+ जीव के अवगाह का नियम -
प्रदेश-संहार-विसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥16॥
अन्वयार्थ : क्‍योंकि प्रदीप के समान जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्‍तार होने के कारण लोकाकाश के असंख्‍येयभागादिक में जीवों का अवगाह बन जाता है॥१६॥
Meaning : (It is possible) by the contraction and expansion of the space-points (of a soul) as in the case of the light of a lamp.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

चूँकि आत्‍मा अमूर्त स्‍वभाव है तो भी अनादिकालीन बन्‍ध के कारण एकपने को प्राप्‍त होने से वह मूर्त हो रहा है और कार्मण शरीर के कारण वह छोटे- बड़े शरीर में रहता है, इसलिए वह प्रदेशों के संकोच और विस्‍तार स्‍वभाववाला है और इसलिए शरीर के अनुसार दीपक के समान उसका लोक के असंख्‍यातवें भाग आदि में रहना बन जाता है। जिस प्रकार निरावरण आकाश-प्रदेश में यद्यपि दीपक के प्रकाश के परिमाण का निश्‍चय नहीं होता तथापि वह सकोरा, ढक्‍कन , तथा आवरण करने वाले दूसरे पदार्थों के आवरण के वश से तत्‍परिमाण होता है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए।

शंका – धर्मादिक द्रव्‍यों के प्रदेशों का परस्‍पर प्रवेश होने के कारण संकर होने से अभेद प्राप्‍त होता है ?

समाधान –
नहीं; क्योंकि परस्‍पर अत्‍यन्‍त संश्‍लेष सम्‍बन्‍ध हो जाने पर भी वे अपने-अपने स्‍वभाव को नहीं छोड़ते; इसलिए उनमें अभेद नहीं होता । कहा भी है-

'सब द्रव्‍य परस्‍पर प्रविष्‍ट हैं , एक दूसरे को अवकाश देते हैं, और सदा मिलकर रह रहे हैं तो भी अपने स्‍वभाव नहीं छोड़ते।'

यदि ऐसा है तो धर्मादिक द्रव्‍यों का स्‍वभावभेद कहना चाहिए इसलिए आगे का सूत्र क‍हते हैं-
राजवार्तिक :

1-3. यद्यपि आत्मा स्वभाव से अमूर्त है पर अनादिकालीन कर्मसम्बन्ध के कारण कथश्चित मूर्तपने को धारण किये हुए है । लोकाकाश के बराबर इसके प्रदेश हैं फिर भी कार्मणशरीर के कारण ग्रहण किये गये शरीर में ही स्थित रहता है । सूखे चमड़े की तरह प्रदेशों के संकोच को संहार और जल में तेल की तरह प्रदेशों के फैलाव को विसर्प कहते हैं । इन कारणों से जीव असंख्येयभाग आदि में समा जाता है । जैसे कि निरावरण आकाश में रखे हुए दीपक का प्रकाश बहुदेशव्यापी होने पर भी जब वह सकोरा या अन्य किसी आवरण से ढंक दिया जाता है तो उतने में ही सीमित हो जाता है । संहार और विसर्प स्वभाव होने पर आत्मा में दीपक की तरह अनित्यत्व का प्रसंग देना जैनों के लिए दूषण नहीं है, क्योंकि उन्हें यह इष्ट है कि आत्मा कार्मणशरीर जन्य प्रदेशसंहार और विसर्परूप पर्याय की दृष्टि से अनित्य है ही ।

अथवा संकोच विकास होने पर भी दीपकरूपी द्रव्यसामान्य की दृष्टि से नित्य है । अतः वह बाधाकारी दृष्टान्त नहीं बन सकता ।

4-7. प्रश्न – प्रदीपादि की तरह संहार और विसर्प होने से संसारी आत्मा के घटादि को तरह छेदन भेदन और प्रदेशविशरण होना चाहिए । इस तरह शून्यता का प्रसंग प्राप्त होता है ।

