
सर्वार्थसिद्धि :
द्रव्य शब्द में 'द्रु' धातु है जिसका अर्थ प्राप्त करना होता है । इससे द्रव्य शब्द का व्युत्पत्तिरूप अर्थ इस प्रकार हुआ कि जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायों को प्राप्त होते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं । शंका – द्रव्यत्व नाम की एक जाति है उसके सम्बन्ध से द्रव्य कहना ठीक है । समाधान – नहीं, क्योंकि इस तरह दोनों की सिद्धि नहीं होती । जिस प्रकार दण्ड और दण्डी ये दोनों पृथक् सिद्ध हैं अत: उनका सम्बन्ध बन जाता है; उसप्रकार द्रव्य और द्रव्यत्व से अलग-अलग सिद्ध नहीं हैं । यदि अलग-अलग सिद्ध न होने पर भी इनका सम्बन्ध माना जाता है तो आकाश-कुसुम का और प्रकृत पुरूष के दूसरे सिर का भी सम्बन्ध मानना पड़ेगा । यदि इनकी पृथक् सिद्धि स्वीकार करते हो तो द्रव्यत्व का अलग से मानना निष्फल है । गुणों के समुदाय को द्रव्य कहते हैं यदि ऐसा मानते हो तो यहाँ भी गुणों का और समुदाय का भेद नहीं रहने पर पूर्वोक्त संज्ञा नहीं बन सकती है । यदि भेद माना जाता है तो द्रव्यत्व के सम्बन्ध से द्रव्य होता है इसमें जो दोष दे आये हैं वही दोष यहाँ भी प्राप्त होता है । शंका – जो गुणों को प्राप्त हों या गुणों के द्वारा प्राप्त हों उन्हें द्रव्य कहते हैं, द्रव्य का इस प्रकार विग्रह करने पर वही दोष प्राप्त होता है ? समाधान – नहीं, क्योंकि कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद के बन जाने से द्रव्य इस संज्ञा की सिद्धि हो जाती है । गुण और द्रव्य ये एक दूसरे को छोड़कर नहीं पाये जाते, इसलिए तो इनमें अभेद है । तथा संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होने से इनमें भेद है । प्रकृत धर्मादिक द्रव्य बहुत हैं, इसलिए उनके साथ समानाधिकरण करने के अभिप्रायसे 'द्रव्याणि' इस प्रकार बहुवचनरूप निर्देश किया है । शंका – जिस प्रकार यहाँ संख्या की अनुवृत्ति प्राप्त हुई है उसी प्रकार पुल्लिंग को भी अनुवृत्ति प्राप्त होती है ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि जिस शब्द का जो लिंग है वह कभी भी अपने लिंग का त्याग करके अन्य लिंग के द्वारा व्यवहृत नहीं होता, इसलिए 'धर्मादयो द्रव्याणि भवन्ति' ऐसा सम्बन्ध यहाँ करना चाहिए । अव्यवहित होने के कारण धर्मादिक चार को ही द्रव्य संज्ञा प्राप्त हुई, अत: अन्य का अध्यारोप करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -- |
राजवार्तिक :
1. स्व और पर कारणों से होनेवाली उत्पाद और व्यय रूप पर्यायों को जो प्राप्त हो तथा पर्यायों से जो प्राप्त होता हो वह द्रव्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप बाह्य प्रत्यय पर हैं तथा अपनी स्वाभाविक शक्ति स्व-प्रत्यय है । बाह्य-प्रत्ययों के रहने पर भी यदि द्रव्य में स्वयं उस पर्याय की योग्यता न हो तो पर्यायान्तर उत्पन्न नहीं हो सकती । दोनों के मिलने पर ही पर्याय उत्पन्न होती है, जैसे पकने योग्य उड़द यदि बोरे में पड़ा हुआ है तो पाक नहीं हो सकता और यदि घोटक (न पकने योग्य) उड़द बटलोई में