
सर्वार्थसिद्धि :
यहाँ 'सम्यक्' इस पद की अनुवृत्ति होती है । उससे ईर्यादिक विशेष्यपने को प्राप्त होते हैं - सम्यगीर्या, सम्यग्भाषा, सम्यगेषणा, सम्यगादाननिक्षेप और सम्यतगुत्सर्ग । इस प्रकार कही गयी ये पाँच समितियाँ जीवस्थानादि विधि को जानने वाले मुनि के प्राणियों की पीड़ा को दूर करने के उपाय जानने चाहिए । इस प्रकार से प्रवृत्ति करने वाले के असंयमरूप परिणामों के निमित्त से जो कर्मों का आस्रव होता है उसका संवर होता है । तीसरा संवर का हेतु धर्म है । उसके भेदों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1-2. पूर्वसूत्र से 'सम्यक' पद का अनुवर्तन कर प्रत्येक से उसका सम्बन्ध कर देना चाहिये - सम्यक-ईर्या, सम्यक-भाषा आदि । समिति - अर्थात् सम्यक्-प्रवृत्ति । यह संज्ञा पाँचों की आगमसिद्ध है। 3-4. जीवस्थान और विधि को जाननेवाले, धर्मार्थ प्रयत्नशील साधु का सूर्योदय होने पर चक्षरिन्द्रिय के द्वारा दिखने योग्य मनुष्य आदि के आवागमन के द्वारा कुहरा, क्षुद्र-जन्तु आदि से रहित मार्ग में सावधानचित्त हो शरीर-संकोच करके धीरे-धीरे चार हाथ जमीन आगे देखकर गमन करना ईर्यासमिति है। इसमें पृथ्वी आदि सम्बन्धी आरम्भ नहीं होते । सूक्ष्मैकेन्द्रिय, ,बादरएकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीपञ्चेन्द्रिय और संज्ञीपञ्चेन्द्रिय इन सात के पर्याप्तक और अपर्याप्त के भेद से चौदह जीवस्थान होते हैं । ये जीवस्थान पाँचो जाति सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक नाम कर्मों के यथा सम्भव उदय से होते हैं। 5. स्व और पर को मोक्ष की ओर ले जानेवाले स्व-पर-हितकारक, निरर्थक बकवास-रहित, मित, स्फुटार्थ, व्यक्ताक्षर और असन्दिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है। मिथ्याभिधान, असूया, प्रियभेदक, अल्पसार, शंकित, संभ्रान्त, कषाययुक्त, परिहासयुक्त, अयुक्त, असभ्य, निष्ठुर, अधर्मविधायक, देशकालविरोधी और चापलूसी आदि वचनदोषों से रहित भाषण करना चाहिये। 6. गुण रत्नों को ढोनेवाली शरीर रूपी गाड़ी को समाधिनगर की ओर ले जाने की इच्छा रखनेवाले साधु का जठराग्नि के दाह को शमन करने के लिए औषधि की तरह या गाड़ी में ओंगन देने की तरह अन्न आदि आहार को बिना स्वाद के ग्रहण करना एषणा समिति है। देशकाल तथा शक्ति आदि से युक्त अगर्हित, उद्गम, उत्पादन, एषणा संयोजन, प्रमाण कारण, अङ्गार, धूम और प्रत्यय इन नवकोटियों से रहित आहार ग्रहण किया जाता है। 7. धर्माविरोधी और परानुपरोधी ज्ञान और संयम के साधक उपकरणों को देखकर और शोधकर रखना और उठाना आदाननिक्षेपणसमिति है। 8. जहाँ स्थावर या जंगम जीवों को विराधना न हो ऐसे निर्जन्तु-स्थान में मलमूत्र आदि का विसर्जन करना और शरीर का रखना उत्सर्ग समिति है। 9. यद्यपि वाग्गुप्ति में भी सावधानी है पर उनमें भाषासमिति और ईर्यासमिति आदि का अन्तर्भाव नहीं होता; क्योंकि जब गुप्ति में असमर्थ हो जाता है तब कुशल कर्मों में प्रवृत्ति करना समिति है । अतः जाना, बोलना, खाना, रखना, उठना और मलोत्सर्ग आदि क्रियाओं में अप्रमत्तसावधानी से प्रवृत्ति करने पर इन निमित्तों से आनेवाले कर्मों का संवर हो जाता है। 10-12. प्रश्न – पात्र के अभाव में पाणिपात्र से आहार लेनेवाले साधु को अन्न आदि के नीचे गिरने से हिंसा आदि दोषों की संभावना है, अतः एषणा समिति नहीं बन सकती ? उत्तर – पात्र के ग्रहण करने में परिग्रह का दोष होता है। निर्ग्रंथ-अपरिग्रही चर्या को स्वीकार करने वाला भिक्षु यदि पात्र ग्रहण करता है तो उसकी रक्षा आदि में अनेक दोष होते हैं। अतः स्वाधीन करपात्र से ही निर्बाध देश में सावधानी से एकाग्रचित्त हो आहार करने में किसी दोष की संभावना नहीं है। कपाल या अन्य पात्र को लेकर भिक्षा के लिए जाने में दीनता का दोष तो है ही। गृहस्थजनों से लाये गये पात्र सर्वत्र सुलभ होने पर भी उनके धोने आदि में पाप का होना अवश्यम्भावी है। अपने पात्र को लेकर भिक्षार्थ जाने में आशा-तृष्णा की संभावना है। पहिले जैसे विशिष्ट-पात्र के न मिलने पर जिस किसी पात्र में भोजन करने से चित्त में दीनता और हीनता का अनुभव होना अनिवार्य है। अतः स्वावलम्बी भिक्षु को करपात्र के सिवाय अन्य प्रकार उपयुक्त नहीं हैं। 'जिस प्रकार पहिले प्राप्त हुए संस्कृत सुस्वादु अन्न को छोड़कर अन्य के घर में जैसा-तैसा नीरस-भोजन करने में भिक्षु को दीनता नहीं आती उसी तरह कपाल आदि के ग्रहण करने में कोई दोष नहीं हैं' -- यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि चिरतपस्वी संयत की शरीरयात्रा आहार के बिना नहीं चल सकती, अतः नीरस, प्रासुक आहार कभी-कभी ले लिया जाता है उस तरह पात्र की आवश्यकता अनिवार्य नहीं है। धर्म का वर्णन -- |