
सर्वार्थसिद्धि :
आस्रव पदार्थ व्याख्यान किया । अब उसके बाद कहे गये बन्ध पदार्थ का व्याख्यान करना चाहिए उसका व्याख्यान करते हुए पहले बन्ध के कारणों का निर्देश करते हैं, क्योंकि बन्ध तत्पूर्वक होता है- मिथ्यादर्शन आदि का व्याख्यान पहले किया जा चुका है । शंका – इनका व्याख्यान पहले कहॉं किया है। समाधान – 'तत्वार्थश्रध्दानं सम्यग्दर्शनम्' इस सूत्र में सम्यग्दर्शन का व्याख्यान किया है । मिथ्यादर्शन इसका उल्टा है, अत: इससे उसका भी व्याख्यान हो जाता है । या आस्रव का कथन करते समय पच्चीस क्रियाओं में मिथ्यादर्शन क्रिया के समय उसका व्याख्यान किया है । विरति का व्याख्यान पहले कर आये हैं । उसकी उलटी अविरति लेनी चाहिए । प्रमाद का अन्तर्भाव आज्ञाव्यापादनक्रिया और अनाकांक्षाक्रिया इन दोनों में हो जाता है । अच्छे कार्यों के करने में आदरभाव न होना प्रमाद है । कषाय क्रोधादिक हैं जो अन्ततानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन के भेद से अनेक प्रकार की हैं । इनका भी पहले कथन कर आये हैं । शंका – कहॉं पर ? समाधान – 'इन्द्रियकषाया' इत्यादि सूत्र का व्याख्यान करते समय । तथा कायादि के भेद से तीन प्रकार के योग का आख्यान भी पहले कर आये हैं । शंका – कहॉं पर ? समाधान – 'कायवाड मन: कर्म योग:' इस सूत्र में । मिथ्यादर्शन दो प्रकार का हैं- नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । इनमें से जो परोपदेश बिना मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रध्दानरूप भाव होता है वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है । तथा परोपदेश के निमित्त से होने वाला मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है- क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक । अथवा मिथ्यादर्शन पॉंच प्रकार का है- एकान्त मिथ्यादर्शन, विपरीत मिथ्यादर्शन, संशय मिथ्यादर्शन, वैनयिक मिथ्यादर्शन और अज्ञानिक मिथ्यादर्शन। यही है, इसी प्रकार का है इस प्रकार धर्म और धर्मी में एकान्तरूप अभिप्राय रखना एकान्त मिथ्यादर्शन है । जैसे यह सब जग परब्रह्मरूप ही है, या सब पदार्थ अनित्य ही है या नित्य ही है। सग्रन्थको निर्ग्रन्थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपर्यय मिथ्यादर्शन है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर क्या मोक्षमार्ग हैं या नहीं इस प्रकार किसी एक पक्ष को स्वीकार नहीं करना संशय मिथ्यादर्शन है । सब देवता और सब मतों को एक समान मानना वैनयिक मिथ्यादर्शन है । हिताहित की परीक्षा से रहित होना अज्ञानिक मिथ्यादर्शन हैं । कहा भी है- क्रियावादियों के एक सौ अस्सी, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानियों के सडसठ और वैनयिकों के बत्तीस भेद है । छहकाय के जीवों की दया न करने से और छह इन्द्रियों के विषय भेद से अविरति बारह प्रकार की है । सोलह कषाय और नौ नोकषाय ये पच्चीस कषाय हैं। यद्यपि कषायों से नोकषायों में थोडा भेद है पर वह यहॉं विवक्षित नहीं हैं, इसलिये सबको कषाय कहा है । चार मनोयोग, चार वचनयोग और पॉंच काययोग ये योग के तेरह भेद हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक ऋद्धिधारी मुनि के आहारककाययोग और और आहारक मिश्रकाययोग भी सम्भव हैं इस प्रकार योग पन्द्रह भी होते हैं । शुद्धयष्टक और उत्तमक्षमा आदि विषयक भेद से प्रमाद अनेक प्रकार का है । इस प्रकार ये मिथ्यादर्शन आदि पॉंचों मिलकर पृथक-पृथक