+ धर्म और अधर्म द्रव्‍य का उपकार -
गति-स्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार: ॥17॥
अन्वयार्थ : गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्‍य का उपकार है ॥१७॥
Meaning : The functions of the media of motion and rest are to assist motion and rest respectively.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान के प्राप्‍त कराने में जो कारण है उसे गति कहते हैं। स्थिति का स्‍वरूप इससे उलटा है। उपग्रह शब्‍द उपकार का पर्यायवाची है जिस‍की व्‍युत्‍पत्ति 'उपगृह्यते' है। गति और स्थिति इन दोनों में द्वन्‍द्व समास है। गति और स्थिति ही उपग्रह हैं, इसलिए 'गतिस्थित्‍युपग्रहौ' यह सूत्रवचन कहा है। 'धर्माधर्मयो:' यह कर्ता अर्थ में षष्‍ठी निर्देश है। उपकार की व्‍युत्‍पत्ति 'उपक्रियते' है।

शंका – यह उपकार क्‍या है ?

समाधान –
गति उपग्रह और स्थिति उपग्रह यही उपकार है।

शंका – यदि ऐसा है तो द्विवचन का निर्देश प्राप्‍त होता है ?

समाधान –
यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि सामान्‍य से ग्रहण किया गया शब्‍द जिस संख्‍या को प्राप्‍त कर लेता है दूसरे शब्‍द के सम्‍बन्‍ध होने पर भी वह उस संख्‍या को नहीं छोड़ता। जैसे 'साधो: कार्यं तप: श्रुते' इस वाक्‍य में 'कार्यम्' एकवचन और 'तपःश्रुते' द्विवचन है। यही बात प्रकृत में जानना चाहिए। इस सूत्र का यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार मछली के गमन में जल साधारण निमित्त है उसी प्रकार गमन करते हुए जीव और पुद्‍गलों के गमन में धर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। तथा जिस प्रकार घोड़ा आदि के ठहरने में पृथिवी साधारण निमित्त है उसी प्रकार ठहरने वाले जीव और पु्द्‍गलों के ठहरने में अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है।

शंका – सूत्र में 'उपग्रह' वचन निरर्थक है, क्‍योंकि 'उपकार' इसी से काम चल जाता है। यथा - 'गतिस्थिती धर्माधर्मयोरूपकार:' ?

समाधान –
यह कोई दोष नहीं है; क्‍योंकि यथाक्रम के निराकरण करने के लिए 'उपग्रह' पद रखा है। जिस प्रकार धर्म और अधर्म के साथ गति और स्थिति का क्रम से सम्‍बन्‍ध होता है उसी प्रकार जीव और पुद्‍गलों का क्रम से सम्‍बन्‍ध प्राप्‍त होता है। यथा- धर्म द्रव्‍य का उपकार जीवों की गति है और अधर्म द्रव्‍य का उपकार पु्द्‍गलों की स्थिति है, अत: इसका निराकरण करने के लिए सूत्र में 'उपग्रह' पद रखा है।

शंका – धर्म और अधर्म द्रव्‍य का जो उपकार है उसे आकाश का मान लेना युक्‍त है क्‍योंकि आकाश सर्वगत है ?

समाधान –
यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि आकाश का अन्‍य उपकार है। सब धर्मादिक द्रव्‍यों को अवगाहन देना आकाश का प्रयोजन है। यदि एक द्रव्‍य के अनेक प्रयोजन माने जाते हैं तो लोकालोक के विभाग का अभाव होता है, अत: धर्म और अधर्म द्रव्‍य का जो उपकार है व‍ह आकाश का मानना युक्‍त नहीं।

शंका – धर्म और अधर्म द्रव्‍य के जो प्रयोजन हैं पृथिवी और जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अत: धर्म और अधर्म द्रव्‍य का मानना ठीक नहीं ?

समाधान –
नहीं, क्‍योंकि धर्म और अधर्म द्रव्‍य गति और स्थिति के साधारण कारण हैं यह विशेष रूप से कहा है। तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है, इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्‍य का मानना ठीक है।

शंका – धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य तुल्‍य बलवाले हैं, अत: गति से स्थिति का और स्थिति से गति का प्रतिबन्‍ध होना चाहिए ?

समाधान –
नहीं, क्‍योंकि ये अप्रेरक हैं।

शंका – धर्म और अधर्म द्रव्‍य नहीं है, क्‍योंकि उनकी उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग ?

