+ श्रावक के और भी व्रत -
दिग्देशानर्थदण्ड-विरति-सामायिक-प्रोषधोपवासोपभोग-परिभोग-परिमाणातिथि-संविभागव्रतसम्पन्नश्च ॥21॥
अन्वयार्थ : वह दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिकव्रत, प्रोषधोपवासव्रत, उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत और अतिथिसंविभागव्रत इन व्रतों से भी सम्पन्न होता है ॥२१॥
Meaning : Abstaining from activity with regard to directions, country, and purposeless sin, periodical concentration, fasting at regular intervals, limiting consumable and non-consumable things, and partaking of one’s food after feeding an ascetic, are the minor or supplementary vows.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

विरति शब्द प्रत्येक शब्द पर लागू होता है । यथा - दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति । ये तीन गुणव्रत हैं, क्योंकि व्रत शब्द का हर एक के साथ सम्बन्ध है । तथा सामायिकव्रत, प्रोषधोपवासव्रत, उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत और अतिथिसंविभ।गव्रत ये चार है । इस प्रकार इन व्रतों से जो सम्पन्न है वह गृही विरताविरत कहा जाता है । खुलासा इस प्रकार है -

जो पूर्वादि दिशाएँ हैं उनमें प्रसिद्ध चिह्नों के द्वारा मर्यादा करके नियम करना दिग्विरतिव्रत है । उस मर्यादा के बाहर त्रस और स्थावर हिंसा का त्याग हो जाने से उतने अंश में महाव्रत होता है । मर्यादा के बाहर लाभ होते हुए भी उसमें परिणाम न रहने के कारण लोभ का त्याग हो जाता है ।

ग्रामादिक की निश्चित मर्यादारूप प्रदेश देश कहलाता है । उससे बाहर जाने का त्याग कर देना देशविरतिव्रत है । यहाँ भी पहले के समान मर्यादा के बाहर महाव्रत होता है ।

उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है वह अनर्थदण्ड है । इससे विरत होना अनर्थदण्डविरतिव्रत है । अनर्थदण्ड पाँच प्रकार का है- अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और अशुभश्रुति --

दूसरों का जय, पराजय, मारना, बाँधना, अंगों का छेदना और धन का अपहरण आदि कैसे होवे इस प्रकार मन से विचार करना अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड है।

तिर्यंचों को क्लेश पहुँचाने वाले, वणिज का प्रसार करनेवाले और प्राणियों की हिंसा के कारणभूत आरम्भ आदि के विषय में पापबहुल वचन बोलना पापोपदेश नाम का अनर्थदण्ड है ।

बिना प्रयोजन के वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना, पानी का सींचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नाम का अनर्थदण्ड है ।

विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक और लकड़ी आदि हिंसा के उपकरणों का प्रदान करना हिंसाप्रदान नाम का अनर्थदण्ड है ।

हिंसा और राग आदि को बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओं का सुनना और उनकी शिक्षा देना अशुभश्रुति नाम का अनर्थदण्ड है ।



'सम्' उपसर्ग का अर्थ एकरूप है । जैसे 'घी संगत है, तेल संगत है,' जब यह कहा जाता है तब संगत का अर्थ एकीभूत होता है । सामायिक में मूल शब्द समय है । इसके दो अवयव हैं सम् और अय । सम्‌ अर्थ कहा ही है और अय का अर्थ गमन है । समुदायार्थ एकरूप हो जाना समय है और समय ही सामायिक है । अथवा समय अर्थात् एकरूप हो जाना ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है । इतने देश में और इतने काल तक इस प्रकार निश्चित की गयी सामायिक में स्थित पुरुष के पहले के समान महाव्रत जानना चाहिए, क्योंकि इसके सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के हिंसा आदि पापों का त्याग हो जाता है ।

शंका – यदि ऐसा है तो सामायिक में स्थित हुए पुरुष के सकलसंयम का प्रसंग प्राप्त होता है ?

समाधान –
नहीं, क्योंकि इसके संयम का घात करने वाले कर्मों का उदय पाया जाता हैं ।

शंका- -तो फिर इसके महाव्रत का अभाव प्राप्त होता है ?

