+ धर्म -
उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयमतपस्त्यागाकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्म: ॥6॥
अन्वयार्थ : उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य यह दस प्रकार का धर्म है ॥६॥
Meaning : Supreme forbearance, modesty, straightforwardness, purity, truthfulness, self-restraint, austerity, renunciation, non-attachment, and celibacy constitute virtue or duty.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

शंका – यह किसलिए कहा है ?

समाधान –
संवर का प्रथम कारण प्रवृत्ति का निग्रह करने के लिए कहा है। जो वैसा करनेमें असमर्थ है उन्हें प्रवृत्ति का उपाय दिखलाने के लिए दूसरा कारण कहा है। किन्तु यह दश प्रकार के धर्म का कथन समितियों में प्रवृत्ति करने वाले के प्रमाद का परिहार करने के लिये कहा है।

शरीर की स्थिति के कारण की खोज करने के लिए पर कुलों में जाते हुए भिक्षु को दुष्ट-जन गाली-गलौज करते हैं, उपहास करते हैं, तिरस्कार करते हैं, मारते पीटते हैं और शरीर को तोड़ते-मरोड़ते हैं तो भी उनके कलुषता का उत्पन्न न होना क्षमा है।

जाति आदि मदों के आवेशवश होने वाले अभिमान का अभाव करना मार्दव है। मार्दव का अर्थ है मान का नाश करना।

योगों का वक्र न होना आर्जव है।

प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना शौच है।

अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना सत्य है।

शंका – इसका भाषासमिति में अन्तर्भाव होता है ?

समाधान –
यह कोई दोष नहीं है, क्यों कि समिति के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि साधु और असाधु दोनों प्रकार के मनुष्यों में भाषा व्यवहार करता हुआ हितकारी परिमित वचन बोले, अन्यथा राग होने से अनर्थदण्ड का दोष लगता है यह वचनसमिति का अभिप्राय है । किन्तु सत्य धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि सज्जन पुरुष, दीक्षित या उनके भक्तों में साधु सत्य वचन बोलता हुआ भी ज्ञान चारित्र के शिक्षण आदि के निमित्त से बहुविध कर्त्तव्यों की सूचना देता है और यह सब धर्म की अभिवृद्धि के अभिप्राय से करता है, इसलिए सत्य धर्म का भाषासमिति में अन्तर्भाव नहीं होता ।

समितियों में प्रवृत्ति करने वाले मुनि के उनका परिपालन करने के लिए जो प्राणियों का और इन्द्रियों का परिहार होता है वह संयम है ।

कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है वह तप है । वह आगे कहा जानेवाला बारह प्रकारका जानना चाहिए ।

संयत के योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग है ।

जो शरीरादिक उपात्त हैं उनमें भी संस्कार का त्याग करने के लिए 'यह मेरा है' इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना आकिंचन्य है। जिसका कुछ नहीं है वह अकिंचन है और उसका भाव या कर्म आकिंचन्य है ।

अनुभूत स्त्री का स्मरण न करनेसे, स्त्री-विषयक कथा के सुनने का त्याग करने से और स्त्री से सटकर सोने व बैठने का त्याग करने से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा स्वतन्त्र-वृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करना ब्रह्मचर्य है ।

दिखाई देनेवाले प्रयोजन का निषेध करने के लिए क्षमादि के पहले उत्तम विशेषण दिया है । इस प्रकार जीवन में उतारे गये और स्वगुण तथा प्रतिपक्षभूत दोषोंके सद्भाव में यह लाभ और यह हानि है इस तरह की भावना से प्राप्त हुए ये धर्मसंज्ञा वाले उत्तम क्षमादिक संवर के कारण होते हैं ।

क्षमादि विशेष और उनके उलटे कारणों का अवलम्बन आदि करने से क्रोधादि की उत्पत्ति नहीं होती है यह पहले कह आये हैं। उसमें किस कारणसे यह जीव क्षमादिक का अवलम्बिन लेता है, अन्यथा प्रवृत्ति नहीं करता है इसका कथन करते हैं । यत: तपाये हुए लोहे के गोले के समान क्षमादिरूप से परिणत हुए आत्महहितैषी को करने योग्य ---
राजवार्तिक :

