
सर्वार्थसिद्धि :
ये समुदाय रूप शरीर, इन्द्रियविषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य जल के बुलबुले के समान अनवस्थित स्वभाव वाले हैं । मोहवश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है पर वस्तुत: आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग स्वभाव के सिवा इस संसार में अन्य कोई पदार्थ ध्रुव नहीं है इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस भव्य के उन शरीरादि में आसक्ति का अभाव होने से भोगकर छोड़े हुए गन्ध और माला आदि के समान वियोग काल में भी सन्ताप नहीं होता है । जिस प्रकार एकान्त में क्षुधित और मांस के लोभी बलवान व्याघ्र के द्वारा दबोचे गये मृग शावक के लिए कुछ भी शरण नहीं होता इसी प्रकार जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधि आदि दु:खों के मध्य में परिभ्रमण करने वाले जीव का कुछ भी शरण नहीं है। परिपुष्ट हुआ शरीर ही भोजन के प्रति सहायक है, दु:खों के प्राप्त होने पर नहीं। यत्न से संचित किया हुआ धन भी भवान्तर में साथ नहीं जाता। जिन्होंने सुख और दु:ख को समानरूप से बाँट लिया है ऐसे मित्र भी मरण के समय रक्षा करने में असमर्थ होते हैं। यदि सुचरित धर्म हो तो वह ही दु:खरूपी महासमुद्र में तरने का उपाय हो सकता है। मृत्यु से ले जाने वाले इस जीव के सहस्रनयन आदि भी शरण नहीं हैं, इसलिए संसार विपत्तिरूप स्थान में धर्म ही शरण है। वही मित्र है और वही कभी भी न छूटनेवाला अर्थ है, अन्य कुछ शरण नहीं है इस प्रकारकी भावना करना अशरणानुप्रेक्षा है। इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के 'मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारणभूत पदार्थों में ममता नहीं रहती और वह भगवान अरहंत सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग में ही प्रयत्नशील होता है । कर्म के विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है । उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तनरूप से व्याख्यान कर आये हैं । अनेक योनि और कुल कोटिलाख से व्याप्त इस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयन्त्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है । माता होकर भगिनी, भार्या और लड़की होता है । स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है । जिस प्रकार रंगस्थल में नट नाना रूप धारण करता है उस प्रकार यह होता है । अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है । इत्यादि रूप से संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करते हुए संसार के दु:ख के भय से उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर संसार का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है । 'जन्म, जरा और मरण की आवृत्तिरूप महादु:ख का अनुभवन करने के लिए अकेला मैं ही हूँ, न कोई मेरा स्व है और न पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ और अकेला ही मरता हूँ । मेरा कोई स्वजन या परजन व्याधि, जरा और मरण आदि दु:खों को दूर नहीं करता । बन्धु और मित्र श्मशान से आगे नहीं जाते । धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदाकाल सहायक है ।' इस प्रकार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता, इसलिए नि:संगता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है । शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वा्नुप्रेक्षा है - यथा बन्ध के प्रति अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से 'मैं' अन्य हूँ । शरीर ऐन्द्रियिक हैं, मैं अतीन्द्रिय हूँ । शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ । शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ । शरीर आदि-अन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ । संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये । उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ । इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स ! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ तो इसमें क्या आश्चर्य ? इस प्रकार मनको समाधान युक्त करने वाले शरीरादिक में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्वज्ञानकी भावनापूर्वक वैराग्य का प्रकर्ष होने पर आत्यन्तिक मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है । यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थों का योनि है । शुक्र और शोणितरूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है । त्वचामात्र से आच्छादित है । अति दुर्गन्धा रस को बहाने वाला झरना है । अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थ को भी शीघ्र ही नष्ट करता है । स्नान, अनुलेपन, धूपका मालिश और सुगन्धिमाला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है, किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदिक