+ क्रिया -
निष्क्रियाणि च ॥7॥
अन्वयार्थ : और (धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य) निष्क्रिय (क्रियारहित) हैं ।
Meaning : These three (the medium of motion, the medium of rest, and space) are also without activity (movement).

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

अन्‍तरंग और बहिरंग निमित्त से उत्‍पन्‍न होनेवाली जो पर्याय द्रव्‍य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्‍त कराने का कारण है वह क्रिया कहलाती है और जो इस प्रकार की क्रिया से रहित हैं वे निष्क्रिय कहलाते हैं ।

शंका – यदि धर्मादिक द्रव्‍य निष्क्रिय हैं तो उनका उत्‍पाद नहीं बन सकता, क्‍योंकि घटादिक का क्रियापूर्वक ही उत्‍पाद देखा जाता है । और उत्‍पाद नहीं बनने से उनका व्‍यय नहीं बनता । अत: सब द्रव्‍य उत्‍पाद आदि तीन रूप होते हैं इस कल्‍पना का व्‍याघात हो जाता है ?

समाधान –
नहीं, क्‍योंकि इनमें उत्‍पाद आदिक तीन अन्‍य प्रकार से बन जाते हैं । यद्यपि इन धर्मादिक द्रव्‍यों में क्रिया-निमित्तक उत्‍पाद नहीं है तो भी इनमें अन्‍य प्रकार से उत्‍पाद माना गया है । यथा - उत्‍पाद दो प्रकार का है, स्‍वनिमित्तक उत्‍पाद और पर-प्रत्‍यय उत्‍पाद । स्‍व-निमित्तक यथा - प्रत्‍येक द्रव्‍य में आगम प्रमाण से अनन्‍त अगुरुलघु गुण (अविभाग-प्रतिच्‍छेद) स्‍वीकार किये गये हैं जिनका छह स्‍थानपति‍त वृद्धि और हानि के द्वारा वर्तन होता रहता है, अत: इनका उत्‍पाद और व्‍यय स्‍वभाव से होता है । इसी प्रकार पर-प्रत्‍यय का भी उत्‍पाद और व्‍यय होता है । यथा - ये धर्मादिक द्रव्‍य क्रम से अश्‍व आदि की गति, स्थिति और अवगाहन में कारण हैं । चूँकि इन गति आदिक में क्षण-क्षण में अन्‍तर पड़ता है इसीलिए इनके कारण भी भिन्‍न-भिन्‍न होने चाहिए, इस प्रकार इन धर्मादिक द्रव्‍यों में पर-प्रत्‍यय की अपेक्षा उत्‍पाद और व्‍यय का व्‍यवहार किया जाता है ।

शंका – यदि धर्मादिक द्रव्‍य निष्क्रिय हैं तो ये जीव और पुद्गलों की गति आदिक के कारण नहीं हो सकते; क्‍योंकि जलादिक क्रियावान् होकर ही मछली आदि की गति आदि में निमित्त देखे जाते हैं, अन्‍यथा नहीं ?

समाधान –
यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि चक्षु इन्द्रिय के समान ये बलाधान में निमित्तमात्र हैं । जैसे चक्षु इन्द्रिय रूप के ग्रहण करने में निमित्तमात्र है, इसलिए जिसका मन व्‍याक्षिप्‍त है उसके चक्षु इन्द्रिय के रहते हुए भी रूप का ग्रहण नहीं होता । उसी प्रकार प्रकृत में समझ लेना चाहिए । इस प्रकार अधिकार प्राप्‍त धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्‍य को निष्क्रिय मान लेने पर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं यह प्रकरण से अपने-आप प्राप्‍त हो जाता है ।

शंका – काल द्रव्‍य भी सक्रिय होगा ?