1. गुप्तियों में प्रवृत्ति का सर्वथा निरोध होता है। जो उसमें असमर्थ है उन्हें प्रवृत्ति के सम्यक प्रकार बताने के लिए एषणा आदि समितियों का उपदेश है । प्रवृत्ति करने वाले के प्रमाद-परिहार के लिए - सावधानी से बरतने के लिए उत्तम-क्षमा आदि धर्मों का उपदेश है।

2. शरीर-यात्रा के लिए पर-घर जाते समय भिक्षु को दुष्ट-जनों के द्वारा गाली, हँसी, अवज्ञा, ताड़न, शरीर-छेदन आदि क्रोध के असह्य निमित्त मिलनेपर भी कलुषता का न होना उत्तम क्षमा है।

3. उत्तम जाति, कुल, रूप, विज्ञान, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ और शक्ति से युक्त होकर भी इनका मद नहीं करना, दूसरे के द्वारा परिभव के निमित्त उपस्थित किये जाने पर भी अभिमान नहीं होना मानहारी मार्दव है।

4. मन, वचन और काय में कुटिलता न होना आर्जव (सरलता) है।

5-8. आत्यन्तिक लोभ की निवृत्ति को शौच कहते हैं। शुचि का भाव या कर्म शौच है। मनोगुप्ति में मन के व्यापार का सर्वथा निरोध किया जाता है। जो पूर्ण मनोनिग्रह में असमर्थ हैं उन्हें पर-वस्तुओं सम्बन्धी अनिष्ट विचारों की शान्ति के लिए शौच-धर्म का उपदेश है । अतः इसका मनोगुप्ति में अन्तर्भाव नहीं होता। आकिंचन्य धर्म स्व-शरीर आदि में संस्कार आदि की अभिलाषा दूर करके निर्ममत्व बढ़ाने के लिए है और शौच-धर्म लोभ की निवृत्ति के लिए, अतः दोनों पृथक् हैं । स्व और पर विषयक जीवनलोभ, आरोग्यलोभ, इन्द्रियलोभ, और उपभोगलोभ इस तरह मुख्यतः चार प्रकार का लोभ होता है। इसीलिए शौच धर्म मुख्यतः चार प्रकार का होता है।

9-10. सत्जनों से साधुवचन बोलना सत्य है। भाषा-समिति में संयत साधु या असाधु किसी से भी वचन-व्यवहार यदि करे तो हित और मित करे अन्यथा राग और अनर्थदण्ड आदि दोष होते है परन्तु सत्य धर्म में अपने सहधर्मी-साधुओं या भक्तों से धर्मवृद्धि-निमित्त या ज्ञान, चारित्र आदि की शिक्षा के लिए बहुत बोलना भी स्वीकृत हैं।

11-14. ईर्यासमिति आदि में प्रवर्तमान मुनि को उनकी प्रतिपालना के लिए प्राणिपीड़ा का परिहार और इन्द्रियों से विरक्ति को संयम कहते हैं।
  • एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा का परिहार करना प्राणिसंयम है और
  • शब्दादि विषयों से विरक्ति को इन्द्रियसंयम कहते हैं।
अतः भाषादि की निवृत्ति को संयम नहीं कह सकते; क्योंकि इसका निवृत्तिरूप गुप्तियों में अन्तर्भाव है। विशिष्ट कायादिप्रवृत्ति को भी संयम नहीं कह सकते क्योंकि वह समिति में अन्तर्भूत हो जाती है। इसी तरह आत्यन्तिक त्रस-स्थावर-वध का निषेध भी संयम नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह परिहारविशुद्धि चारित्र में अन्तर्भूत हो जाता है।

