+ बन्‍ध -
सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंध: ॥2॥
अन्वयार्थ : कषाय सहित होने से जीव कर्म के योग्‍य पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बन्‍ध है ॥२॥
Meaning : The individual self attracts particles of matter which are fit to turn into karma, as the self is actuated by passions. This is bondage.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

कषाय के साथ रहता है इसलिये सकषाय कहलाता है और सकषाय का भाव सकषायत्‍व है । इससे अर्थात सकषाय होने से । यह हेतुनिर्देश है। जिस प्रकार जठरा‍ग्नि के अनुरूप आहार का ग्रहण होता है । उसी प्रकार तीव्र, मन्‍द और मध्‍यम कषायाशय के अनुरूप ही स्थिति और अनुभाग होता है। इस प्रकार इस विशेषता का ज्ञान कराने के लिये सूत्र में 'सकषायत्‍वात्' इस पद द्वारा पुन: हेतु का निर्देश किया है। अमूर्ति और बिना हाथवाला आत्‍मा कर्मों को कैसे ग्रहण करता है इस प्रश्‍न का उत्‍तर देने के अभिप्राय से सूत्र में 'जीव' पद कहा है । जीव शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है- जीवनाज्‍जीव: - जो जीता है अर्थात जो प्राणों को धारण करता है, जिसके आयु का सद्भाव है, आयु का अभाव नहीं है वह जीव है। सूत्र में 'कर्मयोग्‍यान्' इस प्रकार लघु निर्देश करने से काम चल जाता फिर भी 'कर्मणो योग्‍यान' इस प्रकार पृथक विभक्ति का उच्‍चारण वाक्‍यान्‍तर का ज्ञान कराने के लिये किया है। वह वाक्‍यान्‍तर क्‍या है ? 'कर्मणो जीव: सकषायो भवति' यह एक वाक्‍य है। इसका यह अभिप्राय है कि 'कर्मण:' यह हेतुपरक निर्देश है जिसका अर्थ है कि कर्म के कारण जीव कषायसहित होता है। कर्मरहित जीव के कषाय का लेप नहीं होता । इससे जीव और कर्म का अनादि सम्‍बन्‍ध है यह कथन निष्‍पन्‍न होता है। और इससे अमूर्त जीव मूर्त के साथ कैसे बँधता है इस प्रश्‍न का निराकरण हो जाता है। अन्‍यथा बन्‍ध को सादि मानने पर आत्‍यन्तिक शुद्धि को धारण करनेवाले सिद्ध जीव के समान संसारी जीव के बन्‍ध का अभाव प्राप्‍त होता हे। 'कर्मणो योग्‍यान् पुद्‍गलानादत्‍ते' यह दूसरा वाक्‍य है, क्‍योंकि अर्थ के अनुसार विभक्ति बदल जाती है इसलिये पहले जो हेत्‍वर्थ में विभक्ति थी वह अब 'कर्मणो योग्‍यान्' इस प्रकार षष्‍ठी अर्थ को प्राप्‍त होती है । सूत्र में 'पुद्गल' पद कर्म के साथ तादात्म्य दिखलाने लिए दिया है । इससे अदृष्‍ट आत्‍मा का गुण है इस बात का निराकरण हो जाता है, क्‍योंकि उसे आत्‍मा का गुण मानने पर वह संसार का कारण नहीं बन सकता । सूत्र में 'आदत्ते' पद हेतुहेतुमद्‍भाव का ख्‍यापन करने के लिये दिया है । इससे मिथ्‍यादर्शन आदि के अभिनिवेशवश गीले किये गये आत्‍मा के सब अवस्‍थाओं में योग विशेष से उन सूक्ष्‍म, एक क्षेत्रावगाही अनन्‍तानन्‍त कर्मभाव को प्राप्‍त होने योग्‍य पुद्गलों का उपश्‍लेष होना बन्‍ध है यह कहा गया है । जिस प्रकार पात्रविशेष में प्रक्षिप्‍त हुए विविध रस वाले बीज, फ़ूल और फ़लों का मदिरारूप से परिणमन होता है उसी प्रकार आत्मा में स्थित हुए पुद्गलों का भी योग और कषाय के निमित्त से कर्मरूप से परिणमन जानना चाहिए । सूत्र में 'स:' पद अन्‍य का निराकरण करने के लिए दिया है कि यह बन्‍ध है अन्‍य नहीं । इससे गुणगुणी बन्‍ध का निराकरण हो जाता है । यहॉं 'बन्‍ध' शब्‍द का कर्मादि साधन में व्‍याख्‍यान कर लेना चाहिए ।

