
सर्वार्थसिद्धि :
अपने परिणामों से प्राप्त हुई आयु का, इन्द्रियों का और मन, वचन, काय इन तीन बलों का कारण विशेष के मिलने पर नाश होना मरण है । उसी भव के मरण का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में मरण शब्द के साथ अन्त पद को ग्रहण किया है । मरण यही अन्त मरणान्त है और 'जिसका यह मरणान्त ही प्रयोजन है' वह मारणान्तिकी कहलाती है । अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृष करना सल्लेखना है । अर्थात् बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का, उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए, भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृष करना सल्लेखना है । मरण के अन्त में होने वाली इस सल्लेखना को प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला गृहस्थ होता है यह इस सूत्र का तात्पर्य है । शंका – सहज तरीके से अर्थ का स्पष्टीकरण हो इसके लिए सूत्र में 'जोषिता' इसके स्थान में 'सेविता' कहना ठीक है ? समाधान – नहीं; क्योंकि 'जोषिता ' क्रिया के रखने से उससे अर्थ-विशेष ध्वनित हो जाता है। यहाँ केवल 'सेवन करना' अर्थ नहीं लिया गया है किन्तु प्रीति रूप अर्थ भी लिया गया है, क्योंकि प्रीति के न रहने पर बलपूर्वक सल्लेखना नहीं करायी जाती । किन्तु प्रीति के रहने पर जीव स्वयं ही सल्लेखना करता है । तात्पर्य यह है कि 'प्रीतिपूर्वक सेवन करना' यह अर्थ 'जोषिता' क्रिया से निकल आता है 'सेविता' से नहीं, अत: सूत्र में 'जोषिता' क्रिया रखी है । शंका – चूं कि सल्लेखना में अपने अभिप्राय से आयु आदि का त्याग किया जाता है, इसलिए यह आत्मघात हुआ ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद का अभाव है। 'प्रमत्तयोग से प्राणों का वध करना हिंसा है' यह पहले कहा जा चुका है । परन्तु इसके प्रमाद नहीं है, क्योंकि इसके रागादिक नहीं पाये जाते । राग, द्वेष और मोह से युक्त होकर जो विष और शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है उसे आत्मघात का दोष प्राप्त होता है । परन्तु सल्लेखना को प्राप्त हुए जीव के रागादिक तो हैं नहीं, इसलिए इसे आत्म- घात का दोष नहीं प्राप्त होता । कहा भी है - " शास्त्र में यह उपदेश है कि रागादि का नहीं उत्पन्न होना अहिंसा है । तथा जिनदेव ने उनकी उत्पत्ति को हिंसा कहा है ॥ '' दूसरे, मरण किसी को भी इष्ट नहीं है । जैसे नाना प्रकार की विक्रेय वस्तुओं के देन, लेन और संचय में लगे हुए किसी व्यापारी को अपने घर का नाश होना इष्ट नहीं है । फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाश के कारण आ उपस्थित हों तो यथाशक्ति वह उनको दूर करता है । इतने पर भी यदि वे दूर न हो सकें तो जिससे विक्रेय वस्तुओं का नाश न हो ऐसा प्रयत्न करता है उसी प्रकार पुण्यस्थानीय व्रत और शील के संचय में जुटा हुआ गृहस्थ भी उनके आधारभूत आयु आदि का पतन नहीं चाहता । यदा कदाचित् उनके विनाश के कारण उत्पन्न हो जाँय तो जिससे अपने गुणों में बाधा नहीं पड़े इस प्रकार उनको दूर करने का प्रयत्न करता है । इतने पर भी यदि वे दूर न हों तो जिससे अपने गुणों का नाश न हो इस प्रकार प्रयत्न करता है, इसलिए इसके आत्मघात नाम का दोष कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता है । यहाँ पर शंकाकार कहता है कि व्रती निःशल्य होता है ऐसा कहा है और वहां तीसरी शल्य मिथ्यादर्शन है । इसलिए सम्यग्दृष्टि व्रती को निःशल्य होना चाहिए यह उसका अभिप्राय है, तो अब यह बतलाइए कि वह सम्यग्दर्शन सापवाद होता है या निरपवाद होता है ? अब इसका समाधान करते हैं - किसी जीव के मोहनीय की अवस्था विशेष के कारण ये अपवाद होते हैं - |
राजवार्तिक :
1-5. अपने परिणामों से गृहीत आयु, इन्द्रिय और बल का कारणवश क्षय होना मरण है। मरण दो प्रकार का है - नित्यमरण और तद्भवमरण ।