समाधान –
नहीं; क्‍योंकि उसका यहाँ अधिकार नहीं है । इसलिए इन द्रव्‍यों के साथ उसका अधिकार नहीं किया है ।

'अजीवकाया:' इत्‍यादि सूत्र में 'काय' पद के ग्रहण करने से प्रदेशों का अस्तित्‍व मात्र जाना जाता है, प्रदेशों की संख्‍या नहीं मालूम होती, अत: उसका निर्धारण करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --
राजवार्तिक :

1-2. बाह्य और आभ्यन्तर दोनों कारणों से होनेवाली द्रव्य की उस पर्याय को क्रिया कहते हैं जो एक देश से देशान्तर प्राप्ति में कारण होती है । उभय कारणों का ग्रहण इसलिए किया है कि क्रिया द्रव्य का सदा वर्तमान स्वभाव नहीं है । यदि होता, तो द्रव्य में प्रतिक्षण क्रिया होनी चाहिए थी । क्रिया द्रव्य से भिन्न नहीं है किन्तु क्रिया परिणामी द्रव्य की पर्याय है । यदि भिन्न हो तो द्रव्य निश्चल हो जायगा । ज्ञानादि या रूपादि गुणों की व्यावृत्ति के लिए 'देशान्तरप्राप्तिहेतु' यह विशेषण दिया गया है । क्रिया शब्द से 'निर' उपसर्ग का समास करने पर 'निष्क्रिय' शब्द सिद्ध होता है ।

3. धर्मादि द्रव्यों में क्रियानिमित्तक उत्पाद और व्यय नहीं होते अतः निष्क्रिय होने से उत्पादादि का अभाव करना उचित नहीं है । उत्पाद दो प्रकार का है -- स्वनिमित्तक और परप्रत्यय । अनन्त अगुरुलघुगुणों की षट्स्थानपतित वृद्धि और हानि से सभी द्रव्यों में स्वाभाविक उत्पाद व्यय हैं । पर-प्रत्यय भी उत्पाद-व्यय अश्वादि की गति-स्थिति और अवगाह में निमित्त होने से होते हैं । उन पदार्थों में प्रतिक्षण परिणमन होता है अतः उनकी अपेक्षा गति स्थिति और अवगाहन की हेतुता में भेद होता रहता है ।

4-6. प्रश्न – क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदि की गति और स्थिति में निमित्त देखे गये हैं, अतः निष्क्रिय धर्माधर्मादि गतिस्थिति में निमित्त कैसे हो सकते हैं ?

उत्तर –
जैसे देखने की इच्छा करनेवाले आत्मा को चक्षु इन्द्रिय बलाधायक हो जाती है, इन्द्रियान्तर में उपयुक्त आत्मा को वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती । आयु के क्षय हो जाने पर आत्मा के निकल जाने पर शरीर में विद्यमान भी इन्द्रियाँ रूपादिदर्शन नहीं कराती, अतः ज्ञात होता है कि आत्मा में ही वह शक्ति है, इन्द्रियाँ तो मात्र बलाधायक होती हैं, उसी प्रकार स्वयं गति, स्थिति और अवगाहन रूप से परिणमन करनेवाले द्रव्यों की गति आदि में धर्मादि-द्रव्य निमित्त हो जाते हैं, स्वयं क्रिया नहीं करते । जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामर्थ्य से गमन न करने पर भी सभी द्रव्यों से संबद्ध है और सर्वगत कहलाता है उसी तरह धर्मादि द्रव्यों की भी गति आदि में निमित्तता समझनी चाहिए । 'च' शब्द से धर्म-अधर्म और आकाश का सम्बन्ध ज्ञात हो जाता है । धर्माधर्मादि में निष्क्रियत्व का नियम होने से अर्थात् ही जीव और पुद्गल में स्व-पर-प्रत्यय सक्रियता सिद्ध हो जाती है ।

7-13. प्रश्न – आत्मा स्वयं तो सर्वगत होने से निष्क्रिय है, केवल क्रियाहेतु गुण अदृष्ट के समवाय से पर-पदार्थों की क्रिया में हेतु होता है । अतः आत्मा को सक्रिय कहना उचित नहीं है ?

