
सर्वार्थसिद्धि :
शंका – यह अयुक्त है। समाधान – (प्रतिशंका) क्या अयुक्त है ? शंका – पुद्गलों का क्या उपकार है यह प्रश्न था पर उसके उत्तर में 'शरीरादिक पुद्गलमय हैं' इस प्रकार पुद्गलों का लक्षण कहा जाता है ? समाधान – यह अयुक्त नहीं है, क्योंकि पुद्गलों का लक्षण आगे कहा जाएगा, यह सूत्र तो जीवों के प्रति पुद्गलों के उपकार का कथन करने के लिए ही आया है, अत: उपकार प्रकरण में ही यह सूत्र कहा है। औदारिक आदि पाँचों शरीरों का कथन पहले कर आये हैं। वे सूक्ष्म होने से इन्द्रियगोचर नहीं है। किन्तु उनके उदय से जो उपचय शरीर प्राप्त होते हैं उनमें-से कुछ शरीर इन्द्रियगोचर हैं और कुछ इन्द्रियातीत हैं। इन पाँचो शरीरों के कारणभूत जो कर्म हैं उनका भी शरीर पद के ग्रहण करने से ग्रहण हो जाता है। ये सब शरीर पौद्गलिक हैं ऐसा समझकर जीवों का उपकार पुद्गल करते हैं यह कहा है। शंका – आकाश के समान कार्मण शरीर का कोई आकार नहीं पाया जाता, इसलिए उसे पौद्गलिक मानना युक्त नहीं है। हाँ, जो औदारिक आदिक शरीर आकारवाले हैं उनको पौद्गलिक मानना युक्त है ? समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कार्मण शरीर भी पौद्गलिक ही है, क्योंकि उसका फल मूर्तिमान् पदार्थों के सम्बन्ध से होता है। यह तो स्पष्ट दिखाई देता है कि जलादिक के सम्बन्ध से पकनेवाले धान आदि पौद्गलिक है। उसी प्रकार कार्मण शरीर भी गुड़ और काँटे आदि मूर्तिमान् पदार्थों के मिलने पर फल देते हैं, इससे ज्ञात होता है कि कार्मण शरीर भी पौद्गलिक है। वचन दो प्रकार का है- द्रव्यवचन और भाववचन। इनमें-से भाववचन वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण तथा श्रुतज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के निमित्त से होता है, इसलिए वह पौद्गलिक है, क्योंकि पुद्गलों के अभाव में भाववचन का सद्भाव नहीं पाया जाता। चूँकि इस प्रकार की सामर्थ्य से युक्त क्रियावाले आत्मा के द्वारा प्रेरित हो कर पुद्गल वचनरूप से परिणमन करते हैं, इसलिए द्रव्य वचन भी पौद्गलिक हैं। दूसरे द्रव्य श्रोत्र इन्द्रिय के विषय हैं, इससे भी ज्ञात होता है कि वे पौद्गलिक हैं। शंका – वचन इतर इन्द्रियों के विषय क्यों नहीं होते ? समाधान – घ्राण इन्द्रिय गन्ध को ग्रहण करती है उससे जिस प्रकार रसादिक की उपलब्धि नहीं होती उसी प्रकार इतर इन्द्रियों में वचन के ग्रहण करने की योग्यता नहीं है। शंका – वचन अमूर्त हैं ? समाधान – नहीं, क्योंकि वचनों का मूर्त इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होता है, वे मूर्त भीत आदि के द्वारा रुक जाते हैं, प्रतिकूल वायु आदि के द्वारा उनका व्याघात देखा जाता है तथा अन्य कारणों से उनका अभिभव आदि देखा जाता है। इससे शब्द मूर्त सिद्ध होते हैं। मन दो प्रकार का है- द्रव्यमन और भावमन । लब्धि और उपयोगलक्षण भावमन पुद्गलों के आलम्बन से होता है, इसलिए पौद्गलिक है। तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के निमित्त से जो पुद्गल गुण-दोष का विचार और स्मरण आदि उपयोग के सम्मुख हुए आत्मा के उपकारक हैं वे ही मनरूप से परिणत होते हैं, अत: द्रव्यमन भी पौद्गलिक है। शंका – मन एक स्वतन्त्र द्रव्य है। वह रूपादिरूप परिणमन से रहित है और अणुमात्र है, इसलिए उसे पौद्गलिक मानना अयुक्त है। समाधान – शंकाकार का इस प्रकार कहना अयुक्त है। खुलासा इस प्रकार है- वह मन आत्मा और इन्द्रिय