15. संयम दो प्रकार का होता है - एक उपेक्षा संयम और दूसरा अपहृत संयम ।
  • देश और काल के विधान को समझने वाले स्वाभाविक रूप से शरीर से विरक्त और तीन गुप्तियों के धारक व्यक्ति के राग और द्वेष रूप चित्तवृत्ति का न होना उपेक्षा संयम है।
  • अपहृत संयम उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है ।
    • प्रासुक वसति और आहार मात्र हैं बाह्य साधन जिनके तथा स्वाधीन हैं ज्ञान और चारित्र रूप करण जिनके ऐसे साधु का बाह्य-जन्तुओं के आनेपर उनसे अपने को बचाकर संयम पालना उत्कृष्ट अपहृत संयम है।
    • मृदु-उपकरण से जन्तुओं को बुहार देनेवाले के मध्यम और
    • अन्य उपकरणों की इच्छा रखने वाले के जघन्य अपहृत संयम होता है।


16. इस अपहृत संयम के प्रतिपादन के लिए ही इन आठ-शुद्धियों का उपदेश दिया गया है - भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि ।
  • कर्म के क्षयोपशम से जन्य, मोक्षमार्ग की रुचि से जिसमें विशुद्धि प्राप्त हुई है और जो रागादि उपद्रवों से रहित है वह भावशुद्धि है । इसके होनेसे आचार उसी तरह चमक उठता है जैसे कि स्वच्छ दीवाल पर आलेखित चित्र। यह समस्त आवरण और आभरणों से रहित, संस्कार से शून्य, यथाजात मल को धारण करनेवाली, अंगविकार से रहित और सर्वत्र यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्तिरूप है। यह मूर्तिमान् प्रशमसुख की तरह है। इसके होनेपर न तो दूसरों से अपने को भय होता है और न अपने से दूसरों को।
  • अर्हन्त आदि परमगरुओं में यथायोग्य पजा-भक्ति आदि तथा ज्ञानादि में यथाविधि भक्ति से युक्त गुरुओं में सर्वत्र अनुकूलवृत्ति रखनेवाली, प्रश्न, स्वाध्याय, वाचना, कथा और विज्ञप्ति आदि में कुशल, देशकाल और भाव के स्वरूप को समझने में तत्पर तथा आचार्य के मत का आचरण करनेवाली विनयशुद्धि है। समस्त सम्पदाएँ विनयमूलक हैं। यह पुरुष का भूषण है। यह संसार-समुद्र से पार उतारने के लिए नौका के समान है।
  • अनेक प्रकार के जीवस्थान, जीवयोनि, जीवाश्रय आदि के विशिष्ट-ज्ञानपूर्वक प्रयत्न के द्वारा जिसमें जन्तुपीडा का बचाव किया जाता है, जिसमें ज्ञान, सूर्यप्रकाश और इन्द्रियप्रकाश से अच्छी तरह देखकर गमन किया जाता है तथा जो शीघ्र, विलम्बित, सम्भ्रान्त, विस्मित, लीलाविकार, अन्य दिशाओं की ओर देखना आदि गमन के दोषों से रहित गतिवाली है वह ईर्यापथशुद्धि है। इस के होने पर संयम उसी तरह प्रतिष्ठित होता है जैसे कि सुनीति से विभव ।
  • जिसमें भिक्षा को जाते समय दोनों ओर दृष्टि रखी जाती है, पूर्वापर स्वांगदेश का परिमार्जन होता है, आचार-सूत्रोक्त काल, देश, प्रकृति आदि की प्रतिपत्ति में जो कुशल है, जिसमें लाभ-अलाभ, मान-अपमान आदि में समान मनोवृत्ति रहती है, लोकगहित कुलों का परिवर्जन करनेवाली, चन्द्र की तरह कम और अधिक गृहों की जिसमें मर्यादा हो, विशिष्ट विधानवाली, दीन, अनाथ दानशाला, विवाह, यज्ञ, भोजन आदि का जिसमें परिहार होता है, दीनवृत्ति से रहित, प्रासुक आहार ढूँढना ही जिसका मुख्य लक्ष्य है, तथा आगमविधि से प्राप्त निर्दोष भोजन से ही जिसमें प्राणयात्रा चलाई जाती है वह भिक्षाशुद्धि है। जैसे साधुजनों की सेवा से गुण-सम्पत्ति मिलती है उसी तरह भिक्षाशुद्धि से चारित्र-सम्पत्ति । यह लाभ और अलाभ तथा सरस और विरस में समान सन्तोष होने से भिक्षा कही जाती है।
