाता है उससे धर्मादि में द्रव्यता सिद्ध नहीं हो पायगी । यद्यपि 'अजीवकायाः' इस सूत्र से अजीवाधिकार चल रहा है परन्तु जब 'द्रव्याणि जीवाः' एक सूत्र बना दिया जाता तो स्वभावतः जीवों में ही द्रव्यता फलित होगी अजीवों में नहीं । अधिकार रहने पर भी जब तक उस प्रकार का प्रयत्न न किया जाय तबतक अजीवों में द्रव्यरूपता बन ही नहीं सकती । अतः पृथक् सूत्र बनाना उचित है इसीलिए 'च' शब्द भी सार्थक है । |