से सम्बद्ध है या असम्बद्ध। यदि असम्बद्ध है तो वह आत्मा का उपकारक नहीं हो सकता और इन्द्रियों की सहायता भी नहीं कर सकता। यदि सम्बद्ध है तो जिस प्रदेश में वह अणु मन सम्बद्ध है उस प्रदेशको छोड़ कर इतर प्रदेशों का उपकार नहीं कर सकता। शंका – अदृष्ट नाम का एक गुण है उसके वश से वह मन अलातचक्र के समान सब प्रदेशों में घूमता रहता है ? समाधान – नहीं, क्योंकि अदृष्ट नाम के गुण में इस प्रकार की सामर्थ्य नहीं पायी जाती। यत: अमूर्त और निष्क्रिय आत्मा का अदृष्ट गुण है । अतः यह गुण भी निष्क्रिय है, इसलिए अन्यत्र क्रिया का आरम्भ करने में असमर्थ है। देखा जाता है कि वायु नामक द्रव्य विशेष स्वयं क्रियावाला और स्पर्शवाला होकर ही वनस्पति में परिस्पन्द का कारण होता है, परन्तु यह अदृष्ट उससे विपरीत लक्षणवाला है, इसलिए यह क्रिया का हेतु नहीं हो सकता । वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामककर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला आत्मा कोष्ठगत जिस वायु को बाहर निकालता है उच्छवास लक्षण उस वायु को प्राण कहते हैं । तथा वही आत्मा बाहरी जिस वायु को भीतर करता है नि:श्वासलक्षण उस वायु को अपान कहते हैं । इस प्रकार ये प्राण और अपान भी आत्मा का उपकार करते हैं, क्योंकि इनमें आत्मा जीवित रहता है । ये मन, प्राण और अपान मूर्त हैं, क्योंकि दूसरे मूर्त पदार्थों के द्वारा इनका प्रतिघात आदि देखा जाता है । जैसे- प्रतिभय पैदा करनेवाले बिजलीपात आदि के द्वारा मन का प्रतिघात होता है और सुरा आदि के द्वारा अभिभव। तथा हस्ततल और वस्त्र आदि के द्वारा मुख के ढँक लेने से प्राण और अपान का प्रतिघात उपलब्ध होता है और कफ़ के द्वारा अभिभव । परन्तु अमूर्त का मूर्त पदार्थों के द्वारा अभिघात आदि नहीं हो सकता, इससे प्रतीत होता है कि ये सब मूर्त हैं। तथा इसी से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है । जैसे यन्त्रप्रतिमा की चेष्टाएँ अपने प्रयोक्ता के अस्तित्व का ज्ञान कराती हैं उसी प्रकार प्राण और अपान आदि रूप कार्य भी क्रिया वाले आत्मा के अस्तित्व के साधक हैं । क्या पुद्गलों का इतना ही उपकार है या और भी उपकार है, इस बात के बतलाने के लिए अब आगे का सूत्र कहते हैं -- |
राजवार्तिक :
1-2, 9-11. शरीर के होने पर ही वचन आदि की प्रवृत्ति होती है अत: शरीर का सर्व प्रथम ग्रहण किया है । उसके बाद वचन का ग्रहण किया है क्योंकि वचन ही पुरुष को हित में प्रवृत्ति कराते हैं । इसके बाद मन का ग्रहण किया है क्योंकि जिनके शरीर और वचन होता है उन्हीं के मन होता है । अन्त में श्वासोच्छवास का ग्रहण किया है क्योंकि ये सभी संसारी जीवों के पाया जाता है । ये सब पुद्गल-द्रव्य के लक्षण नहीं हैं किन्तु उपकार हैं । लक्षण तो आगे बताया जायगा । 3-8. प्रश्न – चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी आत्मा को उपकारक हैं अतः उनका भी ग्रहण करना चाहिए ? उत्तर – आगे के सूत्र में 'च' शब्द देनेवाले हैं, उससे सभी इष्ट का समुच्चय हो जायगा । 