समाधान –
नहीं; क्‍योंकि इसमें सब वादियों को विवाद नहीं है। तात्‍पर्य यह है कि जितने वादी हैं वे प्रत्‍यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकार के पदार्थों को स्‍वीकार करते हैं। इसलिए इनका अभाव नहीं किया जा सकता। दूसरे हम जैनों के प्रति 'अनुपलब्धि' हेतु असिद्ध है, क्‍योंकि जिनके सातिशय प्रत्‍यक्ष ज्ञानरूपी नेत्र विद्यमान हैं ऐसे सर्वज्ञ देव सब धर्मादिक द्रव्‍यों को प्रत्‍यक्ष जानते हैं और उनके उपदेश से श्रुतज्ञानी भी जानते हैं।

यदि अतीन्द्रिय धर्म और अधर्म द्रव्‍य का उपकार के सम्‍बन्‍ध से अस्तित्‍व स्‍वीकार किया जाता है तो इनके अनन्‍तर जो अतीन्द्रिय आकाश द्रव्‍य कहा है, ऐसा कौन-सा उपकार है जिससे उसका ज्ञान होता है ? अब इसी बात के बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-
राजवार्तिक :

1-3. बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से परिणमन करनेवाले द्रव्य को देशान्तर में प्राप्त करनेवाली पर्याय गति कहलाती है । स्वदेश से अप्रच्युति को स्थिति कहते हैं । उपग्रह अर्थात् अनुग्रह, द्रव्यों की शक्ति का आविर्भाव करने में कारण होना ।

4-9. 'गतिस्थित्युपग्रहो' यहाँ अनेक विग्रहों की संभावना होने पर भी 'गतिस्थिता एव उपग्रहो' यह समानाधिकरण वृत्ति समझनी चाहिए, तभी द्विवचन की सार्थकता है । इनमें 'उपगृह्यते इति उपग्रहौ' इस तरह कर्मसाधनकृत सामानाधिकरण्य है । यदि बहुब्रीहि समास होता तो 'गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मों' ऐसा प्रयोग होता । यदि षष्ठी तत्पुरुष होता तो उत्तर पदार्थ को प्रधानता होने से 'गतिस्थित्युपग्रहः' ऐसा एकवचनान्त प्रयोग होना चाहिए था । .

10. 'धर्माधर्मयोः' यह कर्तृनिर्देश है अर्थात् ये उपकार क्रिया के कर्ता हैं ।

11-13. प्रश्न – यदि उपकार शब्द को 'उपकरणमुपकारः' ऐसा भावसाधन माना जाता है तो 'धर्माधर्मयोरुपग्रहौ' इस पद से सामानाधिकरण्य नहीं हो सकेगा; क्योंकि उपकार कर्तृस्थ क्रिया होने से धर्म अधर्म में रहेगी तथा उपगृह्यमाण गति और स्थिति जीव और पुद्गल में रहते हैं । यदि कर्मसाधन मानते हैं तो 'उपगृहौ' की तरह 'उपकारौ' ऐसा द्विवचन प्रयोग होना चाहिए ।

उत्तर –
जैसे 'साधोः कार्य तपःश्रुते' यहाँ सामान्य की अपेक्षा कार्यशब्द में एकवचन का प्रयोग है, वह पीछे भी अपने उपात्त वचन को नहीं छोड़ता, उसी तरह उपकार शब्द भी सामान्य की अपेक्षा उपात्त (एकवचन) होने से अपने गृहीत वचन को नहीं छोड़ता ।

14-15 अथवा, 'उपग्रहणमुपग्रहः' यह भावसाधन प्रयोग है, इसी तरह उपकार शब्द भी । तब यहाँ 'गति स्थित्योरुपग्रहो' यह षष्ठीसमास मान लेना चाहिए । 'उपग्रहो' में द्विवचन का प्रयोग यथाक्रम प्रतिपत्ति के लिए है । यदि एकवचन रहता तो जैसे एक पृथिवी अश्व आदि की गति और स्थिति दोनों में उपकारक होती है उसी तरह धर्म और अधर्म दोनों गति और स्थिति दोनों ही कार्य करते हैं यह अर्थबोध होता । इससे किसी एक की व्यर्थता नहीं हो सकती क्योंकि एक ही कार्य अनेक कारणों से उत्पन्न हुआ देखा जाता है । अतः इस अनिष्ट प्रसंग के निवारण के लिए 'उपग्रहौ' ऐसा द्विवचन दिया है । तात्पर्य यह कि स्वयं गतिपरिणत जीव और पुद्गलों के गति रूप उपग्रह के लिए धर्मद्रव्य और स्वयं स्थिति रूप से परिणत जीव और पुद्गलों की स्थिति के लिए अधर्म द्रव्य की आवश्यकता है । समस्त लोकाकाश में इन प्रयोजनों की सिद्धि के लिए इन्हें सर्वगत मानना अत्यावश्यक है ।

