
सर्वार्थसिद्धि :
इस सूत्र में 'उपकार' इस पद की अनुवृत्ति होती है। अवगाहन करने वाले जीव और पुद्गलों को अवकाश देना आकाश का उपकार जानना चाहिए। शंका – अवगाहन स्वभाव वाले जीव और पुद्गल क्रियावान् हैं इसलिए इनको अवकाश देना युक्त है परन्तु धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय और नित्य सम्बन्धवाले हैं, उनका अवगाह कैसे बन सकता है ? समाधान – नहीं, क्योंकि उपचार से इसकी सिद्ध होती है। जैसे गमन नहीं करने पर भी आकाश सर्वगत कहा जाता है, क्योंकि वह सर्वत्र पाया जाता है इसी प्रकार यद्यपि धर्म और अधर्म द्रव्य में अवगाह रूप क्रिया नहीं पायी जाती तो भी लोकाकाश में वे सर्वत्र व्याप्त हैं, अत: वे अवगाही ऐसा उपचार कर लिया जाता है। शंका – यदि अवकाश देना आकाश का स्वभाव है तो वज्रादिक से लोढा आदिक का और भीत आदि से गाय आदि का व्याघात नहीं प्राप्त होता है, किन्तु व्याघात तो देखा जाता है। इससे मालूम होता है कि अवकाश देना आकाश का स्वभाव नहीं ठहरता ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वज्र और लोढा आदि स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए उनका आपस में व्याघात होता है, अत: आकाश की अवकाश देने रूप सामर्थ्य नहीं नष्ट होती। यहाँ जो व्याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करने वाले पदार्थों का ही है। तात्पर्य यह है कि वज्रादिक स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए वे परस्पर अवकाश नहीं देते, यह कुछ आकाश का दोष नहीं है। हाँ, जो पुद्गल सूक्ष्म होते हैं वे परस्पर अवकाश देते है। शंका – यदि ऐसा है तो यह आकाश का असाधारण लक्षण नहीं रहता, क्योंकि दूसरे पदार्थों में भी इसका सद्भाव पाया जाता है ? समाधान – नहीं क्योंकि, आकाश द्रव्य सब पदार्थों को अवकाश देने में साधारण कारण है यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है। शंका – अलोकाकाश में अवकाशदान रूप स्वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाश का स्वभाव नहीं है ? समाधान – नहीं, क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव का त्याग नहीं करता। आकाश द्रव्य का उपकार कहा। अब उसके अनन्तर कहे गये पुद्गलों का क्या उपकार है, यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं- |
राजवार्तिक :
1. अवगाह शब्द भावसाधन है । 2. 'धर्म और अधर्म आकाश में रहते हैं । यह औपचारिक प्रयोग है, यह 'हंस जल को अवगाहन करता है । इसकी तरह मुख्य प्रयोग नहीं है । मुख्य आधाराधेयभाव में आधार और आधेय में पौर्वापर्य होता है और यह पहिले है इस प्रकार का सादित्व होता है किन्तु यहाँ समस्त लोकाकाश में धर्म और अधर्म की व्याप्ति है अतः 'लोकाकाश में अवगाह है' यह प्रयोग हो जाता है । जैसे कि गमनक्रिया न होनेपर भी सर्वत्र व्याप्ति होने के कारण आकाश को सर्वगत कह देते हैं । 3-4. प्रश्न – कुण्ड और बेर आदि पृथक्-सिद्ध पदार्थों में ही आधाराधेय भाव देखा जाता है । पर ये धर्म अधर्म आकाश आदि तो अयतसिद्ध (पृथकसिद्ध नहीं) हैं क्योंकि इनमें अप्राप्तिपूर्वक प्राप्ति नहीं है ? उत्तर – अयुतसिद्ध पदार्थों में भी आधाराधेयभाव देखा जाता है जैसे कि 'हाथ में रेखा' यहाँ पर, उसी तरह लोकाकाश में धर्म और अधर्म हैं यह व्यवहार भी बन जायगा । अथवा, जैसे 'ईश्वर में ऐश्वर्य है' यहाँ अयुतसिद्ध में भी आधाराधेयभाव देखा गया है उसी तरह धर्म अधर्म और आकाश में भी समझ लेना चाहिए । 5. धर्माधर्मादि के अनादि-सम्बन्ध और अयुतसिद्धत्व के विषय में अनेकान्त है - पर्यायार्थिकनय की गौणता और द्रव्यार्थिक की मुख्यता होने पर व्यय और उदय नहीं होता अतः ये स्यात् अयुतसिद्ध और अनादि-सम्बद्ध हैं तथा पर्यायार्थिक की मुख्यता और द्रव्यार्थिक की गौणता में सादि-सम्बद्ध और युतसिद्ध हैं क्योंकि पर्यायों का उत्पाद और व्यय होता रहता है । 