'चक्षु आदि इन्द्रियाँ आत्म-प्रदेशरूप हैं अतः उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया है । यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि अंगोपांग नामकर्म के उदय से रची गई द्रव्येन्द्रियाँ पौद्गलिक हैं । और यदि ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम को चेतनात्मक होने से चक्षु आदि भाव-इन्द्रियों का यहाँ अग्रहण है तो भाव-मन भी चेतन है, अतः उसका ग्रहण नहीं होना चाहिए था । यह तर्क भी ठीक नहीं है कि 'चूँकि मन चक्षुरादि इन्द्रियों की तरह अवस्थित नहीं है अनवस्थित है, जैसे चक्षुरादि इन्द्रियों के आत्मप्रदेश नियतदेश में अवस्थित हैं उस तरह मन के नहीं है इसलिए उसे अनिन्द्रिय भी कहते हैं, और इसीलिए उसका पृथक अग्रहण किया गया है । क्योंकि अनवस्थित होने पर भी वह क्षयोपशम-निमित्तक तो है ही । जहाँ-जहाँ उपयोग होता है वहाँ-वहाँ के अंगुल के असंख्यातभाग प्रमाण आत्मप्रदेश मन के रूप से परिणत हो जाते हैं । इसीतरह यदि आत्मपरिणाम होने से चक्षुरादि का यहाँ अग्रहण किया है तो वचन का भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि वचन भी ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से होते हैं । यदि कहो कि द्रव्य-वचन जो कि बाहर निकलते हैं, पौगलिक हैं, अतः उनके संग्रह के लिए वचन का ग्रहण है तो द्रव्येन्द्रिय भी पौद्गलिक हैं, अतः उनका संग्रह 'च' शब्द से करना ही चाहिए । 12. प्रश्न – धर्मादि द्रव्य चूँकि अप्रत्यक्ष हैं अतः गत्युपग्रह आदि का वर्णन करना उचित है पर पुद्गल तो प्रत्यक्ष है, उसके उपकार वर्णन करने से क्या लाभ ? यह तो ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि सूर्य पूर्व में उदित होता है पश्चिम में डूबता है, गुड़ मीठा है आदि । उत्तर – कुछ पुद्गल भी अप्रत्यक्ष होते हैं । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये शरीर कर्म मूलतः सूक्ष्म होने से अप्रत्यक्ष हैं, उनके उदय से बने हुए औदारिकादि कुछ स्थूल शरीर प्रत्यक्ष हैं कुछ अप्रत्यक्ष हैं । मन भी अप्रत्यक्ष है । वचन और श्वासोच्छास कुछ प्रत्यक्ष हैं कुछ अप्रत्यक्ष । अतः पुद्गल के उपकारों का स्पष्ट विवेचन करने के लिए शरीरादि का उपदेश किया है । 13-14. शरीरों का वर्णन किया जा चुका है । कार्मण शरीर अनाकार होकर भी चूंकि मूर्तिमान पुद्गलों के सम्बन्ध से अपना फल देता है, अतः वह पौद्गलिक है । जैसे धान्य, पानी, धूप आदि मूर्तिमान पुद्गलों के सम्बन्ध से पकता है अतएव पौद्गलिक है, उसी तरह गुड़-कंटक आदि मूर्तिमान् पुद्गल-द्रव्यों के सम्बन्ध से कर्मों का विपाक होता है, अतः ये पौद्गलिक है । कोई भी अमूर्त-पदार्थ मूर्तिमान पदार्थ के सम्बन्ध से नहीं पकता । 15-17. वचन दो प्रकार के हैं -- द्रव्यवचन और भाववचन । दोनों ही पौगलिक हैं ।
शंका – श्रोत्र आकाश रूप है अतः अमूर्त के द्वारा अमूर्त शब्द का ग्रहण हो जाता है । वायु के द्वारा शब्द प्ररित नहीं होता क्योंकि शब्द गुण है और गुण में क्रिया नहीं होती किन्तु संयोग विभाग और शब्द से शब्दान्तर उत्पन्न हो जाते हैं अतः नये-नये शब्द उत्पन्न होकर उनका ग्रहण होता है । जहाँ वेगवान् द्रव्य का अभिघात होता है वहाँ नये शब्दों की उत्पत्ति नहीं होती । जो शब्द का अवरोध जैसा मालूम होता है, वस्तुतः वह अवरोध नहीं है किन्तु अन्य स्पर्शवान द्रव्य का अभिघात होने से एक ही दिशा में शब्द उत्पन्न होने से अवरोध जैसा लगता है । अतः शब्द अमूर्त ही है । समाधान – ये दोष नहीं हैं । श्रोत्र को आकाशमय कहना उचित नहीं है क्योंकि अमूर्त आकाश कार्यान्तर को उत्पन्न करने की शक्ति से रहित है । अदृष्ट की सहायता के सम्बन्ध में यह विचारना है कि यह अदृष्ट आकाश का संस्कार करता है या आत्मा का अथवा शरीर के एक-देश का ?