16-19. प्रश्न – जब 'उपकार' से ही काम चल जाता है तब 'उपग्रहो' वचन निरर्थक है । 'धर्माधर्मयोरुपकारः' इतना लघुसूत्र बना देना चाहिए । जैसे यष्टि (लाठी) चलते हए अन्धे की उपकारक है उसे प्रेरणा नहीं करती उसी तरह धर्मादि को भी उपकारक कहने से उनमें प्रेरक कर्तृत्व नहीं आ सकता । यदि प्रेरक कर्तृत्व इष्ट होता तो स्पष्ट ही 'गतिस्थिती धर्माधर्मकृते' ऐसा सूत्र बना देते । अतः उपग्रह वचन निरर्थक है ।

उत्तर –
'आत्मा के गतिपरिणाम में निमित्त होना धर्म-द्रव्य का उपकार है तथा पुद्गलों की स्थिति में निमित्त होना अधर्म-द्रव्य का उपकार है' -- इस अनिष्ट यथाक्रम प्रतीति की निवृत्ति के लिए 'उपग्रह' वचन स्पष्टप्रतीति के लिए दिया गया है । व्याख्यान से विशेष प्रतिपत्ति करने में निरर्थक गौरव होता, अतः सरलता से इष्ट अर्थबोध के लिए 'उपग्रहौ' पद का दे देना अच्छा ही हुआ ।

20-23. प्रश्न – आकाश सर्वगत है और उसमें सुषिरता भी है अतः गति और स्थिति रूप उपग्रह भी आकाश के ही मान लेने चाहिए ?

उत्तर –
आकाश धर्माधर्मादि सभी का आधार है । जैसे नगर के बने हुए मकानों का नगर आधार है उसी तरह धर्मादि पाँच द्रव्यों का आकाश आधार है । जब आकाश का एक 'अवगाहदान' उपकार सुनिश्चित है तब उसके अन्य उपकार नहीं माने जा सकते अन्यथा जल और अग्नि के द्रवता और उष्णता गुण पृथ्वी के भी मान लेना चाहिए । यदि आकाश ही गति और स्थिति में उपकारक हो तो अलोकाकाश में भी जीव पुदलों की गति और स्थिति होनी चाहिए । इस तरह लोक और अलोक का विभाग ही समाप्त हो जाता है । लोक से भिन्न अलोक तो होना ही चाहिए, क्योंकि वह 'अब्राह्मण' की तरह नञ्युक्त सार्थक पद है । जिस प्रकार मछली की गति जल में होती है, जल के अभाव में जमीन पर नहीं होती आकाश की मौजूदगी रहनेपर भी, उसी तरह आकाश के रहने पर भी धर्माधर्म के होनेपर ही जीव और पुदल की गति और स्थिति होती है । धर्म और अधर्म गति और स्थिति के साधारण कारण है अवकाशदान में आकाश की तरह । जैसे भूमि आदि आधारों के विद्यमान रहने पर भी अवगाहक साधारण कारण आकाश माना जाता है उसी तरह मछली आदि के लिए जल आदि बाह्य निमित्त रहेन पर भी साधारण कारण धर्म और अधर्म द्रव्य मानना ही चाहिए ।