बन्धके हेतु हैं । स्पष्टीकरण इस प्रकार है - मिथ्यादृष्टि जीव के पाँचों ही मिलकर बंध के हेतु हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि के अविरति आदि चार बन्ध के हेतु हैं। संयतासंयत के विरति और अविरति ये दोनों मिश्ररूप तथा प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के हेतु हैं। प्रमत्तसंयत के प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बन्ध के हेतु हैं। अप्रमत्तसंयत आदि चार के योग और कषाय ये दो बन्ध के हेतु हैं। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली इनके एक योग ही बन्ध का हेतु है। अयोगकेवली के बन्ध का हेतु नहीं है। बन्ध के हेतु कहे। अब बन्ध का कथन करना चाहिये इसलिये आगे का सूत्र कहते हैं— |
राजवार्तिक :
1-5. पञ्चीस क्रियाओं में आई हुई मिथ्यात्वक्रिया में मिथ्यादर्शन अन्तर्भूत है। अविरति का व्याख्यान 'इन्द्रियकषायावत' इसी सूत्र में किया गया है। आज्ञाव्यापादन क्रिया और अनाकांक्ष क्रिया में प्रमाद का अन्तर्भाव है । प्रमाद का अर्थ है - कुशल क्रियाओंमें अनादर अर्थात् मन को नहीं लगाना । क्रोधादि कषायों तथा मन-वचनऔर काय योगों का वर्णन पहिले किया जा चुका है। 6-12. नैसर्गिक और परोपदेश के भेद से मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है। परोपदेश के बिना मिथ्यात्वकर्म के उदय से जो तत्त्वार्थ-अश्रद्धान उत्पन्न होता है वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेश से होनेवाला मिथ्यादर्शन क्रियावादीमत, अक्रियावादीमत, आज्ञानिकमत और वैनयिकमत के भेद से चार प्रकार का है।
13-14. प्रश्न – बादरायण, वसु, जैमिनि आदि तो वेद-विहित क्रियाओं का अनुष्ठान करते हैं, ये आज्ञानिक कैसे हो सकते हैं ? उत्तर – इनने प्राणिवध को धर्म का साधन माना है। प्राणिवध तो पाप का ही साधन हो सकता है, धर्म का नहीं। कर्ता के दोषों की संभावना से रहित अपौरुषेय आगम से प्राणिवध को धर्महेतु सिद्ध करना उचित नहीं है; क्योंकि आगम समस्त प्राणियों के हित का अनुशासन करता है । हिंसा का विधान करनेवाले वचन जिसमें हों वह ठगों के वचन की तरह आगम ही नहीं हो सकता। फिर, वेद में ही कहीं हिंसा और कहीं अहिंसा का परस्पर विरोधी कथन मिलता है, वह स्वयं अनवस्थित है। जैसे 'पुनर्वसु पहिला है और पुष्य पहिला है' ये वचन परस्परविरोधी होने से अप्रमाण हैं उसी तरह 'पशुवध से समस्त इष्ट पदार्थ मिलते हैं, यज्ञ विभूति के लिए हैं अतः यज्ञ में होनेवाला वध अवध है' इस प्रकार एक जगह पशुवध का विधान करनेवाले वचन और दूसरी जगह 'अज-जिनमें अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति न हो ऐसे तीनवर्ष पुराने बीजों से पिष्टमय बलिपशु बनाकर यज्ञ करना चाहिए ये अहिंसक वचन भी परस्परविरोधी होने से प्रमाण नहीं कहे जा सकते। इस तरह अव्यवस्थित होने से वेद को प्रमाण नहीं कह सकते। 15-19. अर्हन्त भगवान के द्वारा प्रभाषित परमागम में सर्वत्र प्राणिवध का निषेध किया है, अहिंसा को ही धर्म माना है अतः प्राणिवध धर्महेतु नहीं हो सकता। अर्हन्त के परमागम को पुरुषकृति होने से अप्रमाण कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि वह अतिशय ज्ञानों का आकर है । इस आगम में नय प्रमाण आदि अधिगम के उपायों से बन्ध-मोक्ष आदि का समर्थन तथा जीवादि तत्त्वों का निरूपण है। अतः रत्नाकर की तरह आर्हत आगम ही समस्त अतिशय ज्ञानों का आकर है। प्रश्न – कल्प, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष