
सर्वार्थसिद्धि :
क्षुधादिक वेदना विशेष बाईस हैं। मोक्षार्थी पुरुष को इनको सहन करना चाहिए। यथा – जो भिक्षु निर्दोष आहार का शोध करता है, जो भिक्षा के नहीं मिलने पर या अल्प मात्रा में मिलने पर क्षुधावेदना को नहीं प्राप्त होता, अकाल में या अदेश में जिसे भिक्षा लेने की इच्छा नहीं हेाती, आवश्यकों की हानि को जो थोड़ा भी सहन नहीं करता, जो स्वाध्याय और ध्यानभावना में तत्पर रहता है, जिसने बहुत बार स्वकृत और परकृत अनशन व अवमौदर्य तप किया है, जो नीरस आहार को लेता है, अत्यन्त गरम भांड में गिरी हुई जल की कतिपय बूँदों के समान जिसका गला सूख गया है और क्षुधावेदना की उदीरणा होने पर भी जो भिक्षा लाभ की अपेक्षा उसके अलाभ को अधिक गुणकारी मानता है उसका क्षुधाजन्य बाधा का चिन्तन नहीं करना क्षुधापरीषहजय है। जिसने जल से स्नान करने, उसमें अवगाहन करने और उससे सिंचन करने का त्यााग कर दिया है, जिसका पक्षी के समान आसन और आवास नियत नहीं है, जो अति खारे, अतिस्निग्ध और अतिरूक्ष प्रकृति विरुद्ध आहार, ग्रीष्मकालीन आतप, पित्त ज्वर और अनशन आदि के कारण उत्पन्न हुई तथा शरीर और इन्द्रियों को मथने वाली पिपासा का प्रतीकार करने में आदर भाव नहीं रखता और जो पिपासारूप अग्निशिखा को सन्तोष रूपी नूतन मिट्टी के घड़े में भरे हुए शीतल सुगन्धि समाधिरूपी जल से शान्त कर रहा है उसके पिपासाजय प्रशंसा के योग्य है। जिसने आवरण का त्याग कर दिया है, पक्षी के समान जिसका आवास निश्चित नहीं हैं, वृक्षमूल, चौपथ और शिलातल आदि पर निवास करते हुए बर्फ के गिरने पर और शीतल हवा का झोंका आने पर उसका प्रतीकार करने की इच्छा से जो निवृत्ति है, पहले अनुभव किये गये शीत के प्रतीकार के हेतुभूत वस्तु्ओं का जो स्मरण नहीं करता और जो ज्ञानभावनारूपी गर्भागार में निवास करता है उसके शीतवेदनाजय प्रशंसा के योग्य है। निर्वात और निर्जल तथा ग्रीष्म कालीन सूर्य की किरणों से सूख कर पत्तों के गिर जाने से छायारहित वृक्षों से युक्त ऐसे वन के मध्य जो अपनी इच्छानुसार प्राप्त हुआ है, अनशन आदि आभ्यन्तर साधनवश जिसे दाह उत्पन्न हुई है, दावाग्नि-जन्य दाह, अति-कठोर वायु और आतप के कारण जिसे गले और तालु में शोष उत्पन्न हुआ है, जो उसके प्रतीकार के बहुत-से अनुभूत हेतुओं को जानता हुआ भी उनका चिन्तन नहीं करता है तथा जिसका प्राणियों की पीडा के परिहार में चित्त लगा हुआ है उस साधु के चारित्र के रक्षणरूप उष्णपरीषहजय कही जाती है। सूत्र में 'दंशमशक' पद का ग्रहण उपलक्षण है। जैसे 'कौओं से घी की रक्षा करनी चाहिये' यहाँ 'काक' पद का ग्रहण उपघात जितने जीव हैं उनका उपलक्षण है, इसलिये 'दंशमशक' पद से दंशमशक, मक्खी, पिस्सू, छोटी मक्खी, खटमल, कीट, चींटी और बिच्छु आदि का ग्रहण होता है। जो इनके द्वारा की गयी बाधा को बिना प्रतीकार किये सहन करता है, मन वचन और काय से उन्हें बाधा नहीं पहुँचाता है और निर्वाण की प्राप्तिमात्र संकल्प ही जिसका ओढ़ना है उसके उनकी वेदना को सह लेना दंशमशक परीषहजय कहा जाता है। बालक के स्वरूप के समान जो निष्कलंक जातरूप को धारण करने रूप है, जिसका याचना करने से प्राप्त होना अशक्य है, जो याचना, रक्षा