
सर्वार्थसिद्धि :
दूसरों को दुःख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है। मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा भीतर भक्ति और अनुराग का व्यक्त होना प्रमोद है। दोनों पर दयाभाव रखना कारुण्य है। रागद्वेषपूर्वक पक्षपात का न करना माध्यस्थ्य है। बुरे कर्मों के फल से जो नाना योनियों में जन्मते और मरते हैं वे सत्व हैं। सत्व यह जीव का पर्यायवाची नाम है। जो सम्यग्ज्ञानादि गुणों में बढ़े चढ़े हैं वे गुणाधिक कहलाते हैं। असातावेदनीय के उदय से जो दुःखी हैं वे क्लिश्यमान कहलाते हैं। जिनमें जीवादि पदार्थों को सुनने और ग्रहण करने का गुण नहीं हैं वे अविनेय कहलाते हैं । इन सत्व आदिक में क्रम से मैत्री आदि की भावना करनी चाहिए। जो सब जीवों में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में कारुण्य और अविनेयों में माध्यस्थ्य भाव की भावना करता है उसके अहिंसा आदि व्रत पूर्णता को प्राप्त होते हैं। अब फिर भी और भावना के लिए आगे का सूत्र कहते हैं- |
राजवार्तिक :
1-4.
5-7. अनादिकालीन अष्टविध कर्मबन्धन से तीव्र दुःख की कारणभत चारों गतियों में जो दुख उठाते हैं वे सत्त्व हैं । सम्यग्दर्शन ज्ञान आदि गुणों से विशिष्ट पुरुष गुणाधिक हैं। असाता वेदनीय के उदय से जो शारीर या मानस दुःखों से संतप्त हैं वे क्लिश्यमान हैं । तत्त्वार्थोपदेश श्रवण और ग्रहण के जो पात्र होते हैं उन्हें विनेय कहते हैं। अविनेय अर्थात् विपरीत वृत्तिवाले। इनमें मैत्री आदि भावनाएँ रखनी चाहिए ।
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