जीव की आत्यन्तिक शुद्धि को प्रकट करते हैं । इस प्रकार वास्तविकरूप से चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इसके शरीर से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर जन्मोदधि को तरने के लिए चित्त को लगाता है । आस्रव, संवर और निर्जरा का कथन पहले कर आये हैं तथापि उनके गुण और दोषों का विचार करनेके लिए यहाँ उनका फिरसे उपन्यास किया गया है । यथा - आस्रव इस लोक और परलोक में दु:खदायी है । महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इन्द्रिय, कषाय और अव्रतरूप हैं । उनमें से स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदि को दु:खरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं । कषाय आदिक भी इस लोक में वध, बन्धी अपयश और क्लेशादिक दु:खों को उत्पन्न करते हैं, तथा परलोक में नाना प्रकार के दु:ख से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं । इस प्रकार आस्रव के दोषों का चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याणरूप बुद्धि का त्याग नहीं होता है, तथा कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं । जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं ढके रहने पर क्रम से झिरे हुए जल से व्याप्त होने पर उसके आश्रय से बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्र के ढँके रहने पर निरुपद्रवरूप से अभिलषित देशान्तर का प्राप्त होना अवश्यम्भावी है उसी प्रकार कर्मागम के द्वार के ढँके होने पर कल्याण का प्रतिबन्ध नहीं होता । इस प्रकार संवर के गुणों का चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के संवर में निरन्तर उद्युक्तता होती है और इससे मोक्षपद की प्राप्ति होती है । वेदना विपाक का नाम निर्जरा है यह पहले कह आये हैं । वह दो प्रकार के है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है वह अकुशलानुबन्धा है । तथा परीषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है वह कुशलमूला निर्जरा है । वह शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा होती है । इस प्रकार निर्जरा के गुणदोष का चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इसकी कर्मनिर्जरा के लिए प्रवृत्ति होती है । लोकसंस्थान आदि की विधि पहले कह आये हैं । अर्थात् चारों ओर से अनन्तर अलोकाकाश के बहुमध्य देश में स्थित लोक के संस्थान आदि की विधि पहले कह आये हैं । उसके स्वभाव का अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है । इस प्रकार विचार करने वाले इसके तत्वज्ञान की विशुद्धि हेाती है । एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनंतगुणे जीव हैं । इस प्रकार स्थावर जीवों से सब लोक निरन्तर भरा हुआ है । अत: इस लोक में त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है जितना कि बालुका के समुद्र में पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है । उसमें भी विकलेन्दिय जीवों की बहुलता होने के कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना दुर्लभ है । उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होने के कारण गुणों में जिस प्रकार चौपथ पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना भी अति कठिन है । और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्यु्त हो जाने पर पुन: उसकी उत्पत्ति होना इतना कठिन है जितना कि जले हुए वृक्ष के पुद्गलों का पुन: उस वृक्ष पर्यायरूप से उत्पन्न होना कठिन होता है । कदाचित् पुन: इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इन्द्रियसम्पत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है । इन सबके मिल जाने पर भी यदि समीचीन धर्मकी प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अतिकठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्म को प्राप्त कर विषयसुख में रमण होना भस्म के लिए चन्दन को जलाने के समान निष्फल है । कदाचित् विषयसुख से विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सुखपूर्वक मरणरूप समाधि का प्राप्त होना अति दुर्लभ है । इसके होने पर ही बोधिलाभ सफल है ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है । इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी भी प्रमाद नहीं होता । जिनेन्द्रदेव ने यह जो अहिंसा लक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है । इसकी प्राप्ति नहीं होनेसे दुष्कर्म विपाक से जायमान दु:ख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करते हैं । परन्तु इसका लाभ होने पर नाना प्रकारके अभ्युदयों की प्राप्तिपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है । इस प्रकार अनित्यादि अनुप्रेक्षाओं का सान्निध्य मिलने पर उत्तमक्षमादि के धारण करने से महान संवर होता है । अनुप्रेक्षा दोनों का निमित्ति है इसलिए 'अनुप्रेक्षा' वचन मध्य में दिया है । अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता हुआ यह जीव उत्तमक्षमादि का ठीक तरह से पालन करता है और परीषहों को जीतने के लिए उत्साहित होता है । वे परीषह कौन-कौन हैं और वे किसलिए सहन किये जाते हैं, यह बतलाने के लिए यह सूत्र कहते हैं - 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राजवार्तिक :