20. मन दो प्रकार का है एक भावमन और दूसरा द्रव्यमन । भावमन लब्धि और उपयोगरूप है । यह पुद्गल-निमित्तक और पुद्गलावलम्बन होने से पौद्गलिक है । गुण-दोषविचार और स्मरणादिरूप व्यापार में तत्पर आत्मा के ज्ञानावरण वीर्यान्तराय के क्षयोपशम को आलम्बन बननेवाले या सहायक जो पुद्गल शक्ति-विशेष से युक्त होकर मनरूप से परिणत होते हैं, वे द्रव्यमन हैं । यह पौद्गलिक है ही । 21-23. जैसे वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा से आत्मा के ही प्रदेश चक्षु आदि इन्द्रियरूप से परिणमन करते हैं. अतः आत्मा से इन्द्रिय भिन्न नहीं है और इन्द्रिय के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होता अतः इन्द्रिय आत्मा से भिन्न है उसी तरह आत्मा का ही मन रूप से परिणमन होने के कारण मन आत्मा से अभिन्न है और मन की निवृत्ति हो जाने पर भी आत्मा की निवृत्ति नहीं होती, अतः भिन्न है । मन कोई स्थायी पदार्थ नहीं है, क्योंकि जो पुद्गल मन रूप से परिणत हुए थे उनकी मनरूपता गुण, दोष-विचार और स्मरणादि कार्य कर लेने पर अनन्तर समय में नष्ट हो जाती है, आगे वे मन नहीं रहते । वैसे द्रव्यदृष्टि से मन भी स्थायी है और पर्याय दृष्टि से अस्थायी । 24-26. वैशेषिक का मत है कि मन एक स्वतंत्र द्रव्य है, वह अणुरूप है और प्रत्येक आत्मा से एक-एक सम्बद्ध है । कहा भी है कि "एक साथ आत्मा के अनेक प्रयत्न नहीं होते और न एक साथ सभी इन्द्रियज्ञानों की उत्पत्ति ही देखी जाती है अतः क्रम का नियामक एक मन है ।" यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणुमात्र होने से उसमें सामर्थ्य का अभाव है । यह विचारना है कि परमाणुमात्र मन जब आत्मा और इन्द्रिय से सम्बद्ध होकर ज्ञानादि की उत्पत्ति में व्यापार करता है तब वह आत्मा और इन्द्रिय से सर्वात्मना सम्बद्ध होता है या एक देश से ? सर्वात्मना सम्बद्ध नहीं बन सकता; क्योंकि अणुरूप मन या तो इन्द्रिय से सर्वात्मना सम्बद्ध हो सकता है या फिर आत्मा से ही, दोनों के साथ पूर्णरूप से युगपत् सम्बन्ध नहीं हो सकता । यदि एक देश से; तो मन के प्रदेशभेद मानना होगा, पर यह अनिष्ट है क्योंकि मन को परमाणुरूप माना गया है । यदि आत्मा मन से सर्वात्मना सम्बन्ध करता है तो या तो आत्मा की तरह मन को व्यापक मानना होगा या मन की तरह आत्मा को अणुरूप । यदि आत्मा एकदेश से मन के साथ संयुक्त होता है तो आत्मा के प्रदेश मानने होंगे । ऐसी दशा में आत्मा, मन, इन्द्रिय और पदार्थ; आत्मा, मन और पदार्थ तथा आत्मा और मन इन चार तीन और दो के सन्निकर्ष से आत्मा के कुछ प्रदेश ज्ञानवाले होंगे तथा कुछ प्रदेश ज्ञानादि रहित । जिन प्रदेशों में ज्ञानादि नहीं होंगे, उनकी आत्मरूपता