उबलते हुए पानी में भी डाला जाय तो भी नहीं पक सकता । यद्यपि पर्यायें या उत्पाद-व्यय उस द्रव्य से अभिन्न होते हैं तथापि कर्तृ और कर्म में भेद-विवक्षा करके 'द्रवति गच्छति' यह निर्देश बन जाता है । जिस समय द्रव्य को कर्मपर्यायों को कर्ता बनाते हैं तब कर्म में दुधातु से 'य' प्रत्यय हो ही जाता है, और जब द्रव्य को कर्ता मानते तब बहुलापेक्षया कर्ता में 'य' प्रत्यय हो जाता है । तात्पर्य यह कि उत्पाद और विनाश आदि अनेक पर्यायों के होते रहने पर भी जो सान्ततिक द्रव्यदृष्टि से गमन करता जाय वह द्रव्य है । 2. अथवा, द्रव्य शब्द को इवार्थक निपात मानना चाहिए । 'द्रव्यं भव्ये' इस जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रानुसार 'द्रु' की तरह जो हो वह 'द्रव्य' यह समझ लेना चाहिए । जिस प्रकार बिना गांठ की सीधी द्रु-लकड़ी बढ़ई आदि के निमित्त से टेबिल कुरसी आदि अनेक आकारों को प्राप्त होती है उसी तरह द्रव्य भी उभयकारणों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है । जैसे 'पाषाण खोदने से पानी निकलता है' यहाँ अविभक्तकर्तृक करण है उसी तरह द्रव्य और पर्याय में भी समझना चाहिए । 3. प्रश्न – जैसे दण्ड के सम्बन्ध से देवदत्त में दंडी व्यवहार और ज्ञान होता है उसी तरह द्रव्यत्व नाम के सामान्य पदार्थ के सम्बन्ध से पृथिवी आदि में 'द्रव्य' यह व्यवहार हो जायगा । इसी से वह गुण कर्म आदि से व्यावृत्त भी सिद्ध हो जाती है । अतः द्रव्यत्व के सम्बन्ध से ही द्रव्य मानना चाहिए न कि पर्यायों को प्राप्त होने से । उत्तर – उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है । क्योंकि जिस प्रकार दंड के सम्बन्ध से पहिले देवदत्त अपनी जाति आदि से युक्त होकर प्रसिद्ध है और देवदत्त के सम्बन्ध के पहिले दंड अपने लक्षणों से प्रसिद्ध है उस तरह द्रव्यत्व के सम्बन्ध के पहिले न तो द्रव्य ही प्रसिद्ध है और न द्रव्यत्व ही । यदि द्रव्यत्व के सम्बन्ध के पहिले द्रव्य उपलब्ध हो तो द्रव्यत्व के सम्बन्ध की कल्पना ही व्यर्थ है । इस तरह दोनों जब सम्बन्ध से पहिले असत् हैं तब उनके सम्बन्ध की कल्पना ही नहीं हो सकती । अस्तित्व भी मान लिया जाय, पर जब उनमें पृथक्-पृथक् शक्ति नहीं है तब मिलकर भी स्व-प्रत्ययोत्पादन की शक्ति नहीं आ सकती । जैसे कि दो जन्मान्धों को एक साथ मिला देने पर भी दर्शन-शक्ति उत्पन्न नहीं होती, उसी तरह द्रव्य और द्रव्यत्व में जब द्रव्य-प्रत्यय और व्यवहार की शक्ति नहीं है तब दोनों के सम्बन्ध होने पर भी वह व्यवहार नहीं हो सकेगा । यदि द्रव्यत्व के सम्बन्ध के पहिले भी द्रव्य अपने में द्रव्य-व्यवहार करा सकता था तो द्रव्यत्व की कल्पना ही निरर्थक है । इसी तरह द्रव्यत्व भी द्रव्य-समवाय के पहिले द्रव्य-व्यवहार का निमित्त नहीं बन सकता । द्रव्यत्व के सम्बन्ध के पहिले यदि द्रव्य का 'सत्' स्वरूप भी होता तो द्रव्यत्व का सम्बन्ध मानना उचित होता किन्तु द्रव्य स्वतः सत् भी नहीं है, वह तो सत्ता के समवाय से 'सत्' होता है । यदि असत् में भी सत्तासमवाय माना जाता है तो खरविषाण में