आदि अतिशय ज्ञान अन्यत्र भी देखे जाते हैं अतः आर्हत आगम को ही ज्ञान का आकर कहना उपयुक्त नहीं है ? उत्तर – अन्यत्र देखे जानेवाले अतिशय ज्ञानों का मूल उद्भवस्थान आर्हत प्रवचन ही हैं जैसे कि रत्नों का मूल उद्भवस्थान समुद्र है। कहा भी है - "यह अच्छी तरह निश्चित है कि अन्य मतों में जो युक्तिवाद और अच्छी बातें चमकती हैं वे तुम्हारी ही हैं। वे सब चतुर्दश पूर्वरूपी महासागर से निकली हुई जिन वाक्यरूपी बिन्दुएँ हैं।" यह बात केवल श्रद्धामात्र गम्य नहीं है किन्तु युक्तिसिद्ध है। जैसे गाँव, नगर या बाजारों में कुछ रत्न देखे जाते हैं फिर भी उनकी उत्पत्ति का स्थान रत्नाकर समुद्र ही माना जाता है क्योंकि अधिकतर रत्न वहीं है उसी तरह सर्वातिशय ज्ञान के मूल निधान होने से जैन-प्रवचन ही उनका मूल आकर है । यह शंका भी ठीक नहीं है कि - 'यदि वेद व्याकरण आदि आर्हत प्रवचन से निकले हुए हैं तो उनकी तरह प्रमाण भी होने चाहिये, और उनमें बताये गये हिंसादि अनुष्ठान दानादि की तरह निर्दोष माने जाने चाहिए। क्योंकि वे निःसार हैं । जैसे नकली रत्न क्षार और सीप आदि भी रत्नाकर से उत्पन्न होते हैं परन्तु निःसार होने से त्याज्य हैं उसी तरह जिनशासन समुद्र से उत्पन्न भी वेदादि निःसार होने से प्रमाण नहीं हैं। 20-26. यदि हिंसा को धर्मसाधन माना जाय तो मछलीमार, चिड़ीमार आदि हत्यारों को भी धर्मप्राप्ति समान रूप से होनी चाहिये और तब अहिंसा को धर्म कहना अयुक्त हो जायगा। 'यज्ञ-हिंसा के सिवाय दूसरी हिंसा पाप का कारण है। यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि दोनों हिंसाओं में समानरूप से प्राणिवध होता है और दुःखहेतुता भी समान है अतः फल भी एक जैसा ही होना चाहिये । यज्ञ की वेदी में किया गया पशुवध पाप का कारण है, क्योंकि वह प्राणवियोग का हेतु है जैसे अन्यत्र किया गया पशुवध । अथवा यज्ञ में किये गये पशुवध की तरह बाहिर किये पशुवध को भी पुण्यहेतु मानना चाहिये । "स्वयंभू ने पशुओं की सृष्टि यज्ञ में होमने के लिए की है, अतः यज्ञवध पापहेतु नहीं हो सकता" यह पक्ष असिद्ध है; क्योंकि पशुसृष्टि ब्रह्मा ने की है यही बात अभी सिद्ध नहीं हो सकी है। यदि ब्रह्मा ने पशुसृष्टि यज्ञ के लिए की है तो फिर उनका खरीद, बिक्री आदि अन्य उपयोग नहीं करना चाहिये, अन्यथा दोष होगा, जैसे कि कफनाशक औषधि का अन्यथा उपयोग होनेपर दोष होता है । 'जैसे मन्त्रसंस्कृत विष, मरण का कारण नहीं होता उसी तरह मन्त्र संस्कारपूर्वक होनेवाला पशुवध भी पापहेतु नहीं हो सकता' यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष विरोध देखा जाता है। जैसे कि मन्त्र से संस्कृत विष प्रत्यक्ष से ही अमृतमय देखा जाता है और जैसे रस्सी आदि के बिना केवल मन्त्र-बल से ही जल-स्तम्भन, मनुष्य-स्तम्भन आदि कार्य प्रत्यक्ष से देखे जाते हैं उसी तरह यदि केवल मन्त्रबल से ही यज्ञ-वेदी पर पशुओं का घात देखा जाता तो यहाँ मन्त्र-बल पर विश्वास किया जाता, परन्तु याज्ञिक लोग जिस निर्दयता से रस्सी आदि से बाँधकर पशुवध करते हैं वह किसी से छिपा नहीं है । अतः यहाँ मन्त्र-सामर्थ्य की कल्पना उचित नहीं है। और जिस प्रकार शस्त्र आदि से प्राणिहत्या करनेवाले दोषी हैं और उन्हें अशुभ-भावों के कारण पापबन्ध होता है उसी तरह मन्त्रों से पशुवध करनेवाले भी हिंसादोष के भागी हैं । शुभपरिणामों से पुण्य और अशुभपरिणामों से पापबन्ध नियत है, उसमें हेरफेर नहीं हो सकता । यदि हेरफेर किया जायगा तो असंचेतित कर्मबन्ध होने से बन्धमोक्षप्रक्रिया का ही अभाव हो जायगा। 