
सर्वार्थसिद्धि :
जो संख्या से परे हैं वे असंख्यात कहलाते हैं । असंख्यात तीन प्रकार का है - जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट । उनमें से यहाँ अजघन्योत्कृष्ट असंख्यात का ग्रहण किया है । 'प्रदिश्यन्ते इति प्रदेश:' यह प्रदेश शब्द की व्युत्पत्ति है । तात्पर्य यह है कि जिससे विवक्षित परिमाण का संकेत मिलता है, उसे प्रदेश कहते हैं । परमाणु का लक्षण आगे कहेंगे । वह जितने क्षेत्र में रहता है वह प्रदेश है ऐसा व्यवहार किया जाता है । धर्म, अधर्म और एक जीव के प्रदेशों की संख्या समान है । इनमें-से धर्म और अधर्मद्रव्य निष्क्रिय हैं और लोकाकाशभर में फैले हुए हैं । यद्यपि जीव के प्रदेश धर्म और अधर्म द्रव्य के बराबर ही हैं तो भी वह संकोच और विस्तार-स्वभाववाला है, इसलिए कर्म के निमित्त से छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है उतनी अवगाहना का होकर रहता है । और केवलि-समुद्घात के समय जब यह लोक को व्यापता है उस समय जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर, नीचे और तिरछे समस्त लोक को व्याप लेते हैं । अब आकाश द्रव्य के कितने प्रदेश हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -- |
राजवार्तिक :
1-2. गिनती न हो सकने के कारण वे असंख्येय हैं । वे गिनती की सीमा को पार कर गये हैं । जैसे सर्वज्ञ अनन्त को अनन्त रूप में जानता है उसी तरह वह असंख्यात को असंख्यात रूप में जानता है । इस तरह सर्वज्ञता में कोई बाधा नहीं है । यहाँ अजघन्योत्कृष्ट असंख्येय लेना चाहिए । 3-4. एक अविभागी परमाणु जितने क्षेत्र में ठहरता है उसे प्रदेश कहते हैं । धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोक को व्याप्त करके स्थित हैं, ये निष्क्रिय हैं । जीव असंख्यातप्रदेशी होने पर भी संकोच-विस्तारशील होने से कर्म के अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीर में तत्प्रमाण होकर रहता है । जब इसकी समुद्घात काल में लोकपूर्ण अवस्था होती है तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश सुमेरु पर्वत के नीचे चित्र और वनपटल के मध्य के आठ प्रदेशों पर स्थित हो जाते हैं, बाकी प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर फैल जाते हैं । 5-6. एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है, वह घट की तरह संयुक्त-द्रव्य नहीं है फिर भी उसमें प्रदेश वास्तविक हैं उपचार से नहीं । घट के द्वारा जो आकाश का क्षेत्र अवगाहित किया जाता है वही अन्य पटादि के द्वारा नहीं । दोनों जुदे-जुदे हैं । यदि प्रदेश-भिन्नता न होती तो वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता था । अतः द्रव्य अविभागी होकर भी प्रदेश-शून्य नहीं है । वह घटादि की तरह द्रव्य-विभागवाला (सावयव) भी नहीं है अतः अविभागी निरवयव और अखंड मानने में कोई बाधा नहीं है । 7-9. जीव अनन्त हैं अतः 'एकजीव' का असंख्यातप्रदेशित्व बताने के लिए 'एक' पद दिया है । नाना जीवों की अपेक्षा तो अनन्त प्रदेश हो सकते हैं । द्रव्यों से प्रदेशों का कथञ्चित् भेद होने से षष्ठी विभक्ति-द्वारा 'धर्माधर्मैकजीवानाम्' यह भेदनिर्देश कर दिया है । 