भी होना चाहिए । किंच, द्रव्यत्व सामान्य सर्वगत है, अतः यदि अतदात्मक द्रव्य में वह समवाय-सम्बन्ध से रहता है तो गुण और कर्म आदि में भी रहना चाहिए । यदि द्रव्य तदात्मक है अतः उसमें ही द्रव्यत्व का समवाय होता है, तो फिर द्रव्यत्व के समवाय की कल्पना ही निरर्थक है । यह कहना भी ठीक नहीं है कि द्रव्य चूँकि समवायिकारण है अतः द्रव्यत्व का समवाय उसी में होता है; गुण, कर्म या खरविषाण आदि में नहीं, क्योंकि द्रव्यत्व-सम्बन्ध के पहिले जब द्रव्य का कोई स्वरूप ही नहीं है तब किसे समवायिकारण कहा जाय ? यदि निःस्वरूप द्रव्य समवायिकारण हो सकता है तो खरविषाण आदि को भी होना चाहिए । असत् होने से खरविषाण यदि समवायिकारण नहीं हो सकता, तो असत्त्व तो द्रव्य में भी विद्यमान है । तात्पर्य यह कि जिस कारण द्रव्य ही समवायिकारण होता है गुण कर्म आदि नहीं, उसी कारण यह मानना होगा कि द्रव्य का निजस्वरूप ही द्रव्य का आत्मा है और उसी से द्रव्य-व्यवहार होता है । यह स्वरूप अनादि-पारिणामिक है । द्रव्य से बाहर का कोई द्रव्यत्व नाम का सामान्य-विशेष नहीं । यह समाधान भी उचित नहीं है कि - 'द्रव्य में एक विशेषता है जिसके कारण वही समवायिकारण होता है गुण कर्म आदि नहीं और इसीलिए द्रव्यत्व उसी में समवाय-सम्बन्ध से रहता है अन्य में नहीं । वह विशेषता है आधार होना । द्रव्य ही गुण कर्म आदि का आधार होता है; क्योंकि जब द्रव्य स्वतः 'सत्' भी नहीं है तब वह कैसे किसी का आधार हो सकता है ? स्वतः सिद्ध घड़ा ही जलादि का आधार होता है । 4. जो वादी द्रव्यत्व के योग से द्रव्य मानते हैं उनके यहाँ 'द्रव्य' यह व्यपदेश ही नहीं हो सकता । अभेद रूप से व्यपदेश मानने पर जैसे यष्टि के साहचर्य से पुरुष को 'यष्टि' कह देते हैं उस तरह तो द्रव्यत्व के सम्बन्ध से द्रव्य में 'द्रव्यत्व' व्यपदेश होगा न कि द्रव्य । यह समाधान ठीक नहीं है कि 'द्रव्यत्व का वाचक द्रव्यत्व शब्द के समान द्रव्य शब्द भी है अतः उसके सम्बन्ध से उसमें द्रव्य-व्यवहार हो जायगा'; क्योंकि यदि द्रव्यत्व की 'द्रव्य' यह संज्ञा स्वतः ही है तो द्रव्य को स्वतः मानने में क्या असन्तोष है ? उसकी भी 'द्रव्य' यह संज्ञा स्वतः मान लेनी चाहिए । यदि यह संज्ञा किसी अन्य पदार्थ के सम्बन्ध से है, तो वे ही दोष आते हैं । फिर यदि द्रव्यत्व के वाचक 'द्रव्यत्व और द्रव्य' ये दो शब्द हैं तो 'द्रव्य' व्यपदेश की तरह 'द्रव्यत्व' व्यपदेश भी होना चाहिए । यदि 'यष्टिमान्' की तरह भेदमूलक व्यपदेश मानते हो तो द्रव्य में 'द्रव्यत्ववान्' यह व्यपदेश होना चाहिए न कि 'द्रव्य' यह व्यपदेश । "जिस प्रकार शुक्ल-गुण के योग से 'शुक्लः पटः' इस प्रयोग में 'मतुप्' प्रत्यय का लोप होकर अभेदमूलक प्रयोग होता है उसी तरह यहाँ भी 'द्रव्य' यह प्रयोग हो जायगा" यह समाधान ठीक नहीं है, क्योंकि व्याकरण शास्त्र में गुणवाची शब्दों से 'मतुप'का लोप स्वीकार किया गया है । शुक्ल आदि शब्द द्रव्यवाची और गुणवाची दोनों प्रकार के होते हैं, किन्तु 'द्रव्यत्व' शब्द गुणवाची नहीं है अतः इससे 'मतुप्' की निवृत्ति नहीं हो सकती । इसी तरह 'त्व' की निवृत्ति भी व्याकरण-शास्त्र से सिद्ध नहीं है अतः 'द्रव्य' यह व्यपदेश नहीं हो सकता । 