+ दान में विशेषता -
विधि-द्रव्य-दातृ-पात्र-विशेषात्तद्विशेष: ॥39॥
अन्वयार्थ : विधि, देय वस्‍तु, दाता और पात्र की विशेषता से उसकी विशेषता है ॥३९॥
Meaning : The distinction with regard to the effect of a gift consists in the manner, the thing given, the nature of the giver, and the nature of the recipient.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

प्रतिग्रह आदि करने का जो क्रम है वह विधि है। विशेषता गुण से आती है । इस विशेष शब्‍द को विधि आदि प्रत्‍येक शब्‍द के साथ जोड लेना चाहिए। यथा- विधिविशेष, द्रव्‍यविशेष, दाताविशेष और पात्रविशेष ।

प्रतिग्रह आदिक में आदर और अनादर होने से जो भेद होता है वह विधिविशेष है।

जिससे तप और स्‍वाध्‍याय आदि की वृद्धि होती है वह द्रव्‍यविशेष है।

अनसूया और विषाद आदि का न होना दाता की विशेषता है।

तथा मोक्षके कारणभूत गुणों से युक्‍त रहना पात्र की विशेषता है।

जैसे पृथिवी आदि में विशेषता होने से उससें उत्‍पन्‍न हुए बीज में विशेषता आ जाती है वैसे ही विधि आदिक की विशेषता से दान से प्राप्त होने वाले पुण्य फ़ल में विशेषता आ जाती है।

इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामक तत्‍वार्थवृत्तिमें सातवाँ अध्‍याय समाप्‍त हुआ ।।7।।
राजवार्तिक :

1-2. प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम आदि क्रियाओं को विधि कहते हैं । यहाँ विशेषता गुणकृत समझनी चाहिए। विधिविशेष अर्थात् प्रतिग्रह आदिमें आदरपूर्वक प्रवृत्ति करना।

3-5. जो अन्न आदि द्रव्य लेनेवाले पात्र के स्वाध्याय, ध्यान और परिणामशुद्धि आदि की वृद्धि का कारण हो वह द्रव्य विशेष है । पात्र में ईर्षा न होना, त्याग में विषाद न होना, देने की इच्छा करनेवाले में, देनेवाले में या जिसने दान दिया है सबमें प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फल की आकांक्षा न करना, निदान नहीं करना, किसी से विसंवाद नहीं करना आदि दाता की विशेषताएँ हैं । मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शन आदि गुण जिनमें पाये जायँ वे पात्र हैं ।

6. जिस प्रकार भूमि बीज आदि कारणों में गुणवत्ता होने से विशेष फलोत्पत्ति देखी जाती है उसी तरह विधिविशेष आदि से दान के फल में विशेषता होती है।

7-8. यदि सभी पदार्थों को निरात्मक माना जाता है तो विधि आदि की विशेषता नहीं बन सकती । जब ज्ञान क्षणिक है तब 'तप स्वाध्याय और ध्यान में परायण यह ऋषि मेरा उपकार करेगा, इसे दिया गया दान व्रतशील, भावना आदि की वृद्धि करेगा, इसकी यह विधि है' इस प्रकार अनुसन्धान-प्रत्यभिज्ञान ही नहीं हो सकता; क्योंकि पूर्वोत्तरक्षणविषयक ज्ञान संस्कार आदि का ग्राहक एकज्ञान नहीं है । अतः इस पक्ष में दानविधि नहीं बन सकती।

9-10. जो वादी आत्मा को अकारण होने से नित्य, ज्ञानदर्शनादि गुणों से भिन्न होने के कारण अज्ञ, सर्वगत होने से निष्क्रिय आदि मानते हैं; उनके यहाँ भी दानविधि आदि नहीं बन सकती; क्योंकि ऐसी आत्मा में कोई विकार-परिवर्तन की सम्भावना नहीं है। समवाय से क्रियागुण आदि का सम्बन्ध मानने पर भी जबतक स्वयं वैसा परिणमन न होगा तबतक दानादि विधि नहीं बन सकतीं। जिस प्रकार दण्ड का सम्बन्ध होने पर भी देवदत्त में दण्डरूप परिणमन नहीं होता उसमें दण्डस्वभाव नहीं आता उसी तरह क्रिया, गुण आदि के समवाय से भी आत्मा में क्रिया और गुण-स्वभावता नहीं आ सकेगी। ऐसी दशा में दानादिविधि नहीं बन सकती।

11. 'महान् अहंकार आदि चौबीस प्रकार का अचेतन क्षेत्र है और क्षेत्रज्ञ पुरुषचेतन है' इस सांख्यदर्शन में भी क्षेत्रभूत प्रकृति जब अचेतन है तो उसे घटादि की तरह विधि आदि का प्रतिसन्धान नहीं हो सकता। यदि प्रतिसन्धान होता है तो अचेतन नहीं कह सकते। क्षेत्रज्ञ पुरुष तो नित्य शुद्ध और निष्क्रिय है अतः उसे भी दानादि की विधि का अनुसन्धान नहीं हो सकता।

12. अनेकान्तवादी जैनदर्शन में द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य आत्मा में विधिविशेष आदि का अनुसन्धान आदि सभी बन जाते हैं।

सातवाँ अध्याय समाप्त