1. आत्मा ने रागादि परिणामों से कर्म और नोकर्म रूप में जिन पुद्गल द्रव्यों का ग्रहण किया है वे उपात्त पुद्गलद्रव्य तथा परमाणु आदि अनुप्राप्त पुद्गल सभी द्रव्य-दृष्टि से नित्य होकर भी पर्याय-दृष्टि से प्रतिक्षण पर्याय परिवर्तन होने से अनित्य हैं। शरीर, इन्द्रियों के विषयभोग आदि जलबुद्बुद की तरह विनश्वर हैं। गर्भादि अवस्थाओं में जो संयोग थे वे आज नहीं है। इनमें अज्ञानवश मोही जीव नित्यता का भ्रम करता है। आत्मा के ज्ञानदर्शनोपयोग स्वभाव को छोड़कर अन्यपदार्थ ध्रुव नहीं है। इस प्रकार संसार के पदार्थों में अनित्य भावना भानी चाहिये । इस प्रकार विचार करने से भोगकर फेंकी गई माला, गन्ध आदि द्रव्यों की तरह इन पदार्था के वियोग में भी मनस्ताप नहीं होगा। 2. शरण दो प्रकार की है एक लौकिक दूसरी लोकोत्तर। यह प्रत्येक जीव, अजीव और मिश्र के भेद से तीन-तीन प्रकार की है। राजा या देवता आदि लौकिक जीव शरण हैं। कोट आदि अजीव शरण हैं तथा गाँव नगर आदि मिश्र शरण हैं । पंचपरमेष्ठी लोकोत्तर जीवशरण हैं उनके प्रतिबिम्ब आदि अजीवशरण हैं तथा धर्मोपकरणसहित साधुजन मिश्र शरण हैं । भूखे मांसखोर व्याघ्र के पंजों से एकान्त में पकड़े गये हिरण के बच्चे की तरह जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, प्रियवियोग, अप्रिय संयोग, अलाभ और दारिद्य आदि दुःखों से ग्रस्त इस जन्तु को कोई शरण नहीं है। यह परिपुष्ट शरीर मात्र भोजन करने में सहायक है आपत्ति पड़ने पर नहीं। प्रयत्न से संचित धन अदि भी पर्यायान्तर तक नहीं जाते। सुख-दुख के साथी-मित्र भी मरण से रक्षा नहीं कर सकते । आस-पास जुटे बन्धुजन भी रोग से नहीं बचा सकते । यदि कोई एकमात्र तरणोपाय है तो वह अच्छी तरह आचरण किया गया धर्म ही है। यही आपत्ति-सागर से पार उतार सकता है। मृत्यु के पाश से इन्द्र आदि भी नहीं बचा सकते । अतः भवव्यसनों से बचानेवाला एकमात्र धर्म ही शरण है। मित्र, धन आदि कोई शरण नहीं हैं। इस प्रकार की विचारधारा अशरण भावना है। इस प्रकार 'मैं अशरण हूँ' इस भावना से भय या उद्वेग के आने पर सांसारिक भावों में ममत्व नहीं रहता और केवली भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत वचनों की ओर ही चित्त जाता है। 3. द्रव्यादि के निमित्त से आत्मा की पर्यायान्तर प्राप्ति को संसार कहते हैं। आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं - संसार, असंसार, नोसंसार और इन तीनों से विलक्षण ।
काल परमार्थ और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। परमार्थकाल के निमित्त से होनेवाले परिस्पन्द और अपरिस्पन्दरूप परिणमन जिनमें व्यवहारकाल का विभाग भी होता है कालसंसार है। भवनिमित्त संसार बत्तीस प्रकार का है - सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक, और अपर्याप्तक के भेद से चार-चार प्रकार के पृथिवी, जल, तेज, और वायुकायिक, पर्याप्तक और अपर्याप्तक प्रत्येक वनस्पति, सूक्ष्म बादर पर्याप्तक और अर्याप्तक ये चार साधारण वनस्पति, पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो-दो प्रकार के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय, संज्ञी असंज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये चार पंचेन्द्रिय, इस प्रकार बत्तीस प्रकार का भवसंसार है। भावनिमित्तक संसार के दो भेद हैं -- स्वभाव और परभाव । मिथ्यादर्शन आदि स्वभाव संसार हैं तथा ज्ञानावरणादि कर्मों का रस परभाव संसार हैं । इस तरह इस अनेक सहस्र योनियों से संकुल संसार में कर्मयन्त्र पर चढ़ा हुआ यह जीव परिभ्रमण करता हुआ कभी पिता होकर भाई, पुत्र या पौत्र होता है, माता होकर बहिन, स्त्री या लड़की होता है । अधिक क्या कहा जाय स्वयं अपना भी पुत्र हो जाता है। इस तरह संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है । इस प्रकार भावना करते हुए संसार के दुःखों से भय और उद्वेग होकर वैराग्य हो जाता है और यह जीव संसार के नाश के लिए प्रयत्नशील होता है। 