24. यदि एक द्रव्य का धर्म दूसरे द्रव्य में मानकर अन्य द्रव्यों का लोप किया जाता है और इसी पद्धति से सर्व व्यापक आकाश को ही गति और स्थिति में निमित्त मानकर धर्म और अधर्म द्रव्य का अभाव किया जाता है तो सभी मतवादियों के यहाँ सिद्धान्त-विरोध दूषण आएगा क्योंकि सभी ने अनेक व्यापक द्रव्य माने हैं ।
  • वैशेषिक आकाश काल दिशा और आत्मा इन चार द्रव्यों को विभु-व्यापक मानते हैं । उनके यहाँ 'यह इससे पूर्व या पश्चिम में है' यह दिशा-निमित्तक व्यवहार और 'यह जेठा है यह लघु' यह काल-निमित्तक परापर व्यवहार आकाश से ही हो जायगा; दिशा और काल के मानने की आवश्यकता नहीं है । इसी तरह अनेक व्यापक आत्माएँ मानना निरर्थक है, उन्हें एक ही आत्मा से उपाधिभेद से सब कार्य चल जायगा । अतः शास्त्र में प्रतिनियत बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार आदि गुणों का कारण तथा शास्त्र-बल से अनेक आत्माओं का मानना निरर्थक हो जायगा ।
  • सांख्य सत्त्व, रज और और तम ये तीन गुण मानते हैं । तीनों व्यापक हैं । यदि आकाश से ही धर्माधर्म का कार्य लिया जाता है तो सत्त्व गुणों से ही प्रसाद और लाघव की तरह रजोगुण के शोष और ताप तथा तमोगुण के आवरण और सादन रूप कार्य हो जाने चाहिए । इस तरह शेष गुणों का मानना निरर्थक है । इसीतरह सभी आत्माओं में एक चैतन्यरूपता समान है अतः एक ही आत्मा मानना चाहिए, अनन्त नहीं ।
  • बौद्ध रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये पाँच स्कन्ध मानते हैं । यदि एक में ही अन्य के धर्म माने जाँय तो विज्ञान के बिना अन्य स्कन्धों की प्रतीति हो नहीं सकती अतः केवल एक विज्ञान-स्कन्ध मानना चाहिए । उसी से रूपादि स्कन्धोंके रूपण, अनुभवन, शब्दप्रयोग और संस्कार ये कार्य हो जायेंगे । इसी तरह शेष स्कन्धों की निवृत्ति होने पर निरालम्बन विज्ञान की भी स्थिति नहीं रह सकती । अतः उसका भी अभाव हो जाने से सर्व-शून्यता ही हाथ रह जायगी । अतः व्यापक होने पर भी आकाश में ही धर्म और अधर्म की गति और स्थिति में निमित्त होने रूप योग्यता नहीं मानी जा सकती ।
25-27. जिस प्रकार स्वयं गति में समर्थ लँगड़े को चलते समय लाठी सहारा देती है अथवा जैसे स्वतः दर्शनसमर्थ नेत्र के लिए दीपक सहारा देता है, न तो लाठी गति की है और न वह प्रेरणा देती है, दीपक भी असमर्थ के दर्शनशक्ति उत्पन्न नहीं करता । यदि असमर्थी को भी गति या दर्शनशक्ति के ये कर्ता हो तो मूर्छित, सुषुप्त और जात्यन्धों का भी गति और दर्शन होना चाहिए । उसी तरह स्वयं गति और स्थिति में परिणत जीव और पुद्गलों को धर्म और अधर्म गति और स्थिति में उपकारक होते हैं, प्रेरक नहीं । अतः एक साथ गति और स्थिति का प्रसंग नहीं होता और न गति और स्थिति का परस्पर प्रतिबन्ध ही । यदि ये कर्ता होते तो ही गति के समय स्थिति और स्थिति के समय गति का प्रसंग होकर परस्पर प्रतिबन्ध होता । कहीं-कहीं पर जल जैसे बाह्य कारण न रहनेपर भी प्रकृष्ट गति परिणाम होने से धर्मद्रव्य के निमित्त मात्रसे गति देखी जाती है जैसे पक्षी की गति । इसी तरह अन्य द्रव्यों की भी गति और स्थिति समझ लेनी चाहिए । पक्षियों के गमन में आकाश को निमित्त मानना उचित नहीं, क्योंकि आकाश का कार्य तो अवगाहदान है ।

28. फिर यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि सभी आँखवाले बाह्य प्रकाश की सहायता लें ही । व्याघ्र, बिल्ली आदि को बाह्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं भी रहती । मनुष्य आदि में स्वतः वैसी दर्शन शक्ति नहीं है अतः बाह्य आलोक अपेक्षित होता है । जैसे यह कोई नियम नहीं है कि सभी चलनेवाले लाठी का सहारा लेते ही हों । उसी तरह जीव और पुद्गलों को सर्वत्र बाह्य कारणों की मदद के बिना भी केवल धर्म और अधर्म द्रव्य के उपग्रह से गति और स्थिति होती रहती है । किन्हीं को मात्र धर्माधर्मादि से और किन्हीं को धमाधर्मादि के साथ अन्य बाह्य कारणों की भी उपेक्षा होती है ।