निश्चित नहीं हो सकने के कारण आत्मा सर्वगत नहीं रह सकेगा । इसी तरह यदि मन इन्द्रियों के साथ सर्वात्मना सम्बद्ध होता है तो या तो मन की तरह इन्द्रियाँ अणुरूप हो जायँगी या फिर इन्द्रियों की तरह मन अणुरूपता छोड़कर कुछ बड़ा हो जायगा । एकदेश से सम्बन्ध मानने पर मन परमाणुरूप नहीं रह पायगा, उसके अनेक पदेश हो जायेंगे । फिर, आपके मत में गुण और गुणी में भेद स्वीकार किया गया है तथा मन नित्य माना गया है अतः जब उसका संयोग और विभागरूप में परिणमन ही नहीं हो सकता, तब न तो आत्मा से संयोग हो सकेगा और न इन्द्रियों से ही । यदि मन का संयोग और विभाग रूप से परिणमन होता है तो नित्यता नहीं रहती । जब मन अचेतन है तो उसे 'इस आत्मा या इन्द्रिय से संयुक्त होना चाहिए इससे नहीं' यह विवेक नहीं हो सकेगा, इसलिए प्रतिनियत आत्मा से उसका संयोग नहीं बन सकेगा । कर्म का दृष्टान्त तो उचित नहीं है क्योंकि कर्म पुरुष के परिणामों से अनुरंजित होने के कारण - कथञ्चित् चेतन है; हाँ पुद्गल द्रव्य की द्रव्य की दृष्टि से ही वह अचेतन है । मन परमाणुरूप है, अतः चक्षु आदि का जो प्रदेश उससे संयुक्त होगा उसी से अर्थबोध हो सकेगा अन्य से नहीं पर समस्त चक्षु के द्वारा रूपज्ञान देखा जाता है अतः मन परमाणुरूप नहीं है । अणु मन को आशुसंचारी मानकर पूरी चक्षु आदि से सम्बन्ध मानना उचित नहीं है, क्योंकि अचेतन मन के बुद्धिपूर्वक क्रिया और व्याप्ति नहीं हो सकती । अदृष्ट की प्ररणा से मन का इष्ट देश में आशुभ्रमण मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्रियावान् पुरुष के द्वारा प्रेरित होकर ही अलातचक्र (जलती हुई लकड़ी ज़ोर से घुमाने से बना हुआ मंडल) आदि शीघ्र-गति से सर्वत्र गोलाकार में उपलब्ध होता है, परन्तु अदृष्ट नामक गुण तो स्वयं क्रियारहित है, वह कैसे अन्यत्र क्रिया करा सकेगा ? 27-29 मन और आत्मा का अनादि सम्बन्ध माननः उचित नहीं है । क्योंकि मन और आत्मा का संयोग सम्बन्ध है । आपके मत से तो अप्राप्तिपूर्वक प्राप्ति को संयोग कहते हैं । अतः इनका अनादि-सम्बन्ध नहीं बन सकता । जैन दृष्टि से तो मन क्षायोपशमिक है, अतः उसकी अनादिता हो ही नहीं सकती । यदि मन अनादिसम्बन्धी होता तो उसका परित्याग नहीं होना चाहिए था । जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध होने पर भी कर्म का परित्याग इसलिए हो जाता है कि कर्म बन्धसन्तति की दृष्टि से अनादि होकर भी चूंकि मिथ्यादर्शन आदि कारणों से उस-उस समय में बँधते रहते हैं, सादिबन्धी भी है -- अतः जब सम्यग्दर्शन आदि रूप से परिणमन होता है तब उनका सम्बन्ध छूट जाता है, पर मन में ऐसी बात नहीं है । 