'असंख्येयप्रदेशाः' ऐसा लघुनिर्देश न करके 'प्रदेशाः' का पृथक् निर्देश इसलिए किया है कि उसका सम्बन्ध आगे के सूत्रों में होता जाय । यदि 'असंख्येयप्रदेशाः' ऐसा द्रव्यप्रधान निर्देश करते तो 'प्रदेश' पद गौण हो जाने से आगे उसका सम्बन्ध नहीं हो पाता । 10-13. माणवक (सिंह के बच्चे) में सिंह की तरह धर्मादि द्रव्यों में प्रदेश-कल्पना औपचारिक नहीं है । क्योंकि जिस प्रकार क्रूरता, शूरता आदि गुणवाले पन्चेन्द्रिय तिर्यंच में सिंह शब्द मुख्य रूप से तथा सादृश्य की अपेक्षा माणवक में गौणरूप से दो प्रकार के प्रत्ययों का उत्पादक प्रसिद्ध है उस तरह धर्मादि और पुद्गलादि में होनेवाले 'प्रदेशवत्त्व' प्रत्यय में कोई भेद नहीं दिखाई देता । सिंह में मुख्य सिंह प्रत्यय होने से माणवक में गौण-कल्पना हो भी सकती है । पर यहाँ ऐसा है । जब केवल सिंह शब्द का प्रयोग होता है तब मुख्य प्रदेशों का बोध होता है तथा जब सोपपद अर्थात् माणवकसिंह की तरह किसी अन्यपद से युक्त का प्रयोग होता है तब गौण-व्यवहार किया जाता है । किन्तु यहाँ जैसे 'घट के प्रदेश' प्रयोग होता है वैसे ही 'धर्मादि के प्रदेश' यह भी सोपपद ही प्रयोग होता है, अतः कोई विशेषता नहीं है । सिंहगत क्रौर्यादि धर्मों का एकदेश सादृश्य देखकर माणवक में किया जानेवाला 'सिंह व्यवहार' गौण हो सकता है किन्तु पुद्गल और धर्मादि में सभी के स्वाधीन मुख्य ही प्रदेश हैं अतः उपचार कल्पना नहीं बनती । 14. प्रश्न – यदि घटादि की तरह धर्मादि के भी मुख्य ही प्रदेश होते तो घटादि के ग्रीवा, पैंदा, आदि की तरह स्वतः उनमें भी प्रदेशवान् की तरह व्यवहार होना चाहिए द्रव्यान्तर से नहीं । धर्मादि द्रव्यों में प्रदेश-व्यवहार पुद्गल परमाणु के द्वारा रोके गये आकाश-प्रदेश के नाप से होता है । अतः मानना चाहिए कि उनमें मुख्य प्रदेश नहीं है । उत्तर – चूंकि धर्मादि द्रव्य अतीन्द्रिय हैं, परोक्ष हैं, अतः उनमें मुख्यरूप से प्रदेश विद्यमान रहने पर भी स्वतः उनका ज्ञान नहीं हो पाता । इसलिए परमाणु के नाप से उनका व्यवहार किया जाता है । 15. अर्हन्त के द्वारा प्रणीत गणधर के द्वारा अनुस्मृत तथा आचार्यों की परम्परा से प्राप्त श्रुत (आगम) में इन सब द्रव्यों के प्रदेशों का वर्णन इस प्रकार मिलता है - “एक-एक आत्म-प्रदेश में अनन्तानन्त ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रदेश ठहरे हैं । एक-एक कर्मप्रदेश में अनन्तानन्त औदारिकादि शरीरों के प्रदेश हैं । एक-एक शरीर-प्रदेश में अनन्तानन्त विस्रसोपचय परमाणु गीले गुड़ में धूल की तरह लगे हुए हैं ।" इसी तरह धर्मादि द्रव्यों में भी मुख्य प्रदेश जानना चाहिए । 