29-31. धर्म और अधर्म की अनुपलब्धि हाने से खरविषाण की तरह अभाव नहीं किया जा सकता अन्यथा अपने तीर्थंकर पुण्य-पाप, परलोक आदि सभी पदार्थां का अभाव हो जायगा । अनुपलब्ध असिद्ध भी है क्योंकि भगवान अर्हन्त सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत आगम से धर्म और अधर्म द्रव्य की उपलब्धि होती ही है । अनुमान से भी गति और स्थिति के साधारण निमित्त के रूप में उनकी उपलब्धि होती है । जिस कारण धर्म और अधर्म अप्रत्यक्ष-अतीन्द्रिय हैं इसीलिए विवाद है कि इनकी खरविषाण की तरह असत्त्व होने से अनुपलब्धि है अथवा परमाणु आकाश आदि की तरह अतीन्द्रिय होने से अनुपलब्धि है ? जिस कारण विवाद है उसी से अभाव का निश्चय नहीं किया जा सकता ।

32-34. अकेले मृत्पिण्ड से घड़ा उत्पन्न नहीं होता, उसके लिए कुम्हार चक्र-चीवर आदि अनेक बाह्य कारण अपेक्षित होते हैं उसी तरह पक्षी आदि की गति और स्थिति भी अनेक बाह्य कारणों की अपेक्षा करती हैं । इनमें सबकी गति और स्थिति के लिए साधारण कारण क्रमशः धर्म और अधर्म होते हैं । इस तरह अनुमान से धर्म और अधर्म प्रसिद्ध हैं । कारणों का संसर्ग ही कार्योत्पादक होता है न कि जिन किन्ही पदार्थों का संसर्ग । अतः प्रतिविशिष्ट तन्तु जुलाहा, तुरी आदि के संसर्ग से पट की उत्पत्ति की तरह गति और स्थिति के साधारण कारण - धर्म और अधर्म के साथ ही अन्य कारणों का संसर्ग कार्यकारी हो सकता है । संसर्ग भी अनेक कारणों का ही होता है एक का नहीं । बहुत कारणों का संसर्ग भी कारणभेद से भिन्न-भिन्न ही है, अतः अनेक कारणों से कार्योत्पत्ति होती है, यही पक्ष स्थिर रहता है ।

35. यदि यह नियम बनाया जाय कि 'जो-जो पदार्थ प्रत्यक्ष से उपलब्ध न हों उनका अभाव है' तो सभी वादियों को स्व-सिद्धान्तविरोध दोष होता है; क्योंकि प्रायः सभी वादी अप्रत्यक्ष पदार्थों को स्वीकार करते ही हैं ।
  • बौद्ध मानते हैं कि प्रत्येक रूपपरमाणु अतीन्द्रिय हैं, अनेक परमाणुओं का समुदाय इन्द्रिय ग्राह्य होता है । चित्त और चैतसिक विकल्प अतीन्द्रिय हैं ।
  • सांख्य मानते हैं कि कार्यरूप व्यक्त प्रधान के विकार पृथिवी आदि प्रत्यक्ष हैं परन्तु सत्त्वरज और तम ये कारणभूत गुण तथा परमात्मा अप्रत्यक्ष है ।
  • वैशेषिक का कहना है कि - महत्त्व, अनेकद्रव्यत्व और उद्भूतरूप होने से ही रूप की उपलब्धि होती है । अतः अनेक परमाणुओंके समुदायसे उत्पन्न स्थूल पृथिवी आदि और उसी में समवाय से रहनेवाले रूपादि संख्या परिमाण संयोग विभाग आदि गुण प्रत्यक्ष होते हैं तथा परमाणु आकाश आदि अप्रत्यक्ष हैं । यदि लाठी आदि कारणों की तरह धर्म और अधर्म का उपलब्धि नहीं होने से अभाव माना जाता है तो विज्ञान आदि, सत्त्व आदि तथा परमाणु आदि का भी अभाव मानना पड़ेगा ।
इस तरह सभी मतवादियों को स्व-सिद्धान्तविरोध दूषण होता है । यदि परमाणु आदि का कार्य से अनुमान किया जाता है तो धर्म और अधर्म का भी अनुमान मानने में क्या विरोध है ? जैसे तुम्हारे ही जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभालाभ आदि पर्यायों का जो कि मनुष्यमात्र को अतीन्द्रिय होने से मनुष्यमात्र के प्रत्यक्ष नहीं हैं, पर सर्वज्ञ के द्वारा उनका साक्षात्कार होने से अस्तित्व सिद्ध है उसी तरह तुम्हारे प्रमाण के अविषय भी धर्म और अधर्म का अस्तित्व सर्वज्ञ-प्रत्यक्ष होने से सिद्ध ही है ।