27. 'स्वर्गकामी अग्निहोत्र यज्ञ करें' इस अग्निहोत्र क्रिया का कर्ता भौतिक पिंड होगा या पुरुष ? भौतिक पिण्ड तो घटादि की तरह अचेतन है अतः उसमें पुण्य-पाप क्रिया का अनुभव नहीं हो सकता और इसीलिए वह कर्ता नहीं हो सकता। पुरुष यदि क्षणिक है; तो उसमें मन्त्रार्थ का अनुस्मरण, उनके प्रयोग का, अनुचिन्तन आदि अनुसन्धान न हो सकने के कारण कर्तृत्व नहीं बन सकता। यदि पुरुष नित्य है; तो उसमें पूर्व और उत्तरकाल में कोई परिणमन नहीं होगा, इसलिए वह जैसे का तैसा रहने से कर्ता नहीं बन सकता। इस तरह कर्ता न होने से किस को क्रिया का फल मिलेगा ? "जो कुछ हो चुका और आगे होगा वह सब पुरुष रूप है - ब्रह्मरूप है" इस एक ब्रह्मवाद में 'यह वध्य है और यह वधक' यह भेद नहीं हो सकता। चेतनशक्ति (ब्रह्म) का ही परिणाम यदि माना जाता है तो घट, पट आदि दृश्य जगत् का लोप हो जायगा। प्रमाण और प्रमाणाभास का भेद भी नहीं रहेगा, क्योंकि यह भेद बाह्यपदार्थ की प्राप्ति और अप्राप्तिपर निर्भर है। निर्विकल्प पुरुषतत्त्व की कल्पना में 'निर्विकल्प है' यह विकल्प यदि होता है तो वह निर्विकल्प कैसा ? यदि नहीं होता तो 'निर्विकल्प न होने से' वह सविकल्प ही हो जायगा तब प्रतिज्ञाविरोध दोष होता है। इस तरह अनेक दोषयुक्त होने से वैदिक वचन प्रमाण नहीं कहे जा सकते। इस प्रकार परोपदेशनिमित्तक मिथ्यादर्शन के अन्य भी संख्यात विकल्प होते हैं । इसके परिणामों और अनुभाग की दृष्टि से असंख्य और अनन्त भी भेद होते हैं। नैसर्गिक मिथ्यादर्शन भी एकन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी-पंचेन्द्रिय संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यंच, म्लेच्छ, शवर और पुलिन्द आदि स्वामियों के भेद से अनेक प्रकार का है। 28. अथवा -- एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और आज्ञानिक के भेद से मिथ्यादर्शन पाँच प्रकार का है ।
29. पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय का हनन तथा स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र और मनविषयक असंयम, इस प्रकार बारह प्रकार की अविरति होती है। सोलह कषाय और नौ-नोकषाय ये पच्चीस कषाय है।
30. भाव-शुद्धि, काय-शुद्धि, विनय-शुद्धि, ईर्यापथ-शुद्धि, भैक्ष्य-शुद्धि, शयनासन-शुद्धि, प्रतिष्ठापन-शुद्धि और वाक्य-शुद्धि इन आठ शुद्धियों तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दस धर्मों में अनुत्साह या अनादर के भाव होना प्रमाद है। इस तरह यह प्रमाद अनेक प्रकार का है। 31. मिथ्यादर्शन आदि समुदित और पृथक्-पृथक भी बन्ध के हेतु होते हैं । वाक्य की समाप्ति अनेक प्रकार से देखी जाती है।
32-33. विरत के भी विकथा, कषाय, इन्द्रिय, निद्रा और प्रणय ये पन्द्रह प्रमादस्थान देखे जाते हैं, अतः प्रमाद और अविरति पृथक्-पृथक् हैं । कषाय कारण हैं और हिंसादि अविरति कार्य, अतः कारणकार्य की दृष्टि से कषाय और अविरति भिन्न हैं। प्रश्न – अमूर्तिक आत्मा के जब हाथ आदि नहीं हैं तब वह मूर्त कर्मों का ग्रहण कैसे कर सकता है ? उत्तर – यहाँ 'पहिले आत्मा और बाद में कर्मबन्ध' इस प्रकार सादि व्यवस्था नहीं है, जिससे आत्मा के ऐकान्तिक अमूर्त मानने में यह प्रसंग दिया जाय, किन्तु अनादि कार्मण शरीर के सम्बन्ध होने के कारण गरमलोहे के गोला जैसे पानी को खींचता है उसी तरह कषायसन्तप्त आत्मा कर्मों को ग्रहण करता है । |