समाधान – नहीं, क्योंकि जैसे राजकुल में चैत्र को सर्वगत उपचार से कहा जाता है उसी प्रकार इसके महाव्रत उपचार से जानना चाहिए ।

प्रोषध का अर्थ पर्व है और पांचों इन्द्रियों के शब्दादि विषयों के त्यागपूर्वक उसमें निवास करना उपवास है । अर्थात चार प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है । तथा प्रोषध के दिनों में जो उपवास किया जाता है उसे प्रोषधोवास कहते हैं । प्रोषधोपवासी श्रावक को अपने शरीर के संस्कार के कारण स्नान, गन्ध, माला और आभरण आदि का त्याग करके किसी पवित्र स्थान में, साधुओं के रहने के स्थान में, चैत्यालय में या अपने प्रोषधोपवास के लिए नियत किये गये घर में, धर्मकथा के सुनने, सुनाने और चिन्तन करने में मन को लगाकर उपवासपूर्वक निवास करना चाहिए और सब प्रकार का आरम्भ छोड देना चाहिए ।

भोजन, पान, गन्ध और माला आदि उपभोग कहलाते हैं तथा ओढ़ना-बिछाना, अलंकार, शयन, आसन, घर, यान और वाहन आदि परिभोग कहलाते हैं । इनका परिमाण करना उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत है । जिसका चित्त त्रसहिंसा से निवृत्त है उसे सदा के लिए मधु, मांस और मदिरा का त्याग कर देना चाहिए । जो बहुत जन्तुओं की उत्पत्ति के आधार हैं और जिन्हें अनन्तकाय कहते हैं ऐसे केतकी के फूल और अर्जुन के फूल आदि तथा अदरख और मूली आदि का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि इनके सेवन में फल कम है और घात बहुत जीवों का है । तथा यान, वाहन और आभरण आदिक में हमारे लिए इतना ही इष्ट है शेष सब अनिष्ट है इस प्रकार का विचार करके कुछ काल के लिए या जीवन भर के लिए शक्त्यानुसार जो अपने लिए अनिष्ट हो उसका त्याग कर देना चाहिए ।

संयमका विनाश न हो इस विधि से जो चलता है वह अतिथि है या जिसके आने की कोई तिथि नहीं उसे अतिथि कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिसके आने का कोई काल निश्चित नहीं है उसे अतिथि कहते हैं । इस अतिथि के लिए विभाग करना अतिथिसंविभाग है । वह चार प्रकार का है- भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय अर्थात् रहनेका स्थान । जो मोक्ष के लिए बद्धकक्ष है, संयम के पालन करने में तत्पर है और शुद्ध है उस अतिथि के लिए शुद्ध मन से निर्दोष भिक्षा देनी चाहिए । सम्यग्दर्शन आदि के बढ़ाने वाले धर्मोपकरण देने चाहिए । योग्य औषध की योजना करनी चाहिए तथा परम धर्म में श्रद्धापूर्वक निवास-स्थान भी देना चाहिए । सूत्र में जो 'च' शब्द है वह आगे कहे जाने वाले गृहस्थधर्म के संग्रह करने के लिए दिया है ।

वह और क्या होता है-

राजवार्तिक :

1-6. परमाणुओं से मापे गये आकाश के प्रदेशों की श्रेणी में ही सूर्य के उदय, अस्त और गति से पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि दिशाओं का व्यवहार होता है। निश्चित संख्यावाले ग्राम, नगर आदि के प्रदेशों को देश कहते हैं । बिना प्रयोजन के पाप-कर्मों में प्रवृत्ति अनर्थदण्ड है । विरति शब्द का प्रत्येक से सम्बन्ध हो जाता है - दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति । यद्यपि प्रथमसूत्र में विरतिशब्द है पर वह उपसर्जनीभूत गौण होने से सम्बद्ध नहीं हो सकता अतः यहाँ उसका पुनः प्रहण किया है।

7. जैसे 'संगत घृत, संगत तैल' में 'सम्' शब्द एकीभाव अर्थ में है उसी तरह सामायिक में भी । अर्थात् मन, वचन और काय की क्रियाओं से निवृत्त होकर एक आत्मद्रव्य में लीन हो जाना । समय अर्थात् आत्मा की प्राप्ति जिसका प्रयोजन हो वह सामायिक है ।

8. पाँचों इन्द्रियों का शब्द अदि विषयों से निवृत्त होकर आत्मा के समीप पहुँच जाना उपवास है अर्थात् अशन, पान, भक्ष्य और लेह्य इन चार प्रकार के आहारों का त्याग करना उपवास है। प्रोषध अर्थ पर्व के दिन । पर्व में किया जानेवाला उपवास प्रोषधोपवास है।

9. उपभोग अर्थात् एकबार भोगे जानेवाले अशन, पान, गन्ध, माला आदि । परिभोग अर्थात् जो एकबार भोगे जाकर भी दुबारा भोगे जा सकें जैसे वस्त्र, अलंकार, शय्या, मकान, सवारी आदि । उपभोग और परिभोग की मर्यादा करना उपभोगपरिभोगपरिमाण है।



10-11. चारित्रबल से सम्पन्न होने के कारण जो संयम का विनाश नहीं करके गमन करता है वह अतिथि है। अथवा, जिसके आने की तिथि निश्चित न हो वह अतिथि है। अतिथि के लिए संविभाग-दान देना अतिथिसंविभाग व्रत है।

12-13. 'व्रत' शब्द प्रथम सूत्र में है पर गौण होने से उसका यहाँ सम्बन्ध नहीं किया जा सकता। 'व्रतसम्पन्न' शब्द का सम्बन्ध दिग्विरतिव्रतसम्पन्न, देशविरतिव्रतसम्पन्न आदि रूप से प्रत्येक से कर देना चाहिए ।

14-18. जिनका बचाव नहीं किया जा सकता ऐसे क्षुद्र जन्तुओं से दिशाएँ व्याप्त रहती हैं अतः उनमें गमनागमन की निवृत्ति करनी चाहिए। दिशाओं का परिमाण पर्वत आदि प्रसिद्ध चिह्नों से तथा योजन आदि की गिनती से कर लेना चाहिए । यद्यपि दिशाओं के भाग में गमन न करने पर भी स्वीकृत क्षेत्रमर्यादा के कारण पापबन्ध होता है फिर भी दिग्विरति का उद्देश्य निवृत्तिप्रधान होने से बाह्यक्षेत्र में हिंसादि की निवृत्ति करने के कारण कोई दोष नहीं है । जो पूर्णरूप से हिंसादिनिवृत्ति करने में असमर्थ है पर उस सकलविरति के प्रति आदरशील है वह श्रावक जीवन-निर्वाह हो या न हो, अनेक प्रयोजन होने पर भी स्वीकृत क्षेत्रमर्यादा को नहीं लाँघता अतः हिंसानिवृत्ति होने से वह व्रती है। किसी परिग्रही व्यक्ति को 'इस दिशा में अमुक जगह जाने पर बिना प्रयत्न के मणि मोती आदि उपलब्ध होते हैं। इस तरह प्रोत्साहित करने पर भी दिग्व्रत के कारण बाहर जाने की और मणि मोती की सहजप्राप्ति की लालसा का निरोध होने से दिग्व्रत श्रेयस्कर है। अहिंसाणुव्रती भी परिमित दिशाओं से बाहर मन, वचन, काय, कृत, कारित और अनुमोदना सभी प्रकारों के द्वारा हिंसादि सर्वसावद्यों से विरक्त होता है अतः वहाँ उसके महाव्रत ही माना जाता है।

19. इसीतरह देशविरतिव्रत होता है। 'मैं इस घर और तालाब के मध्य भाग को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाऊँगा।' इसतरह देशव्रत लिया जाता है। मर्यादा के बाहिरी क्षेत्र में इसे भी महाव्रत कहते हैं । दिग्विरति यावन्नीवन-सर्वकालके लिये होती है जब कि देशव्रत शक्त्यनुसार नियतकाल के लिए होता है।

20. अनर्थदण्ड पाँच प्रकार का है। 'दूसरे का जय, पराजय, वध, बन्ध, अंगच्छेद, धनहरण आदि कैसे हो' यह मन से चिन्तन करना अपध्यान है । क्लेशवणिज्या तिर्यगवणिज्या वधकोपदेश और आरम्भोपदेश आदि पापोपदेश हैं । 'इस देश में दास दासी सस्ते मिलते हैं, उन्हें अमुक देश में बेचने पर प्रचुर अर्थलाभ होगा' इत्यादि कहना क्लेशवणिज्या है। गाय भैंस आदि पशुओं के व्यापार का मार्ग बताना तिर्यग्वणिज्या है। जाल डालनेवाले, पक्षी पकड़नेवाले तथा शिकारियों को पक्षी, मृग, सुअर आदि शिकार के योग्य प्राणियों का पता आदि बताना वधकोपदेश है। आरम्भकार्य करनेवाले किसान आदि को पृथिवी, जल, अग्नि और वनस्पति आदि के आरम्भ के उपाय बताना आरम्भोपदेश है। तात्पर्य यह कि हर प्रकार के पापवर्धक उपदेश पापोपदेश है । प्रयोजन के बिना ही वृक्ष आदि का काटना, भूमि को कूटना, पानी सींचना आदि सावद्यकर्म प्रमादाचरित हैं । विष, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, कसन और दंड आदि हिंसा के उपकरणों का देना हिंसादान है। हिंसा या काम आदि को बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओं का सुनना और सिखाना आदि व्यापार अशुभश्रुति है। इन अनर्थदंडों से विरक्त होना अनर्थदंडविरतिव्रत है।