उत्तर –
बन्ध की दृष्टि से कार्मण शरीर के साथ एकत्व होने पर भी आत्मा अपने निजी अमूर्त स्वभाव को नहीं छोड़ता । लक्षण भेद से उनमें भेद है ही । फिर इस विषय में भी अनेकान्त ही है । अनादि पारिणामिक चैतन्य जीवद्रव्योपयोग आदि द्रव्यार्थदृष्टि से न तो प्रदेशों का संहार या विसर्प ही होता है और न उसमें सावयवपना ही है । हाँ, प्रतिनियत सूक्ष्म / बादर शरीर को उत्पन्न करनेवाले निर्माण नामक उदय रूप पर्याय की विवक्षा से स्यात् प्रदेशसंहार और विसर्प है, इसी तरह अनादि कर्मबन्ध रूपी पर्यायार्थदेश से सावयवपना भी है । किंच, जिस पदार्थ के अवयव कारणपूर्वक होते हैं अर्थात् कारणों से उत्पन्न होते हैं उसके अवयवविशरण से विनाश हो सकता है जैसे कि अनेक तन्तुओं से बने हुए कपड़े का तन्तुविशरण से विनाश होता है । पर आत्मा के प्रदेश अन्यद्रव्य के संघात से उत्पन्न नहीं हुए हैं, वे अकारणपूर्वक हैं । जिस प्रकार अणु का प्रदेश अकारणपूर्वक है अतः वह अवयवविश्लेष से अनित्यता को प्राप्त नहीं होता किन्तु अन्य परमाणु के संयोग से ही उसमें अनित्यता आती है उसी प्रकार आत्मप्रदेश अन्यद्रव्यसंघातपूर्वक नहीं हैं अतः प्रदेशवान होने से सावयव होकर भी आत्मा अवयवविश्लेष से अनित्यता को नहीं प्राप्त होता, केवल गति आदि पर्यायों की दृष्टि से ही अनित्य हो सकता है । इसीलिए आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में सुखादिगुणों की विशेषाभिव्यक्ति नहीं देखी जाती । अन्यद्रव्यसंघात से सावयव बने हुए पटादिद्रव्यों में ही प्रतिप्रदेश रूपादिगुणों की विशेषता देखी जाती है । यदि आत्मा के प्रदेश भी अन्यद्रव्य संघात पूर्वक होते तो प्रतिप्रदेश सुखादिगुणों की विशेषता रहती और इस तरह एक ही शरीर में बहुत आत्माओं का प्रसंग प्राप्त होता । जैसे परमाणु में एक समय में एक जातीय ही शुक्ल आदि गुण होता है उसी तरह आत्मा में भी एकजातीय ही सुखादि एक काल में हो सकते हैं ।

अतः यह आशंका भी निर्मूल हो जाती है कि - "सर्दी और गर्मी का असर चमड़े पर पड़ता है आकाश पर नहीं । यदि आत्मा चमड़े की तरह है तो अनित्य हो जायगा और आकाश की तरह है तो समस्त पुण्य पापादि क्रियाएँ निष्फल हो जायगी।" क्योंकि यह कहा जा चुका है कि - द्रव्यदृष्टि से नित्य होने पर भी आत्मा पर्यायदृष्टि से अनित्य है ।

8-9. चूँकि संसारी आत्मा कार्मणशरीर के अनुसार छोटे बड़े स्थूल शरीर को ग्रहण करता है और सबसे छोटा शरीर अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण है अतः आत्मा का पुद्गल की तरह एक प्रदेश आदि में अवगाह नहीं हो सकता । यद्यपि मुक्त जीवों के वर्तमान शरीर नहीं है फिर भी उनके आत्मप्रदेशों की रचना अन्तिमशरीर से कुछ कम आकार में रह जाती है, न तो घटती है और न बढ़ती है क्योंकि मुक्त अवस्था में संहार और विसर्प का कारण कर्म ही नहीं है । अतः मुक्त आत्माओं की पुद्गल की तरह एक प्रदेश आदि में वृत्ति नहीं मानी जा सकती ।

10. प्रश्न – जिस देश में धर्म द्रव्य है उसी देश में अधर्म और आकाशादि, जो धर्म का आकार है वही अधर्म आदि द्रव्यों का, काल भी सबका एक जैसा ही है, स्पर्शन भी सभी का बराबर है, केवल ज्ञानी के ज्ञान के विषय भी सब समान रूप से होते हैं, इसी तरह अरूपत्व, द्रव्यत्व और ज्ञेयत्व आदि की दृष्टि से कोई विशेषता न होने से धर्मादि द्रव्यों को एक ही मानना चाहिए ?

उत्तर –
जिस कारण आपने धर्मादि द्रव्यों में एकत्व का प्रश्न किया है उसी कारण उनकी भिन्नता स्वयं सिद्ध है । जब वे भिन्न भिन्न हैं तभी तो उनमें अमुक दृष्टियों से एकत्व की सम्भावना की गई है । यदि ये एक होते तो यह प्रश्न ही नहीं उठता । जिस तरह रूप रस आदि में तुल्यदेशकालत्व आदि होने पर भी अपने-अपने विशिष्ट-लक्षण के होने से अनेकता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्यों में भी लक्षणभेद से अनेकता है ।

आगे उन्हीं लक्षणों को कहते हैं --