16. आगम में जीव के प्रदेशों को स्थित और अस्थित दो रूप में बताया है । सुख-दुःख का अनुभव पर्याय-परिवर्तन या क्रोधादि दशा में जीव के प्रदेशों की उथल-पुथल को अस्थिति तथा उथल-पुथल न होने को स्थिति कहते हैं । जीव के आठ मध्य-प्रदेश सदा निरपवाद-रूप से स्थित ही रहते हैं । अयोगकेवली और सिद्धों के सभी प्रदेश स्थित हैं । व्यायाम के समय या दुःख परिताप आदि के समय जीवों के उक्त आठ मध्य-प्रदेशों को छोड़कर बाकी प्रदेश अस्थित होते हैं । शेष जीवों के स्थित और अस्थित दोनों प्रकार के हैं । अतः ज्ञात होता है कि द्रव्यों के मुख्य ही प्रदेश हैं, गौण नहीं । 17. चूंकि आगम में वीर्यान्तराय और मति-श्रुत-ज्ञानावरण का क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय में आत्मा के उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण प्रदेश में चक्षु-इन्द्रिय पर्याय की प्राप्ति बताई गई है । इस तरह अमुक प्रदेशों में उसका परिणमन बताने से ज्ञात होता है कि आत्मादि के मुख्य ही प्रदेश हैं । 18. द्रव्यों की प्रतिनियत स्थानों में स्थिति बताई जाने से भी ज्ञात होता है कि आकाश आदि में मुख्य ही प्रदेश हैं । पटना आकाश के दूसरे प्रदेश में है और मथुरा अन्य प्रदेश में । यदि आकाश अप्रदेशी होता तो पटना और मथुरा एक ही जगह हो जाते । 19. वैशेषिकों के मत में संसारी जीव के कान के भीतर आया हुआ आकाशप्रदेश श्रोत्र कहलाता है । यह अदृष्टविशेष से संस्कृत होकर शब्दोपलब्धि करता है । यदि आकाश के प्रदेश न माने जायंगे तो संपूर्ण आकाश को श्रोत्र कहना होगा । ऐसी दशा में सभी प्राणियों को सभी शब्द सुनाई देना चाहिए । यदि प्रदेशविशेष को श्रोत्र कहते हैं तो आकाश को अप्रदेशी कहना खंडित हो जाता है । अथवा एक परमाणु पूरे आकाश से सम्बन्ध को प्राप्त होता है या एक देश से ? यदि पूरे आकाश से, तो या तो आकाश को परमाणुरूप मानना होगा या फिर परमाणु को आकाश के बराबर । यदि एकदेश से; तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि आकाश के मुख्य ही प्रदेश हैं । 20. वैशेषिक मत में कर्म उत्पन्न होते ही अपने आश्रय को एक आधार से हटाकर दूसरे आधार से संयुक्त कराता है । यह कर्म का स्वभाव है । इससे स्पष्ट है कि आकाश के प्रदेशभेद हैं अन्यथा किसी से संयोग और किसी से वियोग कैसे बन सकता है ? यदि प्रदेशान्तर संक्रमण न हो तो कर्म का ही अभाव हो जायगा । 21. आत्मा के, सामान्य पुरुष-शरीर की दृष्टि से, प्रदेशों में एकत्व है और सिर, पैर, हाथ, नाक, आदि अंग-उपांग रूप पर्याय की दृष्टि से भेद है । इस तरह प्रदेशों के एकत्व और अनेकत्व में अनेकान्त है । अथवा, पुरुष द्रव्य की दृष्टि से एकत्व होने पर पाचक, लावक (काटनेवाला) आदि पर्यायों की दृष्टि से अनेकत्व है । अथवा, पिता, पुत्र, चाचा, मामा आदि पर्यायों की दृष्टि से अनेकता है । अथवा, पंचेन्द्रिय, आरोग्य, मेधावी, पटु, कुशल, सुशील, आदि व्यवहारों में कारणभूत पर्यायों की दृष्टि से अनेकता है । इसीतरह धर्म, अधर्म, आकाश, आदि में स्व-द्रव्य की विवक्षा में एक-प्रदेशत्व है और तत्तत् (प्रतिनियत) पर्यायों की विवक्षा में अनेक-प्रदेशत्व है । 22. शुद्धनय की दृष्टि से अखंड उपयोग स्वभाव की विवक्षा से आत्मा में प्रदेश-भेद न होनेपर भी व्यवहारनय से संसारी जीव अनादि कर्मबन्धन बद्ध होने से सावयव ही है । |