    • जैसे गाय गहनों से सजी हुई सुन्दर युवती के द्वारा लाई गई घास को खाते समय घास को ही देखती है लानेवाली के अंग-सौन्दर्य आदि को नहीं, अथवा अनेक जगह यथालाभ उपलब्ध होनेवाले चारे के पूरे को ही खाती है उसकी सजावट आदि को नहीं देखती उसी तरह भिक्षु भी परोसनेवाले के मृदुललित रूप वेष और विलास आदि के देखने की उत्सुकता नहीं रखता और न आहार सूखा है या गीला या कैसे चाँदी आदि के बर्तनों में रखा है या कैसी उसकी योजना की गई है आदि की ओर ही उसकी दृष्टि रहती है, वह तो जैसा भी आहार प्राप्त होता है वैसा खाता है। अतः भिक्षा को गौ की तरह चार-गोचार या गवेषणा कहते हैं ।
    • जैसे वणिक रत्न आदि से लदी हुई गाड़ी में किसी भी तेल का लेपन करके-ओंगन देकर उसे अपने इष्ट स्थान पर ले जाता है उसी तरह मुनि भी गुणरत्न से भरी हुई शरीररूपी गाड़ी को निर्दोष भिक्षा देकर उसे समाधिनगर तक पहुँचा देता है, अतः इसे अक्षम्रक्षण कहते हैं।
    • जैसे भण्डार में आग लग जाने पर शुचि या अशुचि कैसे भी पानी से उसे बुझा दिया जाता है उसी तरह यति भी उदराग्नि का प्रशमन करता है अतः इसे उदराग्निप्रशमन कहते हैं ।
    • दाताओं को किसी भी प्रकार की बाधा पहुँचाये बिना मुनि कुशलता से भ्रमर की तरह आहार ले लेते हैं, अतः इसे भ्रमराहार या भ्रामरी वृत्ति कहते हैं।
    • जिस किसी भी प्रकार से गड्ढा भरने की तरह मुनि स्वादु या अस्वादु अन्न के द्वारा पेटरूपी गड्ढे को भर देता है अतः इसे स्वभ्रपूरण भी कहते हैं।
  • प्रतिष्ठापन शुद्धि में तत्पर संयत देश और काल को जानकर नख, रोम, नाक, थूक, वीर्य, मलमूत्र या देह-परित्याग में जन्तु-बाधा का परिहार करके प्रवृत्ति करता है।
  • शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर संयत को स्त्री, क्षुद्र, चोर, मद्यपान, जुआ, शराबी और पक्षियों को पकड़नेवाले आदि के स्थानों में नहीं बसना चाहिये, और श्रृंगार, विकार, आभूषण, उज्ज्वल-वेष, वेश्याक्रीड़ा, मनोहर-गीत, नृत्य, वादित्र आदि से परिपूर्णशाला आदि में रहना आदि का त्याग करना चाहिये। उन्हें तो प्राकृतिक गिरिगुफा, वृक्ष की खोह तथा शून्य मकान या छोड़े हए ऐसे मकानों में बसना चाहिये जो उनके उद्देश्य से नहीं बनाये गये हों और न जिनमें उनके लिए कोई आरम्भ ही किया गया हो।
  • पृथिवी-कायिक आदि सम्बन्धी आरम्भ आदि की प्रेरणा जिसमें न हो तथा जो परुष निष्ठुर और पर-पीडाकारी प्रयोगों से रहित हो, व्रतशील आदि का उपदेश देनेवाली हो वह सर्वतः योग्य, हित, मित, मधुर और मनोहर वाक्यशुद्धि है। वाक्यशुद्धि सभी सम्पदाओं का आश्रय है।