4. एकत्व और अनेकत्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार-चार प्रकार के हैं। द्रव्यैकत्व प्रत्येक जीवादि द्रव्य में है। आकाश का एक परमाणु के द्वारा रोका गया प्रदेश क्षेत्रैकत्व है । एक समय कालैकत्व है और मोक्षमार्ग निश्चय से भावैकत्व है। इसी तरह भेदविषयक अनेकत्व भी है । कोई एक या अनेक निश्चित नहीं है। सामान्य दृष्टि से एक होकर भी विशेष दृष्टि से अनेक हो जाता है। बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह का त्यागकर सम्यग्ज्ञान से एकत्व निश्चय को प्राप्त करनेवाले व्यक्ति के यथाख्यात चारित्र रूप से एक मोक्षमार्ग भावैकत्व है। इसकी प्राप्ति के लिए मुझे अकेले ही प्रयत्न करना है, मेरे न कोई स्व है और न कोई पर । मैं अकेला ही उत्पन्न होता हूँ और अकेले ही मरता हूँ, न मेरा कोई स्वजन है और न परजन जो व्याधि जरामरण आदि के दुःखों को हटा सके । बन्धु और मित्र शमसान से आगे नहीं जाते । धर्म ही एक शाश्वत सदा का साथी है । इत्यादि विचार एकत्वानुप्रेक्षा है। इस भावना से स्वजनों में राग और पर में द्वेष नहीं होता और अपरिग्रहत्व को स्वीकार कर यह मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करने लगता है। 5. नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से अन्यत्व भी चार प्रकार का है। आत्मा जीव यह नाम भेद है। काष्ट प्रतिमा यह स्थापनाभेद है। जीवद्रव्य अजीवद्रव्य यह द्रव्य-भेद एक ही जीव में बाल, युवा, मनुष्य, देव आदि पर्यायभेद भावभेद है। बन्ध की दृष्टि से शरीर और आत्मा में भेद न होने पर भी लक्षण की अपेक्षा भेद है। कुशल पुरुष के चारित्र आदि प्रयोगों से शरीर से अत्यन्त भिन्न रूप में अपने स्वाभाविक ज्ञान आदि अनन्त अहेय गुणों में अवस्थान को मुक्ति अन्यत्व या शिवपद कहते हैं। इस परम अन्यत्व की प्राप्ति के लिए 'शरीर ऐन्द्रियक है, मैं अतीन्द्रिय हूँ; शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञ हूँ; शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ; शरीर सादिसान्त है, मैं अनादि अनन्त हूँ; मैंने लाखों शरीर धारण किये हैं, मैं उनसे भिन्न एक चेतन हूँ; जब शरीर से ही मैं भिन्न हूँ तब बाह्यपरिग्रहों की तो बात ही क्या ?' इस प्रकार विचार करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। अन्यत्व भावना से शरीर आदि में स्पृहा नहीं होती और यह मोक्षप्राप्ति के लिए प्रयत्न करने लगता है। 6. लौकिक और लोकोत्तर के भेद से शुचित्व दो प्रकार का है। कर्ममल-कलंकों को धोकर आत्मा का आत्मा में ही अवस्थान लोकोत्तर शुचित्व है। इसके साधन सम्यग्दर्शन आदि, रत्नत्रयधारी साधुजन तथा उनसे अधिष्ठित निर्वाणभूमि आदि मोक्ष प्राप्ति के उपाय होने से शुचि हैं। काल, अग्नि, भस्म, मृत्तिका, गोबर, पानी, ज्ञान और निर्विचिकित्सा-ग्लानिरहितपना, इस प्रकार लौकिक-लोकप्रसिद्ध शुचित्व आठ प्रकार का है। कोई भी उपाय इस शरीर को पवित्र नहीं कर सकता क्योंकि यह अत्यन्त अशुचि है । आदि और उत्तर दोनों ही कारण इसके अत्यन्त अशुचि हैं। शरीर के आदि कारण वीर्य और रज हैं जो कि अत्यन्त अशुचि हैं, उत्तरकारण आहार का परिणमन आदि है । कवल-कवलकर खाया हुआ भोजन श्लेष्माशयमें पहुँचकर श्लेष्म जैसा पतला और अशुचि हो जाता है, फिर पित्ताशय को प्राप्त होकर अम्ल बनता है, फिर वाताशय को प्राप्त होते ही वायु से विभक्त होकर खल और रस रूप से विभाजित हो जाता है। खलभाग मूत्र, मल, पसीना आदि मलविकार रूप से तथा रसभाग शोणित, मांस, मेद, हड्डी, मन्ना और शुक्ररूप से परिणत होता है । ये सब दशाएँ अत्यन्त अपवित्र हैं। इन सबका स्थानभूत शरीर मैलाघर के समान है। इसकी अशुचिता के हटाने का कोई उपाय नहीं है। स्नान, अनुलेपन, धूप, घिसना, सुवास, और माला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता नहीं हटती। अंगार की तरह अपने संसर्ग में आये हुए पदार्थों को अपनी ही तरह बना लेता है । जलादि पदार्थ उसके संसर्ग से स्वयं अपवित्र हो जाते हैं। बार-बार भावित सम्यग्दर्शन आदि जीव की आत्यन्तिक शुद्धि को प्रकट करते हैं। इस तरह वस्तु-विचार करना अशुचि भावना है । इस तरह स्मरण और अनुचिन्तन करने से शरीर से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर जन्मसमुद्र से पार उतरने के लिए चित्त तैयार होता है। 7. यद्यपि आस्रव संवर और निर्जरा के स्वरूप का निरूपण हो चुका है फिर भी भावनाओं में उनका ग्रहण उनके गुण-दोष विचार के लिए किया गया है। आस्रव के दोषों का विचार करना आस्रवानुप्रेक्षा है । आस्रव इसलोक और परलोक में अपाय से युक्त हैं । इन्द्रिय आदि का उन्माद महानदी के प्रवाह की तरह तीक्ष्ण है। बहुत यवयुक्त पानीदार और प्रमाथी आदि गुणों से सहित वनविहारी मदान्ध हाथी कृत्रिम हथिनियों को देखकर स्पर्शनेन्द्रिय के ज्वार से मत्त हो गड्ढे में गिरकर मनुष्य के अधीन हो जाते हैं और वध, बन्ध, वाहन, अंकुशताडन, महावत का आघात आदि के तीव्र दुःखों को भोगते हैं। प्रतिक्षण अपने झुण्ड में स्वच्छन्द वनविहार तथा हथिनी के प्रवीचार सुख का स्मरण करके महान दुःखी होते हैं । जिह्वेन्द्रिय के विषय में लोल मरे हुए हाथी के मदजल में डुबकी लगानेवाले पक्षियों की तरह अनेक आपत्तियों के शिकार होते हैं। घ्राणेन्द्रिय के वशंगत प्राणी जड़ी की गन्ध से लुब्ध साँप की तरह नाश को प्राप्त होते हैं। चक्षुइन्द्रिय