30-31. प्रश्न – मन इन्द्रियों का सहकारी कारण है, क्योंकि जब इन्द्रियाँ इष्ट-अनिष्ट विषयों में प्रवृत्त होती हैं तब मन के सन्निधान से ही वे सुख दुःखादि का अनुभव करती हैं । इसके सिवाय मन का अन्य व्यापार नहीं है । उत्तर – वस्तुतः गरम लोहपिण्ड की तरह आत्मा का ही इन्द्रियरूप से परिणमन हुआ है, अतः चेतनरूप होने से इन्द्रियाँ स्वयं सुख-दुःख का वेदन करती हैं । यदि मन के बिना इन्द्रियों में स्वयं सुख-दुःखानुभव न हो तो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को सुख-दुःख का अनुभव नहीं होना चाहिए । गुण-दोष-विचार आदि मन के स्वतन्त्र कार्य हैं । मनोलब्धिवाले आत्मा के जो पुद्गल मनरूप से परिणत हुए हैं वे अन्धकार तिमिर आदि बाह्यन्द्रियों के उपघातक कारणों के रहते हुए भी गुण-दोष-विचार और स्मरण आदि व्यापार में सहायक होते ही हैं । इसलिए मन का स्वतन्त्र अस्तित्व है । 32. बौद्ध मन का पृथक अस्तित्व न मानकर उसे विज्ञानरूप कहते हैं । "छहों ज्ञानों की उत्पत्ति का जो समनन्तर अतीत अर्थात् उपादानभूत ज्ञानक्षण है वह मन है, अर्थात् पूर्वज्ञान को मन कहते हैं" यह उनका सिद्धान्त है । पर, उनके मत में जब ज्ञान क्षणिक है तो जब वह वर्तमानक्षण में ही पदार्थों का बोध नहीं कर सकता तो पूर्वज्ञान की तो बात ही क्या करनी । वर्तमान ज्ञान पूर्व और उत्तर विज्ञानों से जब कोई सम्बन्ध नहीं रखता तब वह गुण-दोष-विचार स्मरण आदि कैसे कर सकता है ? अनुस्मरण स्वयं अनुभूत पदार्थ का उसी को होता है न तो अन्य के द्वारा अनुभूत का और न अननुभूत का । क्षणिक-पक्ष में स्मरण आदि का यह क्रम बन ही नहीं सकता । सन्तान अवस्तुभूत है अतः उसकी अपेक्षा स्मरणादि को संगति बैठाना भी उचित नहीं है । पूर्वज्ञानरूप मन जब वर्तमानकाल में अत्यन्त असत् हो जाता है तब वह गुण-दोष-विचार, स्मरण आदि कार्यों को कैसे कर सकेगा ? यदि बीजरूप आलयविज्ञान को स्थायी मानते हैं तो क्षणिकत्व-पक्ष का लोप हो जाता है। यदि वह भी क्षणिक है; तो वह भी स्मरणादिका आलम्बन नहीं हो सकता। बौद्ध-मत -- 'आलयविज्ञान अनित्य और क्षणिक है।' वह विशाल जलसमूह के निरन्तर प्रवाह के समान वासना-विज्ञान-चैत्तधर्मों का निरन्तर प्रवाह है । निर्वाण में (अर्हन्त्य प्राप्त होने पर) आलयविज्ञान की व्यावृत्ति अर्थात् निरोध हो जाता है।' मुक्त व्यक्ति के लिए आलयविज्ञान का स्रोत सूख जाता है तथा पुन: प्रवाहित नहीं हो सकता। 33-34. सांख्य मन को प्रधान का विकार मानते हैं । पर, जब प्रधान स्वयं अचेतन है तो उसके विकार भी अचेतन ही होंगे तब वह घटादि की तरह गुणदोषविचार, स्मरण आदि व्यापार नहीं कर सकेगा । मन विचाररूप क्रिया का करण होता है । तो बताइए कि इस क्रिया का कर्ता कौन होगा -- प्रधान या पुरुष ?