27. कर्मक्षय के लिए जो तपा जाय वह तप है।

18-20. सचेतन या अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं। आभ्यन्तर तपों में आये हुए उत्सर्ग में नियत-समय के लिए सर्वोत्सर्ग किया जाता है पर त्यागधर्म में यथाशक्ति और अनियतकालिक त्याग होता है अतः दोनों पृथक पृथक हैं। इसी तरह शौचधर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होनेवाली तृष्णा की निवृत्ति की जाती है पर त्याग में विद्यमान-परिग्रह छोड़ा जाता है। अथवा त्याग का अर्थ है स्वयोग्य दान देना । संयत के योग्य ज्ञानादि दान देना त्याग है।

21. शरीर आदि में संस्कार और राग आदि की निवृत्ति के लिए 'ममेदम्-यह मेरा है' इसप्रकार के अभिप्राय का त्याग आकिञ्चन्य है। 'इसके कुछ नहीं' इस प्रकार अकिंचन भाव को आकिञ्चन्य कहते है।

22-23. 'मैंने उस कलागुण विशारदा स्त्री को भोगा था' इस प्रकार अनुभूतांगना का स्मरण स्त्री-कथाश्रवण, रतिकालीन गन्ध द्रव्यों की सुवास और स्त्री संसक्त शय्या आसन स्थान आदि का परिवर्जन करने पर परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा, ब्रह्मा अर्थात् गुरु, उसके अधीन अपनी वृत्ति रखना ब्रह्मचर्य है। गुरु की आज्ञापूर्वक चलना भी ब्रह्मचर्य ही है।

24-25. यद्यपि ये सभी यथासंभव गुप्ति और समितियों में अन्तर्भूत हो जाते हैं फिर भी इन धर्मों में चूँकि संवर को धारण करने की सामर्थ्य है इसलिए 'धारण करने से धर्म' इस सार्थक संज्ञावाले धर्मों का पृथक उपदेश किया है। अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है। जैसे ऐर्यापथिक, रात्रिन्दिनीय, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमस्थानिक ये सात प्रतिक्रमण गुप्ति आदि की प्रतिष्ठा के लिए किये जाते हैं उसी तरह उत्तम क्षमा आदि दस प्रकार के धर्म की भावना भी गुप्ति आदि के परिपालन के लिए ही है, अतः इनका पृथक उपदेश किया है।

26. 'ये क्षमा आदि धर्म किसी इष्टप्रयोजन की प्राप्ति के लिए धारण नहीं किये जाते और इसलिए ये संवर के कारण होते हैं। इस विशेषता की सूचना देने के लिए उत्तम विशेषण दिया जाता है - उत्तम-क्षमा, उत्तम-मार्दव आदि ।

27. इन उत्तम-क्षमा आदि धर्मों में स्वगुण प्राप्ति तथा प्रतिपक्षी दोष की निवृत्ति की भावना की जाती है अतः ये संवरहेतु हैं। व्रतशील का रक्षण, इहलोक और परलोक में दुःख न होना और समस्त जगत् में सम्मान-सत्कार होना आदि क्षमा के गुण हैं। धर्म अर्थ काम और मोक्ष का नाश करना आदि क्रोध के दोष हैं। यह विचार कर क्षमा धारण करनी चाहिए अपने ऊपर क्रोध करता है और गाली देता है तो सोचना चाहिये कि ये दोष मुझमें विद्यमान ही हैं, यह क्या मिथ्या कहता है ? यदि वे दोष अपने मन में न हों तो सोचना चाहिये कि यह बिचारा अज्ञान से ऐसा कहता है, अतः क्षमा ही करनी चाहिये । जैसे कोई बालक यदि परोक्ष में गाली देता है तो क्षमा ही करनी चाहिये । सोचना चाहिये कि बालकों का यह स्वभाव ही है। भाग्यवश हमें पीठ-पीछे ही गाली देता है सामने तो नहीं। बालक तो मुँह पर गाली देते हैं अतः लाभ ही है। सामने गाली देने पर सोचना चाहिये कि गाली ही तो दी है मारा तो नहीं है। बाल तो मारते भी हैं । मारने पर सोचना चाहिये कि इसने मारा ही तो है प्राण तो नहीं ले लिये। बाल तो प्राण भी ले लेते हैं। प्राण ले लेने पर भी क्षमा ही करना चाहिये । सोचना चाहिये कि इसने प्राण ही लिये हैं धर्म तो नहीं ले लिया। इस तरह बाल-स्वभाव के चिन्तन द्वारा चित्त में क्षमाभाव को पुष्ट करना चाहिये । सोचना चाहिये कि हमने ही ऐसा खोटा-कर्म बाँधा था जिसके फलस्वरूप गाली सुननी पड़ रही है, यह तो इसमें निमित्तमात्र है। निरभिमानी और मार्दव गुण-युक्त व्यक्ति पर गुरुओं का अनुग्रह होता है । साधुजन भी उसे साधु मानते हैं । गुरु के अनुग्रह से सम्यग्ज्ञान आदि की प्राप्ति होती है और उससे स्वर्गादि सुख मिलते हैं । मलिन मन में व्रतशील आदि नहीं ठहरते; साधुजन उसे छोड़ देते हैं। तात्पर्य यह कि अहंकार समस्त विपदाओं की जड़ है। सरल-हृदय गुणों का आवास है, वे मायाचार से डरते हैं। मायाचारी की निन्धगति होती है । शुचि आचारवाले निर्लोभ-व्यक्ति का इस-लोक में सन्मान होता है। विश्वास आदि गुण उसमें रहते हैं । लोभी के हृदय में गुण नहीं रहते । वह इसलोक और परलोक में अनेक आपत्तियों और दुर्गति को प्राप्त होता है। सभी गुणसम्पदाएँ सत्यवक्ता में प्रतिष्ठित होती हैं । झूठे का बन्धुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं रहते। जिह्वा-छेदन सर्वस्व-हरण आदि दण्ड उसे भुगतने पड़ते हैं ।