21. पहिले कहे गये दिग्व्रत और देशव्रत तथा आगे कहे जानेवाले उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत में स्वीकृत मर्यादा में भी निरर्थक गमन आदि तथा विषयसेवन आदि नहीं करना चाहिए, इस अतिरेकनिवृत्ति की सूचना देने के लिए बीच में अनर्थदण्डविरति का ग्रहण किया है।

22-24. जितने काल तथा जितने क्षेत्र का परिमाण सामायिक में निश्चित किया जाता है उसमें स्थित सामायिक करनेवाले के स्थूल और सूक्ष्म हिंसा आदि से निवृत्ति होने के कारण महाव्रतत्व समझना चाहिए। यद्यपि सामायिक में सर्वसावद्यनिवृत्ति हो जाती है फिर भी संयमघाती चारित्रमोह कर्म के उदय के कारण इसे संयत नहीं कह सकते। इसे 'महाव्रती' तो उपचार से कहा है । जैसे राजमहल के कुछ भण्डार बैठक आदि में व्यापार करनेवाला चैत्र अन्तःपुर शयनागार आदि में नहीं जाकर भी 'राजकुल में सर्वगत' यह समझा जाता है उसी तरह हिंसादि बाह्य व्यापारों से विरक्त होने के कारण आभ्यन्तर संयमघाती कर्म के उदय रहनेपर भी सामायिकव्रती को महाव्रती कह देते हैं। इसीलिए निर्ग्रन्थलिंगधारी और एकादशांगपाठी अभव्य की भी बाह्यमहाव्रत पालन करने के कारण देशसंयतभाव और संयतभाव से रहित होने पर भी उपरिम ग्रैवेयिक तक उत्पत्ति बन जाती है।

25. श्रावक शरीरसंस्कार के कारणभूत स्नान, गन्ध, माला, अलंकार आदि से रहित होकर साधुनिवास चैत्यालय या प्रोषधोपवासालय आदि पवित्र स्थानों में धर्मकथाश्रवण, श्रावण, चिन्तन और ध्यान आदि में मन को लगाता हुआ आरम्भ परिग्रह को छोड़कर उपवास करे।

26. त्रसघात, बहुघात, प्रमाद, अनिष्ट और अनुपसेव्य रूप विषयों के भेद से भोगोपभोगपरिमाणवत पाँच प्रकार का हो जाता है। त्रसघात की निवृत्ति के लिए मधु और मांस को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए। प्रमाद के नाश करने के लिए हिताहितविवेक को नष्ट करनेवाली मोहकारी मदिरा का त्याग करना अत्यावश्यक है। केतकी, अर्जुनपुष्प आदि बहुत जन्तुओं के उत्पत्तिस्थान हैं तथा मूली, अदरख, हलदी, नीम के फूल आदि अनन्तकाय हैं, इनके सेवन में अल्पफल और बहुविधात होता है, अतः इनका त्याग ही कल्याणकारी है। गाड़ी, रथ, घोड़ा तथा अलंकार आदि 'इतने मुझे इष्ट हैं, रखना हैं, अन्य अनिष्ट हैं' इस तरह अनिष्ट से निवृत्ति करनी चाहिये क्योंकि जबतक अभिप्रायपूर्वक नियम नहीं लिया जाता तबतक वह व्रत नहीं माना जा सकता। जो विचित्र प्रकार के वस्त्र विकृतवेष आभरण आदि शिष्टजनों के उपसेव्य-धारण करने लायक नहीं हैं वे अपने को अच्छे भी लगते हों तब भी उनका यावज्जीवन परित्याग कर देना चाहिये। यदि वैसी शक्ति नहीं है तो अमुक समय की मर्यादा से अमुक वस्तुओं का परिमाण करके निवृत्ति करनी चाहिये।

27. अतिथिसंविभागव्रत आहार, उपकरण औषध और आश्रय के भेद से चार प्रकार का हो जाता है। मोक्षार्थी संयमी शुद्धमति के लिए शुद्ध-चित्त से निर्दोष-भिक्षा, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के बढ़ानेवाले धर्मोपकरण, योग्य औषध और आश्रय परमधर्म और श्रद्धापूर्वक देना चाहिये।

'च' शब्द से गृहस्थधर्मों में संगृहीत होनेवाली सल्लेखना का वर्णन -