5. द्रव्य शब्द से भावार्थक 'त्व' प्रत्यय भी नहीं हो सकता; क्योंकि यदि भाव द्रव्य से अभिन्न आत्मभूत अनादि-पारिणामिक द्रव्यरूप ही है तो द्रव्य से द्रव्यत्व भिन्न नहीं हुआ । ऐसी दशा में 'द्रव्यत्व के समवाय' की कल्पना समाप्त हो जाती है । यदि भिन्न है तो वह द्रव्य का भाव नहीं कहा जा सकता । किंच, जिस प्रकार द्रव्य का भाव द्रव्यत्व माना जाता है उसी तरह द्रव्यत्व का अन्य भाव यदि है तो 'द्रव्यत्वत्व' का प्रसंग होने पर अनवस्था हो जायगी । यदि नहीं है तो स्वभावशून्य होने से अभाव हो जायगा । जिस प्रकार 'अवेर्मासम्' या 'अविकस्य मांसम्' दोनों विग्रहों में 'अवि' शब्द से ही प्रत्यय होता है उस तरह 'द्रव्यस्य भावः' और 'द्रव्यत्वस्य भावः' दोनों विग्रहों में द्रव्य शब्द से ही त्व-प्रत्यय नहीं हो सकता क्योकि जिस प्रकार अवि और अविक शब्द एकार्थक हैं उस प्रकार द्रव्य और द्रव्यत्व दोनों शब्द एकार्थक नहीं हैं । यहाँ विग्रह-भेद से अर्थभेद का होना अवश्यम्भावी है । 6-8. यदि द्रव्यत्व नित्य एक और निरवयव है तो वह अनेक पृथिवी आदि में कैसे रह सकता है ? यदि रहता है तो रूपादि की तरह अनेक ही हो जायगा । आकाश महापरिमाणवाला है अतः उसका एक साथ अनेक द्रव्यों को व्याप्त करना बन जाता है, परन्तु द्रव्यत्व नामक सामान्य में यह बात नहीं है क्योंकि महापरिमाण गुण द्रव्य में ही रहता है, सामान्य में नहीं । एकत्व संख्या की तरह इसमें उपचार से महत्त्व स्वीकार करके निर्वाह करना उचित नहीं है क्योंकि उपचरित पदार्थ मुख्य कार्य नहीं कर सकता । आकाश तो अनन्त प्रदेशवाला है अतः प्रदेशभेद से युगपत् अनेक जगह वृत्ति बन जाती है, पर द्रव्यत्व में यह बात नहीं है । अनेक कपड़ों में रंगा गया नील द्रव्य एक नहीं है वह तो न केवल प्रत्येक कपड़े में जुदा-जुदा है किन्तु एक कपड़े के हिस्सों में भी जुदा-जुदा है । जिसप्रकार अग्नि की उष्णता सिद्ध करने के लिए अन्य दृष्टान्त नहीं है, फिर भी स्वभाव से अग्नि उष्ण है उसी तरह 'एक की अनेक जगह वृत्ति मानने में दृष्टान्त न मिलने पर भी वह स्वभावतः सिद्ध हो जायगी' यह तर्क असङ्गत है; क्योंकि 'दृष्टान्त के अभाव में भी साध्य सिद्ध होता है' । इस प्रतिज्ञा की सिद्धि में आपने स्वयं दृष्टान्त उपस्थित किया है अतः स्ववचन विरोध है । यदि युक्तियों के अभाव में भी द्रव्यत्व को अनेकसम्बन्धी मानते हो तो द्रव्य को ही स्वतः द्रव्य क्यों नहीं मान लेते ? समवाय का खंडन तो पहिले किया जा चुका है । 9-12. 