35-37. वीर्यान्तराय ज्ञानावरणक्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के उदय की अपेक्षा रखनेवाले आत्मा के द्वारा शरीरकोष्ठ से जो वायु बाहर निकाली जाती है उस उच्छ्वास को प्राण कहते हैं तथा जो वायु भीतर ली जाती है उस निःश्वास को अपान कहते हैं । ये आत्मा के जीवन में कारण होते हैं । भय के कारणों से तथा वज्रपात आदि से मन का प्रतिघात और मदिरा आदि के द्वारा अभिभव देखा जाता है । हाथ से मुँह और नाक को बन्द करने से श्वासोच्छ्वास का प्रतिघात तथा कण्ठ में कफ आ जाने से अभिभव देखा जाता है । अतः मूर्तिमान् द्रव्यों से प्रतिघात और अभिभव होने से ये सब पौद्गलिक हैं । 38. श्वासोच्छ्वासरूपी कार्य से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । जैसे किसी यन्त्रमूर्ति की चेष्टाएँ उसके प्रयोक्ता का अस्तित्व बताती हैं उसी तरह प्राणापानादि क्रियाएँ क्रियावान् आत्मा की सिद्धि करती हैं । ये क्रियाएँ बिना कारण के भी नहीं होतीं; क्योंकि नियमपूर्वक देखी जाती हैं । विज्ञान आदि के द्वारा भी नहीं हो सकतीं; क्योंकि विज्ञानादि अमूर्त हैं, अतः उनमें प्रेरणाशक्ति नहीं हो सकती । अचेतन होने के कारण रूपस्कन्ध से भी ये क्रियाएँ नहीं हो सकती । यदि सभी पदार्थों को निरीहक मानकर क्रिया का लोप किया जाता है तो फिर पदार्थों की देशान्तरप्राप्ति आदि नहीं हो सकेगी । "वायुधातु से देशान्तर में उत्पन्न हो जाना ही क्रिया है, मुख्य क्रिया नहीं है, 'पदार्थों की उत्पत्ति को ही क्रिया कहते हैं' -- यह सिद्धान्त है" यह पक्ष भी ठीक नहीं है । क्योंकि जब वायुधातु भी निष्क्रिय है तो वह अन्य पदार्थों की देशान्तर में उत्पत्ति कैसे करा सकेगी ? क्षणिक होने से क्रिया का निषेध करना उचित नहीं है क्योंकि क्षणिकवाद प्रमाणविरुद्ध है । 39. प्रश्न – 'शरीरवाङ्मनःप्राणापाना' यहाँ शरीर आदि को प्राणी का अंग होने से द्वन्द्व समास में एकवचन होना चाहिए ? उत्तर – जहाँ अंग-अंगिभाव होता है वहाँ एकचन नहीं होता । प्राणी के अंगों में ही जहाँ द्वन्द्व-समास होता है वहीं एकवचन होता है । यहाँ शरीर अंगी है तथा वचन मन आदि अंग । अथवा वचन आदि अंग भी नहीं हैं क्योंकि ये दाँत आदि की तरह अनवस्थित हैं । चूँकि समाहारविषयक द्वन्द्व-समास में एकवद्भाव होता है, और समाहार एक प्राणी के अंगों में ही होता है, किन्तु यहाँ शरीर, वचन, मन आदि नाना प्राणियों के विवक्षित हैं । एकवद्भाव=An aggregate of many, as in grammar, the formation of a compound noun of several nouns. 40. पुद्गल शब्द का अर्थात् अर्थ है पूरण गलनवाला पदार्थ या जो पुरुष के द्वारा कर्म और नोकर्म के रूप से ग्रहण किया जाता है । 41. उपग्रह शब्द भावसाधन है, अतः अनुक्त कर्ता में 'पुद्गलानाम्' यहाँ पर षष्ठी है । तात्पर्य यह कि शरीर आदि परिणामों के द्वारा पुद्गल आत्मा के उपकारक हैं । कर्ममलीमस आत्मा सक्रिय हैं, अतः वे शरीरादिकृत उपकारों को बन्धपूर्वक स्वीकार करते हैं, उनका अनुभव करते हैं । यदि आत्मा को सर्वथा निष्क्रिय या अत्यन्त शुद्ध माना जाय तो शरीर आदि से बन्ध नहीं हो सकता और उपकारानुभव भी नहीं होगा, क्रिया का कारण न होने से संसार नहीं बनेगा और न मोक्ष ही । |