के वशंगत दीपक पर मरनेवाले पतंगों की तरह आपत्ति के सागर में पड़कर दुःख उठाते हैं। श्रोत्रेन्द्रिय के वशंगत प्राणी गीत ध्वनि के सुनने से तृणों के चरने को भूलकर जाल में फँसनेवाले हरिणों की तरह अनर्थों के शिकार होते हैं। परलोक में बहुविध दुःखों से प्रज्वलित अनेक योनियों में परिभ्रमण करते हैं। इसप्रकार आस्रव दोषों का विचार करने से इसको उत्तम क्षमा आदि धर्मों में श्रेयस्त्व की बुद्धि बनी रहती है। कछुवे की तरह संकुचित अंगवाले संवरयुक्त जीव के ये आस्रव दोष नहीं होते। जैसे महासमुद्र में पड़ी हुई महानाव में यदि छेद हो जाय और उसे बन्द न किया जाय तो क्रमशः जलविप्लव होनेपर तदाश्रित प्राणियों का विनाश अवश्यम्भावी है और छेद बन्द कर देने पर निरुपद्रव इष्टदेश तक पहुँच जाते हैं उसी तरह कर्मागमन द्वारों का संवरण होने पर कोई श्रेयः प्रतिबन्ध नहीं हो सकता। इस तरह संवर के गुणों का अनुचिन्तन संवरानुप्रेक्षा है। इन विचारों से मनुष्य संवर की ओर प्रयत्नशील होता है। निर्जरा वेदना के विपाक को कहते हैं । निर्जरा दो प्रकार की है अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादिगतियों में कर्मफलविपाक से होनेवाली अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है जिससे आगे अकुशल का ही बन्ध होता है । परीषहजय और तप आदि से कुशलमूला निर्जरा होती है जो शुभ का बन्ध करती है या बन्ध बिलकुल ही नहीं करती। इस तरह निर्जरा के गुण-दोषों की भावना करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इससे चित्त निर्जरा के लिए उद्युक्त होता है। 8. अनन्त अलोकाकाश के मध्य में पुरुषाकार लोक है, उसके संस्थान आदि का वर्णन किया जा चुका है । उसका स्वरूपचिन्तन लोकानुप्रेक्षा है। इससे तत्त्वज्ञानादि की शुद्धि होती है चित्त से रागद्वेष हटते हैं। 9. त्रसत्व आदि का पाना अत्यन्त दुर्लभ है और बोधिलाभ अत्यन्त दुर्लभ है यह विचार बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। 'एक निगोद शरीर में द्रव्यप्रमाण से जीवों की संख्या, सिद्धों की संख्या से और समस्त अतीतकाल के समयों की संख्या से अनन्तगुणी है।' इस आगमप्रमाण से अनन्त निगोदिया हैं। इन अनन्त स्थावरों में त्रसपर्याय का पाना उसी तरह दुर्लभ है जिस प्रकार अनन्त रेत के समुद्र में गिरी हुई हीरा की कनीका फिर मिल जाना । त्रसों में भी विकलेन्द्रिय बहुत होते हैं अतः पञ्चेन्द्रियत्व का पाना उसी तरह दुर्लभ है जिस प्रकार गुणों में कृतज्ञता का मिलना। पञ्चेन्द्रियों में भी पशु, मृग, पक्षी, सरीसृप आदि अनेक प्रकार की पर्यायों में मनुष्य पर्याय का पाना चौराहे पर रखे हुए रत्न की तरह दुर्लभ है। मनुष्यपर्याय नष्ट करके उसे पुनः पाना जले हुए पेड़ में अंकुर निकलने के समान कठिन है । मनुष्यपर्याय मिल भी जाय तो भी हिताहितविचार से रहित असंख्य मानव समुद्र में सुदेश की प्राप्ति पाषाणों में मणि की तरह कठिन है। सुदेश मिलने पर भी सुकुल की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। सुकुलजन्म से शील, विनय और आचार की परम्परा मिल जाती है। उसमें भी दीर्घायु, इन्द्रियबल, रूप, आरोग्य आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। इन सबके मिलने पर भी सद्धर्म की प्राप्ति यदि नहीं हुई तो नेत्र-रहित मुख की तरह वह व्यर्थ ही है । उस सुदुर्लभ धर्म को पाकर भी विषयसुख में समय बिताना भस्म के लिए चन्दन जलाने के समान है। विषयविरक्त होने पर भी तपोभावना, धर्मप्रभावना, सुखमरण आदि रूप समाधि अत्यन्त कठिन है । इस समाधि से ही बोधिलाभ सफल कहा जा सकता है। इस प्रकार चिन्तन करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है इससे बोधि को प्राप्त करके जीव अप्रमादी बना रहकर स्वकल्याण में लगा रहता है। 10-11. जीवस्थान और गुणस्थान का गत्यादि मार्गणाओं में अन्वेषण करना रूप धर्म जिनशासन में अच्छी तरह कहा गया है यह भावना धर्मस्वाख्यातत्व है। गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणाएँ हैं । नरकादि गतियाँ कर्मोदयकृत हैं तथा मोक्षगति क्षायिकी है। इन्द्र अर्थात् आत्मा का चिह्न या इन्द्र अर्थात् नामकर्म से सृष्ट इन्द्रियाँ हैं । द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के भेद से इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं । स्पर्शनादि इन्द्रियाँ और एकेन्द्रियादि भेद कर्मकृत हैं, आत्मा की अतीन्द्रियता क्षायिक है । आत्मा की प्रवृत्ति से उपचित पुद्गलपिण्ड काय है। कायसम्बन्धी जीव छह प्रकार के हैं -- पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से ये होते हैं। नामकर्म का अत्यन्त उच्छेद कर देने से सिद्ध अकाय हैं। वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से प्राप्त वीर्यलब्धि योग का प्रयोजक होती है । उस सामर्थ्यवाले आत्मा का मन, वचन और काय वर्गणानिमित्तक आत्मप्रदेश का परिस्पन्द योग है। वह पन्द्रह प्रकार का है। सत्य, मृषा, उभय और अनुभय के भेद से मनोयोग और वचनयोग चार-चार प्रकार के हैं। औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण ये सात काययोग हैं। आत्मा में सम्मोहरूप प्रवृत्ति उत्पन्न होना वेद है। वह नोकषाय के उदय से तीन प्रकार का है - स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद । आत्मा में अपगतवेद अवस्था औपशमिक भी होती है और क्षायिक भी। जो चारित्रपर्याय को कषे वह कषाय है । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं । अकषायत्व औपशमिक भी है और क्षायिक भी । तत्त्वार्थबोध ज्ञान है । मति आदि पाँच प्रकार के ज्ञान हैं । मिथ्यादर्शन के उदय से मति, श्रुत और अवधि कुज्ञान भी होते हैं । व्रत, समिति, कषायनिग्रह, दण्डत्याग और इन्द्रियजय आदि संयम है । संयम और संयमासंयम आदि चारित्रमोह के उपशम क्षय और क्षयोपशम से होते हैं। सबसे अतीत सिद्धत्व क्षायिक है । दर्शनावरण के क्षय और क्षयोपशम से होनेवाला आलोचन दर्शन है। चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल के भेद से चार प्रकार का दर्शन है । कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति लेश्या है। वह कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के भेद से छह प्रकार की है। निर्वाण पाने की योग्यता जिसमें प्रकट हो सके वह भव्य और अन्य अभव्य हैं । ये दोनों पारिणामिक हैं। मुक्तजीव भव्य और अभव्य उभय से अतीत हैं । तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्व है । वह दर्शनमोह के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होता है । मिथ्यात्व औदयिक है । सासादनसम्यक्त्व अनन्तानुबन्धी के उदय से होता है अतः औदयिक है। सम्यकृमिथ्यात्व क्षायोपशमिक है। शिक्षा, क्रिया और आलाप आदि को ग्रहण करनेवाला संज्ञी और विपरीत असंज्ञी है । संशित्व क्षायोपशमिक है असंशित्व औदयिक है और उभय से परे की अवस्था क्षायिक है । उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण आहार है, विपरीत अनाहार है। शरीर नाम कर्म के उदय और विग्रह गति नाम के उदय से आहार होता है। तीनों शरीर नाम कर्म के उदय के अभाव तथा विग्रहगति नाम के उदय से अनाहार होता है। ये चौदह मार्गणाएँ हैं। इनमें जीव स्थानों की सत्ता का विचार करते हैं । तिर्यञ्च गति में चौदह ही जीवस्थान हैं। अन्य तीन गतियों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो ही जीवस्थान हैं। एकेन्द्रिय में, चार विकलेन्द्रियों में दो-दो और पञ्चेन्द्रियों में चार होते हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, और वायुकायिकों में प्रत्येक के चार, वनस्पति कायिकों में छह और त्रस कायिकों में दस जीवस्थान होते हैं । मनोयोग में एक संज्ञिपर्याप्ततक जीवस्थान हैं। वाग्योग में द्वि, त्रि, चतुरिन्द्रिय, संज्ञि-असंज्ञि पर्याप्तक ये पाँच जीवस्थान हैं। काययोग के चौदह ही जीवस्थान हैं । स्त्रीवेद, पुरुषवेद में संज्ञि, असंज्ञि, पर्याप्तक, अपर्याप्तक ये चार जीवस्थान हैं । नपुंसकवेद में चौदह हैं । अवेद में एक संज्ञिपर्याप्तक स्थान है। चारों कषायों में चौदह और अकषाय में एक संज्ञिपर्याप्तक स्थान है। मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान में चौदह, विभंगावधि और मनःपर्यय में एक संज्ञिपर्याप्तक, तथा मति, श्रुत, अवधिज्ञान में संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो और केवलज्ञान में एक संज्ञिपर्याप्तक जीवस्थान हैं। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यात संयम में एक ही संज्ञिपर्याप्तक जीवस्थान हैं। असंयम में चौदह ही जीवस्थान हैं। अचक्षुदर्शन में चौदह, चक्षुदर्शन में चतुरिन्द्रिय संज्ञि असंज्ञिपर्याप्तक ये तीन जीवस्थान होते हैं। इनके लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं निवृत्त्यपर्याप्तक नहीं। अवधि दर्शन में संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो जीवस्थान होते हैं। केवलदर्शन में एक संज्ञिपर्याप्तक ही स्थान होता है। आदि की तीन लेश्याओं में चौदह, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या में संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो जीवस्थान होते हैं। अलेश्यों में एक संज्ञिपर्याप्तक स्थान है । भव्य और अभव्य में चौदह ही जीवस्थान हैं। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और सासादनसम्यक्त्व में संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो जीवस्थान, सम्यकमिथ्यात्व में एक संज्ञिपर्याप्तक और मिथ्यात्व में चौदह ही जीवस्थान हैं। संज्ञियों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो तथा असंज्ञियों में शेष बारह जीवस्थान होते हैं । संज्ञि असंज्ञिव्यवहार रहित स्थान में एक पर्याप्तक जीवस्थान होता है। कर्मोदयापेक्ष आहार में चौदह ही जीवस्थान होते हैं । अनाहार अवस्था अपर्याप्तक सम्बन्धी सात में, पर्याप्तक के केवलिसमुद्धातकाल में तथा कर्मोदय की अपेक्षा अयोगकवली में होती है। सिद्ध अतीतजीवस्थान हैं। मार्गणाओं में गुणस्थान निरूपण -- नरक गति में पर्याप्तक नारकों में आदि के चार गुणस्थान होते हैं। प्रथम नरक में अपर्याप्तक के पहला और चौथा दो गुणस्थान, अन्य पृथिवियों में अपर्याप्तक के एक मिथ्यात्व गणस्थान ही होता है। तिर्यंच गति में तिर्यंच पर्याप्तकों के आदि के पाँच गुणस्थान, अपर्याप्तकों के मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत सम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं। पर्याप्त तिर्यंचियों के आदि के पाँच गुणस्थान अपर्याप्तिकाओं में मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गणस्थान होते हैं । स्त्रीतिर्यंचों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता अतः सम्यग्दृष्टि गुणस्थान नहीं होता। मनुष्यगति में पर्याप्त मनुष्यों के चौदह ही गुणस्थान होते हैं तथा अपर्याप्तकों के मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत सम्यग्दृष्टि ये तीन गणस्थान हैं । पर्याप्त मनुषिणियों के भावलिंग की अपेक्षा चौदह ही गुणस्थान होते हैं। द्रव्यलिंग की अपेक्षा तो आदि के पाँच ही गुणस्थान हैं। अपर्याप्त स्त्रियों में आदि के दो मिथ्यादृष्टि और सासादन ही गुणस्थान होते हैं क्योंकि सम्यग्दृष्टि स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता। भवअपर्याप्तक तिर्यंच और मनुष्यों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। देवगति में पर्याप्तक भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में आदि के चार गुणस्थान अपर्यातकों आदि के दो गुणस्थान होते हैं। इनकी देवियों और सौधर्म ईशानस्वर्ग की देवियों में भी पूर्वोक्त क्रम हैं । सौधर्म ईशान आदि अन्तिम ग्रैवेयक तक के पर्याप्तकों में आदि के चार गुणस्थान होते हैं। अनुदिश, अनुत्तरवासी पर्याप्तक और अपर्याप्तकों में एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञिपञ्चेन्द्रियों तक में एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । पञ्चेन्द्रियसंज्ञियों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं। पृथिवीकायिक आदि वनस्पति पर्यन्त स्थावरकायिकों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है, त्रसकायिकों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं। सत्यमनोयोग और अनुभय मनोयोग में संज्ञिमिथ्यादृष्टि से तेरहवाँ गुणस्थान तक होता है। सत्यमनोयोग और उभय मनोयोग में संज्ञिमिथ्यादृष्टि आदि बारहवाँ गुणस्थान तक होता है। अनुभय वाग्योग में द्वीन्द्रिय आदि सयोगकेवली पर्यन्त सत्यवाग्योग में संज्ञिमिथ्यादृष्टि आदि सयोगकेवली पर्यन्त, मृषावाग्योग और उभयवाग्योग में संज्ञिमिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषाय पर्यन्त गुणस्थान होते हैं । औदारिक मिश्रकाययोग में मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली ये चार गुणस्थान होते हैं। वैक्रियिककाययोग में आदि के चार गुणस्थान और मिश्र में मिश्रगुणस्थान से रहित तीन ही गुणस्थान होते हैं। आहारक और आहारकमिश्र में एक ही प्रमत्तसंयत गुणस्थान होता है । कार्मण काययोग में मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयत सम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली ये चार गुणस्थान होते हैं । अयोग में एक अयोगी गुणस्थान है। स्त्रीवेद और पुंवेद में असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि अनिवृत्ति बादरसाम्पराय तक नवगुणस्थान और नपुंसक वेद में एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिबादरसाम्पराय तक नव गुणस्थान होते हैं। नपुंसकवेद में नारकियों के चार गुणस्थान एकेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रिय पर्यन्त के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। असंज्ञिपंचेन्द्रिय आदि संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च तीनों वेदवाले होते हैं । मनुष्य तीनों वेदों में अनिवृत्तिबादर तक नव गुणस्थानवाले होते हैं । इसके आगे के मनुष्य अपगतवेद हैं। देव चारों गुणस्थानों में स्त्रीवेदी या पुंवेदी होते हैं। क्रोध मान और माया में एकेन्द्रिय आदि अनिवृत्तिबादर गुणस्थानतक तथा लोभकषाय में सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान तक के जीव होते हैं। इससे आगे के जीव अकषाय होते हैं। मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान में एकेन्द्रिय आदि सासादनसम्यग्दृष्टि पर्यन्त जीव होते हैं। विभंगावधि में संज्ञिमिथ्यादृष्टि या सासादनसम्यग्दृष्टि पर्याप्तक ही होते हैं अपर्याप्तक नहीं । सम्यमिथ्यादृष्टि अज्ञान से मिश्रित तीनों ज्ञानों में होते हैं क्योंकि कारणसदृश कार्य होता है। मतिश्रुत और अवधिज्ञान में असंयत सम्यग्दृष्टि