'गुणसन्द्राव अर्थात् जो गुणों को प्राप्त हो या गुणों के द्वारा प्राप्त हो वह द्रव्य है ।' यह मत भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वथा एकान्त पक्ष में अनेक दोष आते हैं । गुणों से यदि द्रव्य को अभिन्न माना जाता है तो कर्ता और कर्म रूप से भिन्न निर्देश नहीं हो सकेगा । अभेद पक्ष में या तो गुण ही रह जायेंगे या फिर द्रव्य ही । यदि गुण ही रहते हैं, तो निराश्रय गुणों का अभाव ही हो जायगा । यदि द्रव्य रहता है, तो बिना लक्षण या स्वभाव के उसका कोई अस्तित्व नहीं रह सकेगा । यदि भिन्न मानते हैं तो भी दोनों का निःस्वरूप होने से अभाव ही हो जायगा । गुण तो निष्क्रिय होते हैं अतः उनका द्रव्य के प्रति अभिद्रवण (गमन) भी नहीं हो सकता । वैशेषिक सूत्र में लिखा ही है कि "दिशा काल और आकाश क्रियावालों से विलक्षण होने के कारण निष्क्रिय हैं । कर्म और गुण भी" इसी तरह निष्क्रिय द्रव्य भी गुणों की तरफ गमन नहीं कर सकते । अतः 'संद्रवति' यह लक्षण भी ठीक नहीं है । जैसे अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखनेवाले ग्राम को स्वतःसिद्ध देवदत्त प्राप्त होता है, उस तरह यहाँ गुण स्वतन्त्र सत्तावाले नहीं हैं जिससे द्रव्य उन्हें प्राप्त हो । 'पार्थिव परमाणुओं में अग्निसंयोग से श्याम रूप आदि का विनाश होकर लाल रूप उत्पन्न होता है, अतः यहाँ गुणों को द्रव्य प्राप्त होता ही है' यह तर्क भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि द्रव्य ठहरता है और रूपादि नष्ट होते और उत्पन्न होते हैं तो रूपादि गुण और द्रव्यों में भेद हो जायगा । यदि इनका समवाय मानकर इन्हें अयुतसिद्ध स्वीकर किया जाता है तो द्रव्य की तरह रूपादिगुण भी नित्य हो जायगा । अयुतसिद्धि तो तभी हो सकती है जब द्रव्य के काल में रूपादि सदा विद्यमान रहें । इस तरह या तो रूपादि की तरह द्रव्य अनित्य हो जायगा या फिर द्रव्य की तरह रूपादि नित्य हो जायेंगे । जिस प्रकार जो पंडित है वह मूर्ख नहीं तथा जो मूर्ख है यह पंडित नहीं क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है, उसी तरह यदि समवाय के कारण द्रव्य से रूपादि अयुतसिद्ध होंगे तो वे द्रव्य की तरह न तो उत्पन्न ही होंगे और न विनष्ट ही । यदि ये विनष्ट भी होंगे तथा उत्पन्न भी होंगे और द्रव्य स्थिर रहेगा तो मानना होगा कि वे अयुतसिद्ध नहीं हैं । यदि गुण और द्रव्य पृथक हैं तो गुणों के द्वारा द्रव्य का नियत प्राप्त होना उसी तरह असंभव है जिस तरह कि घट के द्वारा पट का । "भेद में ही अग्नि और धूम की तरह उपलभ्य-उपलम्भक भाव होता है अभेद में नहीं; क्योंकि स्वात्मा में वृत्ति का विरोध है, वही अंगुली का अग्रभाग अपने आपको नहीं छू सकता । इसी तरह 'द्रव्य और गुण में अभेद मानने पर वृत्ति नहीं बन सकती" यह तर्क ठीक नहीं है, क्योंकि 'प्रदीप अपने स्वरूप को प्रकाशित करता है' यहाँ स्वात्मा में ही प्रकाशन क्रिया देखी गई है । वह स्वरूप-प्रकाशन में अन्य प्रदीप की आवश्यकता नहीं रखता । हम पूछते हैं कि इस मत के उपदेष्टा अपने स्वरूप को जानते हैं या नहीं ? यदि नहीं जानते हैं; तो शास्त्र-विरोध और स्ववचन-विरोध होता है । वैशेषिक दर्शन में बताया है कि "आत्मा और मन का संयोग विशेष से आत्मप्रत्यक्ष होता है" । असर्वज्ञता का भी प्रसंग आता है, क्योंकि जो अपनी आत्मा को ही नहीं जानता वह इतर पदार्थों को कैसे जान सकता है ? यदि स्वरूप को जानता है; तो 'स्वात्मा में वृत्ति का विरोध है' यह मत खंडित हो जाता है । अतः द्रव्यात्मक ही पर्याय स्वीकार करना चाहिए । जो गुण-समुदायमात्र द्रव्य स्वीकार करते हैं उनके यहाँ भी 'गुणसन्द्रावो द्रव्यम्' यह द्रव्य का लक्षण नहीं बनता; क्योंकि इनके मत में भी कर्ता और कर्म का भेद नहीं होता । गुण-समुदायमात्रवादी के न तो गुण पृथक् हैं और न समुदाय ही, जिससे कर्तृकर्मभाव बनाया जा सके। 