6. जीव और पुद्गल 'हंस जल का अवगाहन करता है' इसकी तरह मुख्य रूप से अवगाह प्राप्त करते हैं क्योंकि ये क्रियावान हैं । 7-9. आकाश में अवकाशदान की शक्ति होने पर भी स्थूल पदार्थ परस्पर में टकरा जाते हैं, एक-दूसरे के प्रतिघाती होते हैं । इन वन, पत्थर, दीवाल आदि स्थूल पदार्थों में प्रतिघात होने से आकाश के अवकाशदान में कोई कमी नहीं आती । सूक्ष्म-पदार्थ तो एक-दूसरे के भीतर भी प्रवेश कर सकते हैं । सूक्ष्म-पदार्थों के परस्पर अवकाश देने पर भी आकाश के अवगाहदान लक्षण में कोई कमी नहीं आती, क्योंकि भूमि आदि अश्व आदि के आधार हो भी जायँ किन्तु समस्त पदार्थों को अवगाह देना आकाश की ही विशेषता है । अलोकाकाश में यद्यपि अवगाही पदार्थ नहीं है फिर भी आकाश का 'अवगाहदान' स्वभाव वहाँ भी मौजूद है ही जैसे कि जल में अवगाहन करनेवाले हंस आदि के अभाव में भी 'अवगाह देना' स्वभाव बना रहता है । 10. प्रश्न – आकाश का खरविषाण की तरह अभाव है क्योंकि वह उत्पन्न नहीं हुआ है ? उत्तर – आकाश को अनुत्पन्न कहना असिद्ध है, क्योंकि द्रव्यार्थिक की गौणता और पर्यायार्थिक की मुख्यता होनेपर अगुरुलघु गुणों की वृद्धि और हानि के निमित्त से स्व-प्रत्यय उत्पाद-व्यय और अवगाहक जीव-पुद्गलों के परिणमन के अनुसार पर-प्रत्यय उत्पाद-व्यय आकाश में होते ही रहते हैं । जैसे कि अन्तिम समय में असर्वज्ञता का विनाश होकर किसी मनुष्य को सर्वज्ञता उत्पन्न हुई तो जो आकाश पहिले अनुपलभ्य था वही पीछे सर्वज्ञ को उपलभ्य हो गया, अतः आकाश भी अनुपलभ्यत्वेन विनष्ट होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ । इस तरह उसमें पर-प्रत्यय भी उत्पाद-विनाश होते रहते हैं । 'खरविषाण' भी ज्ञान और शब्द रूप से उत्पन्न होता है तथा अस्तित्व में भी है, अतः दृष्टान्त साध्यसाधन उभयधर्म से शून्य है । कोई जीव जो पहिले खर था, मरकर गौ उत्पन्न हुआ और उसके सींग निकल आये । ऐसी दशा में एक जीव की अपेक्षा अर्थरूप से भी 'खर-विषाण' प्रयोग हो ही जाता है । अतः आकाश का अभाव नहीं किया जा सकता । 11. आकाश आवरणाभाव मात्र नहीं है किन्तु वस्तुभूत है । जैसे कि नाम और वेदना आदि अमूर्त होने से अनावरण रूप होकर भी सत् हैं उसी तरह आकाश भी । 12. शब्द पौद्गलिक है, आकाश का गुण नहीं है, अतः शब्द-गुण के द्वारा गुणीभूत आकाश का अनुमान करना उचित नहीं है, किन्तु अवगाह के द्वारा ही वह अनुमित होता है । अतः यह कहना अयुक्तिक है कि - "शब्द आकाश का गुण है, वह वायु के अविघात आदि बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होता है, इन्द्रिय-प्रत्यक्ष है, गुण है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता, निराधार गुण रह नहीं सकते अतः अपने आधारभूत गुणी आकाश का अनुमान कराता है।" 13. सांख्य का आकाश को प्रधान का विकार मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि नित्य निष्क्रिय अनन्त प्रधान के आत्मा की तरह विकार ही नहीं हो सकता, न उसका आविर्भाव ही हो सकता है और न तिरोभाव ही । "प्रधान को सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों को साम्य" अवस्थारूप माना है । उसमें उत्पादक स्वभावता है इसी के विकार महान् आदि होते हैं, आकाश भी उसी का विकार है" -- यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि जिस प्रकार घड़ा प्रधान का विकार होकर अनित्य मूर्त और असर्वगत है उसी तरह आकाश को भी होना चाहिए या फिर आकाश की तरह घट को नित्य अमूर्त और सर्वगत होना चाहिए । एक कारण से दो परस्पर अत्यन्तविरोधी विकार नहीं हो सकते । |