यह बन्‍ध क्‍या एक है या इसके भेद हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -
राजवार्तिक :

1. 'जैसे जठराग्नि के अनुसार आहारपाक होता है उसी तरह तीव्र, मन्द और मध्यम कषायों के अनुसार स्थिति और अनुभाग पड़ते हैं' इस तत्त्व की प्रतिपत्ति के लिए बन्ध के कारणों में निर्दिष्ट भी कषाय का यहाँ पुनः ग्रहण किया है।

2-3. जीवन-आयु, आयु-सहित जीव ही कर्मबन्ध करता है, आयु से रहित सिद्ध नहीं।

4. 'कर्मणो योग्यान्' इस पृथक विभक्ति से दो पृथक वाक्यों का ज्ञापन होता है - 'कर्म से जीव सकषाय होता है' और 'कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है' । पहिले वाक्य में 'कर्मणः' शब्द हेतुवाचक है, अर्थात् पूर्वकर्म से जीव सकषाय होता है, अकर्मक के कषायलेप नहीं होता, जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध है। दूसरे वाक्य में 'कर्मण' शब्द षष्ठीविभक्तिवाला है अर्थात सकषाय-जीव कर्मों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। अर्थवश विभक्ति का परिणमन हो जाता है।

5. 'कर्म पौद्गलिक है' यह पुद्गल शब्द से सूचित होता है। वैशेषिक का कर्म अदृष्ट को आत्मा का गुण मानना उचित नहीं है क्योंकि अमूर्तिक गुण अनुग्रह और उपघात नहीं कर सकता उसी तरह अमूर्तकर्म अमूर्त आत्मा के अनुग्रह और उपघात के कारण नहीं हो सकते।

7-10. आदत्त - ग्रहण करता है, बन्ध का अनुभव करता है । तात्पर्य यह कि मिथ्यादर्शन आदि के आवेश से आर्द्र आत्मा में चारों ओर से योगविशेष से सूक्ष्म अनन्तप्रदेशी एक क्षेत्रावगाही कर्म-योग्य-पुद्गलों का अविभावात्मक बन्ध हो जाता है। जैसे किसी बर्तन में अनेक प्रकार के रसवाले बीजफल फूल आदि का मदिरारूप से परिणमन होता है उसी तरह आत्मा में ही स्थित पुद्गलों का योग और कषाय से कर्मरूप परिणमन हो जाता है। 'यही बन्ध है, अन्य नहीं' यह सूचना देने के लिए 'स' शब्द दिया है। इससे गुणगुणिबन्ध का तात्पर्य है अदृष्टनाम के गुण का आत्मानामक गुणी में समवाय से सम्बन्ध हो जाना । यदि गुणगुणिबन्ध माना जाता है तो मुक्ति का अभाव हो जायगा; क्योंकि गुणी कभी भी अपने गुण-स्वभाव को नहीं छोड़ता। यदि स्वभाव को छोड़ दे तो गुणी का ही अभाव हो जायगा । तात्पर्य यह कि मुक्त का ही अभाव हो जाएगा ।

11. बन्धशब्द करणादि साधन है। 'बध्यतेऽनेन-बँधता है जिनके द्वारा' ऐसी करणसाधन विवक्षा में मिथ्यादर्शन आदि को बँध कहते हैं। यद्यपि मिथ्यादर्शन आदि बन्ध के कारण है फिर भी पूर्वोपात्त कर्म के वे परिणाम हैं अतः कार्यरूप से आत्मा को परतन्त्र करने के कारण बन्ध कहे जाते हैं । 'बध्यते इति बन्धः' अर्थात् मिथ्यादर्शनादि रूप से जो बँधे वह बन्ध यह कर्मसाधन भी बन जाता है। इसी तरह 'ज्ञान दर्शन अव्याबाध अनाम अगोत्र और अनन्तराय आदि पुरुषशक्तियों का जो प्रतिबन्ध करे वह बन्ध' यह कर्तृसाधन बन जाता है। मात्र परतन्त्र करने की विवक्षा में 'बन्धनं बन्धः' यह भावसाधन बनता है। भावसाधन में भी 'ज्ञान ही आत्मा' की तरह अभेदविवक्षा में सामानाधिकरण्य बन जाता है।

12. जैसे भण्डार से पुराने धान्य निकाल लिये जाते हैं और नये भर दिये जाते हैं उसी तरह अनादि कार्मण शरीर रूप भण्डार में कर्मों का आना-जाना होता रहता है। पुराने कर्म फल देकर झड़ जाते हैं और नये कर्म आ जाते हैं । इस तरह उपचय-अपचय होता रहता है।