'दीपक अपने स्वरूप को प्रकाशित करता है' यहाँ भी भासुर रूप और द्रव्य में कथञ्चित् भेद मानकर ही कर्तृकर्मभाव प्रयुक्त हुआ है । यदि सर्वथा अभेद ही होता तो सभी द्रव्य भासुररूपवाले हो जाते और भासुरद्रव्य सदा भासुररूपवाला ही बना रहता, परन्तु उसमें कालापन भी आ जाता है । फिर जब गुण पृथक उपलब्ध नहीं होते तब समुदाय की कल्पना करना उचित नहीं है । गुण का अर्थ है विशेषण । गुणी-विशेष्य के बिना गुणों में गुणत्व ही कैसे आ सकता है ? समुदाय गुणों से यदि अभिन्न है; तो या तो समुदाय रहेगा या गुण । यदि भिन्न है; तो 'यह गुणों का समुदाय है' यह व्यवहार ही नहीं हो सकेगा । यदि अवक्तव्य है, तो 'अवक्तव्य' शब्द से भी उसका कथन नहीं हो सकेगा । यदि समुदाय है तो अवक्तव्य नहीं हो सकता और यदि अवक्तव्य है तो समुदाय नहीं हो सकता, क्योंकि विद्यमान अर्थ की ही संज्ञा होती है, अवक्तव्य तो सर्ववचनों के अगोचर होने से निःस्वरूप ही है । यदि गुण वक्तव्य है और समुदाय अवक्तव्य है तो दोनों में लक्षणभेद होने से भेद हो जायगा । यदि त्र्यणुक आदि स्कन्धों को रूपादिपरमाणु का मात्र समुदाय माना जाता है और उस अवस्था में किसी नई पर्याय का उत्पाद नहीं होता, तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि परमाणुओं की अतीन्द्रियता समुदाय में भी बनी रहती है तब स्कन्धों को दृश्य नहीं होना चाहिए । और यदि स्कन्ध-प्रतीति को भ्रान्त माना जाता है तो प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षाभास तथा अनुमान और अनुमानाभास में कोई भेद नहीं रह जायगा । इनमें भेद बाह्यार्थ की प्राप्ति और अप्राप्ति से ही पड़ता है । एकान्तवादियों के मत में 'द्रव्यं भव्ये' यह लक्षण भी नहीं बनता; क्योंकि जब द्रव्य ही असिद्ध है तब उसमें भव्य-होने योग्य की कल्पना ही नहीं हो सकती । गुण कर्म और सामान्य आदि से जब द्रव्य सर्वथा भिन्न है तब वह खर-विषाण की तरह स्वयं असत् होने से भवन-क्रिया का कर्ता नहीं हो सकता । जो स्वयं असिद्ध है उसमें समवाय-सम्बन्ध के कारण स्वरूप-कल्पना करना भी संभव नहीं है । गुणसमुदाय पक्ष में चूँकि समुदाय काल्पनिक है और गुणों का पृथक कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता अतः उभयथा असत् पदार्थ भवन-क्रिया का कर्ता नहीं बन सकता । अनेकान्तवादी के मत में तो द्रव्य और पर्याय में कथञ्चित् भेद होने से 'गुणसन्द्रावो द्रव्यम्' और 'द्रव्यं भव्ये' ये दोनों लक्षण बन जाते हैं । 13-14. 'द्रव्याणि' में बहुवचन धर्माधर्मादि बहुत के सामानाधिकरण्य के लिए दिया है । सामानाधिकरण्य होने पर भी चूँकि 'द्रव्य' शब्द नित्य नपुंसकलिंग है अतः पहिले सूत्र में निर्दिष्ट धर्माधर्मादि के समान उसमें पुल्लिंग का प्रयोग नहीं हुआ है । |