36. प्रश्न – जिस प्रकार ज्ञानादि आत्मपरिणाम और दधि आदि पुदलपरिणामों की उत्पत्ति परस्पराश्रित है । इसके लिए किसी धर्म और अधर्म जैसे अतीन्द्रिय द्रव्य की आवश्यकता नहीं है उसी तरह जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति के लिए भी उनकी आवश्यकता नहीं है ?

उत्तर –
ज्ञानादि पर्यायों की उत्पत्ति के लिए भी 'काल' नामक साधारण बाह्य कारण की आवश्यकता है उसी तरह गति और स्थिति के लिए साधारण बाह्य कारण -- धर्म और अधर्म होना ही चाहिए ।

37-40 प्रश्न – अदृष्ट आत्मा का गुण है, इसी के निमित्त से सुख-दुःखरूप फल तथा उनके साधन जुटते हैं । वैशेषिक सूत्र में कहा भी है कि - "अग्नि का ऊपर की ओर जलना, वायु का तिरछा बहना, परमाणु और मन की आद्य क्रिया, ये सब अदृष्ट से होते हैं । उपसर्पण, अपसर्पण, वातपित्तसंयोग और शरीरान्तर से संयोग आदि सभी अष्टकृत हैं।" इसी अदृष्ट से गति और स्थिति हो जायगी ?

उत्तर –
पुदल द्रव्यों में अचेतन होने से अदृष्ट नहीं पाया जाता, अतः यदि गति और स्थिति को अदृष्यहेतुक माना जाता है तो पुद्गलों में गति और स्थिति नहीं हो सकेंगी । यह समाधान भी उचित नहीं है कि - 'जो घटादि पुद्गल जिस आत्मा का उपकार करेंगे उस आत्मा के अदृष्ट से उन पुद्गलों में गति और स्थिति हो जायगी' क्योंकि अन्य द्रव्य का धर्म अन्य द्रव्य में क्रिया नहीं करा सकता । यह हम पहिले ही बता आये हैं कि जो स्वाश्रय में क्रिया को उत्पन्न नहीं करता वह अन्य द्रव्यों में क्रिया उत्पन्न नहीं कर सकता । यदि अदृष्टहेतुक गति और स्थिति मानी जाती है तो जिन मुक्त-जीवों का अदृष्ट (पुण्यपाप) नष्ट हो गया है उनके स्वाभाविक गति और स्थिति नहीं हो सकेंगी, पर होती अवश्य हैं ।

41-42. अमूर्त होने से धर्म और अधर्म द्रव्य में गतिहेतुत्व और स्थितिहेतुत्व का अभाव नहीं किया जा सकता, क्योंकि अमूर्त के कार्यहेतुत्व न होने का कोई दृष्टान्त नहीं मिलता । उल्टे आकाश आदि अमूर्त पदार्थ स्व-कार्यकारी देखे ही जाते हैं । आकाश अमूर्त होकर सब द्रव्यों के अवगाह में निमित्त होता है । अमूर्त प्रधान महान् अहंकार आदि विकार रूप से परिणत होकर पुरुष के भोग में निमित्त होता है । अमूर्त विज्ञान नाम रूप की उत्पत्ति का कारण होता है । 'नाम रूप विज्ञाननिमित्तक हैं' यह बौद्धों का सिद्धान्त है । अदृष्ट अमूर्त होकर भी पुरुष के उपभोग-साधनों में निमित्त होता ही है । इसी तरह अमूर्त धर्म और अधर्म भी गति और स्थिति में साधारण निमित्त हो जाएँगे ।