संयम आत्मा का हितकारी है । संयमी पुरुष की यहीं पूजा होती है, परलोक की तो बात ही क्या ? असंयमी निरन्तर हिंसा आदि व्यापारों में लिप्त होने से अशुभ-कर्म का संचय करता है।

तप से सभी अर्थों की सिद्धि होती है। इससे ऋद्धियों की प्राप्ति होती है। तपस्वियों की चरणरज से पवित्र स्थान ही तीर्थ बने हैं। जिसके तप नहीं वह तिनके से भी लघु है। उसे सब गुण छोड़ देते हैं, वह संसार से मुक्त नहीं हो सकता ।

परिग्रह का त्याग करना पुरुष के हित के लिए है । जैसे-जैसे वह परिग्रह से रहित होता है वैसे-वैसे उसके खेद के कारण हटते जाते हैं । खेद-रहित मन में उपयोग की एकाग्रता और पुण्य-संचय होता है । परिग्रह की आशा बड़ी बलवती है वह समस्त दोषों की उत्पत्ति का स्थान है । जैसे पानी से समुद्र का बडवानल शान्त नहीं होता उसी तरह परिग्रह से आशासमुद्र की तृप्ति नहीं हो सकती । यह आशा का गड्ढा दुष्पूर है। इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समा कर मुँह बाने लगता है । शरीर आदि से ममत्वशून्य व्यक्ति परम सन्तोष को प्राप्त होता है। शरीरादि में राग करने वाले के सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है।

ब्रह्मचर्य को पालन करनेवाले के हिंसा आदि दोष नहीं लगते। नित्य गुरुकुलवासी को गुण सम्पदाएँ अपने आप मिल जाती हैं। स्त्रीविलास, विभ्रम आदि का शिकार हुआ प्राणी पापों का भी शिकार बनता है। संसार में अजितेन्द्रियता बड़ा अपमान कराती है। इस तरह उत्तम क्षमा आदि गुणों का तथा क्रोधादि दोषों का विचार करने से क्रोधादि की निवृत्ति होने पर तन्निमित्तक कर्मों का आस्रव रुककर महान् संवर होता है।

28. सभी उत्तम क्षमादि में एक संवर रूप धर्मभाव पाया जाता है अतः उसकी प्रधानता से धर्म शब्द में एकवचन दिया गया है । धर्म शब्द नित्य पुल्लिंग है अतः 'ब्रह्मचर्याणि' के साथ भी वह अपना लिंग नहीं छोड़ता।

अनुप्रक्षाओं का वर्णन --