उत्तर –
जैसे वायु स्वयं क्रियाशील होकर ही वृक्ष आदि में क्रिया करती है उसी तरह स्वयं क्रिया-स्वभाव आत्मा के वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षय या क्षयोपशम, अङ्गोपाङ्ग नाम-कर्म का उदय और विहायोगति नामकर्म से विशेष शक्ति मिलने पर गति में तत्पर होते ही हाथ-पैर आदि में क्रिया होती है । निष्क्रिय आत्मा दूसरे पदार्थ में क्रिया नहीं करा सकता । अतः वैशेषिक का यह सिद्धान्त खंडित हो जाता है - "आत्मसंयोग और प्रयत्न से हाथ में क्रिया होती है" क्योंकि जिस प्रकार निष्क्रिय आकाश का घटादिक में संयोग होनेपर भी घट में क्रिया नहीं होती उसी तरह निष्क्रिय आत्मा में भी हाथ आदि से संयोग होनेपर भी क्रिया नहीं हो सकती । जैसे दो जन्मान्धों के सम्बन्ध से दर्शनशक्ति उत्पन्न नहीं होती उसी तरह आत्मसंयोग और प्रयत्न जब दोनों निष्क्रिय हैं तब इनके सम्बन्ध से क्रिया उत्पन्न नहीं हो सकती । वैशेषिक सूत्र में बताया है कि "दिशा काल और आकाश क्रियावाले द्रव्यों से विलक्षण होने से निष्क्रिय हैं । इसी तरह कर्म और गुण पदार्थ भी निष्क्रिय हैं।" संयोग और प्रयत्न दोनों गुण हैं अतः निष्क्रिय हैं। यह तर्क भी ठीक नहीं है कि "जैसे अग्नि-संयोग उष्णता की अपेक्षा करके घट आदि पदार्थों में पाकज रूप आदि को उत्पन्न करता है स्वयं अग्नि में नहीं उसी तरह अदृष्ट की अपेक्षा लेकर आत्मसंयोग और प्रयत्न हाथ आदि में क्रिया उत्पन्न कर देंगे अपनेमें नहीं।" क्योंकि इससे तो हमारा ही पक्ष सिद्ध होता है। अग्निसंयोग का दृष्टान्त भी ठीक नहीं है क्योंकि अनुष्णशीत अप्रेरक अनुपघाती और अप्राप्त संयोग, रूपादि की उत्पत्ति या उच्छेद में कारण नहीं हो सकता । गुरुत्व भी क्रियापरिणामी द्रव्य का गुण होकर ही अन्य द्रव्य में कियाहेतु हो सकता है । इसी तरह आत्मसंयोग और प्रयत्न भी क्रियापरिणामी द्रव्य के गुण होकर ही क्रियाहेतु होंगे । अतः तथापरिणत (क्रियापरिणत) द्रव्य को ही क्रियाहेतु मानना उचित है । धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल की गति में अप्रेरक कारण है अतः वह निष्क्रिय होकर भी बलाधायक हो सकता है पर आप तो आत्मगुण को पर की क्रिया में प्रेरक निमित्त मानते हैं अतः धर्मास्तिकाय का दृष्टान्त विषम है । कोई भी निष्क्रिय द्रव्य या उसका गुण प्रेरक-निमित्त नहीं हो सकता । धर्मास्तिकाय द्रव्य तो अन्यत्र बलाधायक हो सकता है पर निष्क्रिय आत्मा का गुण, जो कि पृथक् उपलब्ध नहीं होता क्रिया का बलाधायक भी संभव नहीं है । यदि गुण का पृथक् सद्भाव मानते हैं तो दोनों का अभाव हो जायगा ।