आदि क्षीणकषाय गुणस्थान तक, मनःपर्ययज्ञान में प्रमत्तसंयत आदि क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त तथा केवलज्ञान में सयोगी और अयोगी ये दो गुणस्थान होते हैं। सामायिक, छेदोपस्थापनाशुद्धि संयम में प्रमत्तसंयत से अनिवृत्तिबादरसाम्पराय तक, परिहारविशुद्धि में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, सूक्ष्मसाम्पराय में एक सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम में उपशान्तकषाय क्षीणकषाय सयोगी और अयोगी ये चार गुणस्थान, और संयमासंयम में एक संयतासयत गुणस्थान होता है । असंयम में आदि के चार गुणस्थान होते हैं। चक्षुदर्शन में चतुरिन्द्रिय से लेकर बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान तक, अचक्षुदर्शन में एकेन्द्रिय से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक, अवधिदर्शन में असंयत सम्यग्दृष्टि से क्षीणकषाय गुणस्थान तक और केवलदर्शन में सयोगी और अयोगी ये दो गुणस्थान होते हैं । आदि की तीन लेश्याओं में एकेन्द्रिय आदि असंयत सम्यग्दृष्टि तक, तेज और पद्मलेश्या में संज्ञिमिथ्यादृष्टि से अप्रमत गुणस्थान तक और शुक्ललेश्या में संज्ञिमिथ्यादृष्टि से सयोगकेवली तक होते हैं । अयोगकेवली अलेश्य हैं । भव्यों में चौदहों गुणस्थान तथा अभव्यों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। क्षायिक सम्यक्त्व में असंयत सम्यग्दृष्टि आदि अयोगकेवली तक, वेदक सम्यक्त्व में असंयत सम्यग्दृष्टि-आदि अप्रमत्त संयत तक, औपशमिक सम्यक्त्व में असंयत सम्यग्दृष्टि आदि उपशान्त कषाय तक तथा सासादन सम्यक्त्व, सम्यकमिथ्यात्व और मिथ्यात्व में एक अपना-अपना गुणस्थान होता है। नारकों में प्रथमपृथिवी में क्षायिक, वेदक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि तथा अन्य पृथिवियों में वेदक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि होते हैं। तिर्यचों में असंयत सम्यग्दृष्टि स्थान में क्षायिक, वेदक और औपशमिक तीनों सम्यक्त्व है। संयतासंयत स्थान में क्षायिक नहीं है अन्य दो है; क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व के साथ पूर्वबद्ध तिर्यञ्चायु प्राणी भोगभूमि में ही उत्पन्न होता है । तिर्यञ्चियों में दोनों स्थानों में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता क्योंकि क्षपणा को आरम्भ करनेवाला पुरुषलिंगी मनुष्य ही होता है। मनुष्यों में असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत स्थानों में क्षायिक, वेदक और औपशमिक तीनों सम्यक्त्व हैं । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों और उनकी देवियों में तथा सौधर्म ऐशान कल्पवासिनी देवियों में असंयत सम्यग्दृष्टि स्थान में क्षायिक-सम्यक्त्व नहीं होता अन्य दो होते हैं । सौधर्म आदि उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त क्षायिक, वेदक और औपशमिक तीनों सम्यक्त्व हैं। अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवों में क्षायिक और वेदक सम्यक्त्व हैं, औपशामक भी उपशम श्रेणी में मरनेवालों की अपेक्षा हो सकता है। संज्ञित्व में संज्ञिमिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषायपर्यन्त तथा असंज्ञित्व में एकेन्द्रिय आदि असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय तक होते हैं। संज्ञिअसंज्ञि उभय विकल्प से परे जीवों में सयोगी और अयोगी दो गुणस्थान होते हैं। आहार में एकेन्द्रिय आदि सयोगकेवली पर्यन्त तथा अनाहार में विग्रहगति में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, प्रतर और लोकपूरण अवस्था में सयोगकेवली और अयोगकेवली ये पाँच गुण स्थान होते हैं । सिद्ध गुणस्थानातीत हैं। इस प्रकार निःश्रेयसहेतु धर्म का भगवान् अर्हन्त ने कितना सुन्दर व्याख्यान किया है, यह विचार करना धर्मस्वाख्यातत्व अनुप्रेक्षा है। इससे धर्म के प्रति अनुराग होता है। इसतरह अनुप्रेक्षाओं से उत्तमक्षमा आदि धर्मो का संधारण होता है तथा महान् संयम होता है। 12-16. 'स्वाख्यात' में 'सु' उपसर्ग के साथ समास है अतः उसके योग में अकृच्छ्रार्थक युच् प्रत्यय का प्रसंग नहीं है। अनुप्रेक्षा शब्द भावसाधन है। कृदन्त से अभिहित भाव द्रव्य के समान होता है अतः अनुप्रेक्षितव्य के भेद से भावभेद होकर बहुवचन निर्देश बन जाता है। कर्मसाधन मानकर भी अनुचिन्तन के साथ सामानाधिकरण्य में कोई विरोध नहीं है क्योंकि 'अनुचिन्त्यते इत्यनुचिन्तनम्' इस तरह अनुचिन्तन शब्द भी कर्मसाधन है । अनित्यत्व आदि स्वभावों का अनुचिन्तन अनुप्रेक्षा है। लिंग और वचनभेद तो 'गावो धनम्' की तरह बन जाता है, क्योंकि उपात्तलिंग और वचनवाले शब्दों के परस्पर सम्बन्ध का नियम है। 17. अनुप्रेक्षाओं की भावना करनेवाला उत्तम क्षमा आदि धर्मों का परिपालन करता है और परीषहों के जीतने के लिए उत्साहित होता है अतः दोनों के बीच में अनुप्रक्षा का कथन किया है। |