6-9. प्रश्न – सल्लेखना में अभिप्रायपूर्वक आयु और शरीर आदि का घात किया जाता है, अतः इसमें आत्मवध का दोष लगना चाहिये ? उत्तर – प्रमाद के योग से प्राणव्यपरोपण को हिंसा कहते हैं । चूँकि सल्लेखना में प्रमाद का योग नहीं है अतः उसे आत्मवध नहीं कह सकते । राग, द्वेष और मोह आदि से कलुषित व्यक्ति जब विष, शस्त्र आदि से अभिप्रायपूर्वक घात करता है तब आत्मवध का दोष होता है, पर सल्लेखनाधारी के राग-द्वेष आदि कलुषताएँ नहीं हैं अतः आत्मवध का दोष नहीं हो सकता। कहा भी है - "रागादि की उत्पत्ति न होना अहिंसा है और रागादि का उत्पन्न होना ही हिंसा है।" फिर, मरण तो अनिष्ट होता है । जैसे अनेक प्रकार के सोने, चाँदी, कपड़ा आदि वस्तुओं का व्यापार करनेवाले किसी भी दुकानदार को अपनी दुकान का विनाश कभी इष्ट नहीं हो सकता, और विनाश के कारण आ जाने पर यथाशक्ति उनका परिहार करना संभव न हुआ तो वह बहुमूल्य पदार्थों की रक्षा करता है उसीतरह व्रत, शील, पुण्य आदि के संचय में लगा हुआ गृहस्थ भी इनके आधारभूत शरीर का विनाश कभी भी नहीं चाहता, शरीर में रोग आदि विनाश के कारण आने पर उनका यथाशक्ति समयानुसार प्रतीकार भी करता है, पर यदि निष्प्रतीकार अवस्था हो जाती है तो अपने संयम आदि का विनाश न हो उनकी रक्षा हो जाय इसके लिए पूरा यत्न करता है । अतः व्रतादि की रक्षा के लिए किये गये प्रयत्न को आत्मवध कैसे कहा जा सकता है ? अथवा, जिस प्रकार तपस्वी ठंड गरमी के सुख-दुःख को नही चाहता, पर यदि बिन चाहे सुख-दुःख आ जाते हैं तो उनमें राग-द्वेष न होने से तत्कृत कर्मों का बन्धक नहीं होता उसी तरह जिनप्रणीत सल्लेखनाधारी व्रती जीवन और मरण दोनों के प्रति अनासक्त रहता है पर यदि मरण के कारण उपस्थित हो जाते हैं तो रागद्वेष आदि न होने से आत्मवध का दोषी नहीं है। 10. जैसे क्षणिकवादी को 'सभी पदार्थ क्षणिक हैं' यह कहने में स्वसमयविरोध है उसी तरह 'जब सत्त्व सत्त्वसंज्ञा वधक और वधचित्त इन चार चेतनाओं के रहनेपर हिंसा होती है। इस मतवादी के यहाँ जब सल्लेखनाकारी के 'आत्मवधक' चित्त ही नहीं है तब आत्मवध का दोष देने में स्ववचनविरोध है। इसका अर्थ यह हुआ कि बिना अभिप्राय के ही कर्मबन्ध हो गया जो कि स्पष्टतः सिद्धान्तविरुद्ध है। यदि सिद्धान्तविरोध के भय से चार प्रकार की चेतनाओं के रहने पर ही हिंसा स्वीकार की जाती है तो सल्लेखना में आत्मवधक चित्त न होने से हिंसा नहीं माननी चाहिए। अथवा, जैसे 'मैं मौनी हूँ' यह कहनेवाले मौनी के स्ववचनविरोध है उसी तरह निरात्मकवादी के जब आत्मा का अभाव ही है तब 'आत्मवधकत्व' का दोष देने में भी स्ववचनविरोध ही है । यदि स्ववचनविरोध के भय से निरात्मक पक्ष लिया जाता है तो 'आत्मवध' की चर्चा अप्रासंगिक हो जाती है। जो वादी आत्मा को निष्क्रिय मानते हैं यदि वे साधुजन-सेवित सल्लेखना को करनेवाले के लिए 'आत्मवध' दूषण देते हैं तो उनकी आत्मा को निष्क्रिय मानने की प्रतिज्ञा खंडित हो जाती है और यदि वे निष्क्रियत्व पक्ष पर दृढ़ रहते हैं तो जब आत्मवध की प्रयोजक सल्लेखना नामक क्रिया ही नहीं हो सकती, तब आत्मवध का दोष कैसे दिया जा सकता है ? 11. जिस समय व्यक्ति शरीर को जीर्ण करनेवाली जरा से क्षीणबलवीर्य हो जाता है और वातादिविकारजन्य रोगों से तथा इन्द्रियबल आदि के नष्टप्राय होने से मृतप्राय हो जाता है, उस समय सावधान व्रती मरण के अनिवार्य कारणों के उपस्थित होने पर प्रासुक भोजन, पान और उपवास आदि के द्वारा क्रमशः शरीर को कृश करता है और मरण होने तक अनुप्रक्षा आदि का चिन्तन करके उत्तम आराधक होता है । 12-14. पूर्वसूत्र के साथ इस सूत्र को मिलाकर एक सूत्र इसलिए नहीं बनाया कि सल्लेखना कभी किसी सप्तशीलधारी व्रती के द्वारा आवश्यकता पड़नेपर ही की जाती है, दिग्वत आदि की तरह वह सबके लिए अनिवार्य नहीं है। किसी के सल्लेखना के कारण नहीं भी आते। गृहस्थ को दिगव्रत आदि सात शीलों का उपदेश दिया गया है । उसे घर छोड़ देने पर श्रावकरूप से ही सल्लेखना होती है इस विशेष अर्थ को सूचना देने के लिए पृथक सूत्र बनाया है। 'यह सल्लेखना विधि सातशीलधारी गृहस्थ को ही नहीं है किन्तु महाव्रती साधु को भी होती है' इस सामान्य नियम की सूचना भी पृथक् सूत्र बनाने से मिल जाती है। |