14-16. यदि आत्मा को निष्क्रिय मानते हैं तो आकाशप्रदेश की तरह वह शरीर में क्रियाहेतु नहीं हो सकेगा । एकान्त से अमूर्त और निष्क्रिय आत्मा का शरीर से सम्बन्ध भी संभव नहीं, अतः परस्पर उपकार नहीं बन सकेगा । जैन तो कार्मणशरीर के सम्बन्ध से आत्मा में क्रिया मानते हैं, अतः जब आठों कर्मों का नाश होने से शरीर का वियोग हो जाता है तो अशरीरी आत्मा निष्क्रिय बन जाता है । क्योंकि कारण के अभाव में कार्य का अभाव होना सर्वसिद्ध है । जो क्रिया कर्म और नोकर्म के निमित्त से आत्मा में होती है उसका अभाव कर्म-नोकर्म के अभाव में हो ही जाना चाहिए, पर आत्मा की स्वाभाविक ऊर्ध्वगतिरूप क्रिया तो मुक्त के भी स्वीकार की जाती है । मुक्त में भी अनन्तवीर्य ज्ञान, दर्शन और सुखानुभवन आदि क्रियाएँ होती ही रहती हैं । आगे दसवें अध्याय में पूर्वप्रयोग और असंगत्व आदि कारणों से मुक्तों की ऊर्ध्वगति का समर्थन किया भी है ।

17. पुद्गलद्रव्यों के भी स्वाभाविक और प्रायोगिक दोनों प्रकार की क्रियाएँ होती हैं ।

18-19. क्रिया क्रियावान् द्रव्य से अभिन्न है; क्योंकि वह उसी का परिणामविशेष है, जैसे कि अग्नि की उष्णता । जिस प्रकार उष्णता को अग्नि से भिन्न माननेपर अग्नि के अभाव का ही प्रसंग होता है उसी तरह यदि क्रिया को भिन्न माना जायगा तो द्रव्य स्पन्दरहित निष्क्रिय हो जायगा और इस तरह क्रियावाले द्रव्यों का अभाव ही हो जायगा । दंड स्वतःसिद्ध है, अतः उसके सम्बन्ध से पुरूष में 'दंडी' यह व्यपदेश हो सकता है पर क्रिया तो द्रव्य से भिन्न-पृथकसिद्ध नहीं है अतः दंडी की तरह 'क्रियावान्' व्यपदेश नहीं हो सकता ।

20-21. समवाय सम्बन्ध के द्वारा 'क्रियावान' व्यपदेश मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि यदि क्रिया और क्रियावान् द्रव्य में अयुतसिद्धत्व-अभिन्नत्व माना जाता है तो द्रव्य और क्रिया का पार्थक्य ही नहीं रहता, फिर सम्बन्ध कैसा ? यदि भिन्नता मानी जाती है तो अयुतसिद्ध सम्बन्ध नहीं बन सकेगा । क्रिया और क्रियावान् द्रव्य में तो भेद देखा जाता है । क्रिया क्षणिक और सकारण है जब कि द्रव्य अवस्थित और अकारण है । यदि दोनों में अभेद माना जायगा तो द्रव्य की तरह क्रिया भी नित्य और अकारण हो जायगी, और क्रिया की तरह द्रव्य भी क्षणिक और सकारण हो जायगा ।

22-25. महान् अहंकार तथा परमाणु आदि क्रियावान होकर भी नित्य माने जाते हैं अतः दीपक के दृष्टान्त से जीव में क्रियावान् होने से अनित्यत्व का प्रसंग नहीं आ सकता । सर्वानित्यत्ववादी का यह हेतु असिद्ध है कि - "सब पदार्थ प्रत्ययजन्य हैं और निरीहक हैं" क्योंकि ऐसा मानने पर क्रियावत्त्व का लोप हो जायगा । जैन पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से क्रियावान जीवादि द्रव्यों को अनित्य भी मानते हैं । इसी तरह द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से जब नित्यत्व है तब हम उसे प्रदीप की तरह क्रियावाला भी नहीं मानते । अतः इस पक्ष में प्रदीप दृष्टान्त भी ठीक नहीं है । द्रव्यार्थिक की प्रधानता में सभी पदार्थ उत्पाद और व्यय से शून्य हैं, निष्क्रिय हैं और नित्य हैं । पर्यायर्थिकनय से ही पदार्थों में उत्पाद और व्यय होते हैं, वे सक्रिय और अनित्य हैं । इस तरह अनेकान्त समझना चाहिए ।