करना और हिंसा आदि दोषों से रहित है, जो निष्परिग्रहरूप होने से निर्वाण प्राप्ति का एक-अनन्य साधन है और जो दिन-रात अखण्ड ब्रह्मचर्य को धारण करता है उसके निर्दोष अचेलव्रत धारण जानना चाहिये। जो संयत इन्द्रियों के इष्ट विषय सम्बन्ध के प्रति निरूत्सुक है, जो गीत, नृत्य और वादित्र आदि से रहित शून्यघर, देवकुल, तरूकोटर और शिलागुफा आदि में स्वाध्याय, ध्यान और भावना में लीन है, पहले देखे हुए, सुने हुए और अनुभव किये हुए विषयभोग के स्मरण, विषयभोग सम्बन्धी कथा के श्रवण और कामशर प्रवेश के लिए जिसका ह्रदय निश्छिद्र है और जो प्राणियों के ऊपर सदाकाल सदय है उसके अरतिपरीषहजय जानना चाहिये। एकान्त ऐसे बगीचा और भवन आदि स्थानों नवयौवन, मदविभ्रम और मदिरापान से प्रमत्त हुई स्त्रियों के द्वारा बाधा पहुँचाने पर कछुए के समान जिसने इन्द्रिय और ह्रदय के विकार को रोक लिया है तथा जिसने मन्द मुस्कान, कोमल सम्भाषण, तिरछी नजरों से देखना, हँसना, मदभरी धीमी चाल से चलना, और कामबाण मारना आदि को विफल कर दिया है उसके स्त्रीबाधा परीषहजय जानना चाहिये। जिसने दीर्घकाल तक गुरूकुल में रहकर ब्रह्मचर्य को धारण किया है, जिसने बन्ध-मोक्ष पदार्थों के स्वरूप को जान लिया है, संयम के आयतन शरीर को भोजन देने के लिए जो देशान्तर का अतिथि बना है, गुरू के द्वारा जिसे स्वीकृति मिली है, जो वायु के समान नि:संगता को स्वीकार करता है, बहुत बार अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान और रसपरित्याग आदि जन्य बाधा के कारण जिसका शरीर परिक्लान्त है, देश और काल के प्रमाण से रहित तथा संयम विरोधी मार्ग गमन का जिसने परिहार कर दिया है, जिसने खड़ाऊँ आदि का त्याग कर दिया है, तीक्ष्ण कंकड़ और काँटे आदि के बिंधने से चरणों में खेद के उत्पन्न होने पर भी पहले योग्य यान और वाहन आदि से गमन करने का जो स्मरण नहीं करता है तथा जो यथाकाल आवश्यकों का परिपूर्ण परिपालन करता है उसके चर्यापरीषहजय जानना चाहिए। जिनमें पहले रहने का अभ्यास नहीं किया है ऐसे श्मशान, उद्यान, शून्य घर गिरिगुफा और गह्वर आदि में जो निवास करता है, आदित्य के प्रकाश और स्वेन्द्रिय ज्ञान से परीक्षित प्रदेश में जिसने नियम क्रिया की है, जो नियतकाल निषद्या लगाकर बैठता है, सिंह और व्याघ्र आदि की नानाप्रकार की भीषण ध्वनि के सुनने से जिसे किसी प्रकार का भय नहीं होता, चार प्रकार के उपसर्ग के सहन करने से जो मोक्षमार्ग से च्युत नहीं हुआ है तथा वीरासन और उत्कुटिका आदि आसन के लगाने से जिसका शरीर चलायमान नहीं हुआ है उसके निषद्याकृत बाधा का सहन करना निषद्यापरीषहजय निश्चित होता है। स्वाध्याय, ध्यान और अध्वश्रम के कारण थककर जो कठोर, विषम तथा प्रचुर मात्रा में कंकड़ और खपरों के टुकड़ों से व्याप्त ऐसे अतिशीत तथा अत्युष्ण भूमिप्रदेशों में एक मुहूर्त प्रमाण निद्रा का अनुभव करता है, जो यथाकृत एक पार्श्व भाग से या दण्डायित आदि रूप से शयन करता है, करवट लेने से प्राणियों को होने वाली बाधा का निवारण करने के लिए जो गिरे हुए लकड़ी के कुन्दे के समान या मुर्दा के समान करवट नहीं बदलता, जिसका चित्त ज्ञानभावना में लगा हुआ है, व्यंतरादि के द्वारा किये गये नाना प्रकार के उपसर्गों से भी जिसका शरीर चलायमान नहीं होता और जो अनियतकालिक तत्कृत बाधा को सहन करता है उसके शय्यापरीषहजय कहा जाता है। मिथ्यादर्शन के उद्रेक से कहे गये जो क्रोधाग्नि की शिखा को बढ़ाते हैं ऐसे क्रोधरूप, कठोर, अवज्ञाकर, निन्दा रूप और असभ्य वचनों को सुनते हुए भी जिसका उनके विषय में चित्त नहीं जाता है, यद्यपि तत्काल उनका प्रतीकार करने में समर्थ है फिर भी यह सब पापकर्म का विपाक है इस तरह जो चिन्तन करता है, जो उन शब्दों को सुनकर तपश्चरण की भावना में तत्पर रहता है और जो कषायविष के लेशमात्र को भी अपने ह्रदय में अवकाश नहीं देता उसके आक्रोशपरीषहसहन निश्चित होता है। तीक्ष्ण तलवार, मूसर और मुद्गर आदि अस्त्रों के द्वारा ताड़न और पीड़न आदि से जिसका शरीर तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है तथापि मारने वालों पर जो लेशमात्र भी मन में विकार नहीं लाता, यह मेरे पहले किये गये दुष्कर्म का फल है, ये बेचारे क्या कर सकते हैं, यह शरीर जल के बुलबुले के समान विशरण-स्वभाव है, दु:ख के कारण को ही ये अतिशय बाधा पहुँचाते हैं, मेरे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र को कोई नष्ट नहीं कर सकता इस प्रकार जो विचार करता है वह बसूला से छीलने और चन्दन से लेप करने में समदर्शी होता है, इसलिये उसके वधपरीषहजय माना जाता है। जो बाह्य और आभ्यंतर तप के अनुष्ठान करने में तत्पर है, जिसने तप की भावना के कारण अपने शरीर को सुखा डाला है, जिसका तीक्ष्ण सूर्य के ताप के कारण सार व छाया रहित वृक्ष के समान त्वचा,अस्थि और शिराजाल मात्र से युक्त शरीरयन्त्र रह गया है, जो प्राणी का वियोग होने पर भी आहार, वसति और दवाई आदि की दीन शब्द कहकर, मुख की विवर्णता दिखाकर व संज्ञा आदि के द्वारा याचना नहीं करता तथा भिक्षा के समय भी जिसकी मूर्ति बिजली की चमक के समान दुरूपलक्ष्य रहती है ऐसे साधु के याचना परीषहजय जानना चाहिये। वायु के समान नि:संग होने से जो अनेक देशोंमें विचरण करता है, जिसने दिन में एक काल के भोजन को स्वीकार किया है, जो मौन रहता है या भाषासमिति का पालन करता है, एक बार अपने शरीर को दिखलाना मात्र जिसका सिद्धान्त, है, पाणिपुट ही जिसका पात्र है, बहुत दिन तक या बहुत घरों में भिक्षा के नहीं प्राप्त होने पर भी जिसका चित्त संक्लेश से रहित है, दाताविशेष की परीक्षा करने में जो निरूत्सुक है तथा लाभ से भी अलाभ मेरे लिए परम तप है इस प्रकार जो सन्तुलष्ट है उसके अलाभ परीषहजय जानना चाहिये। यह सब प्रकार के अशुचि पदार्थों का आश्रय है, यह अनित्य है और परित्राण से रहित है इस प्रकार इस शरीर में संकल्प रहित होने से जो विगतसंस्कार हैं, गुणरूपी रत्नों के पात्र के संचय, वर्धन, संरक्षण और संधारण का कारण होने से जिसने शरीर की स्थितिविधान को भले प्रकार स्वीकार किया है, धुर को ओंगन लगाने के समान या व्रण पर लेप करने के समान जो बहुत उपकार वाले आहार को स्वीकार करता है, विरूद्ध आहार-पान के सेवनरूप विषमता से जिसके वातादि विकार रोग उत्पन्न हुए हैं, एक साथ सैकड़ों व्याधियों का प्रकोप होने पर भी जो उनके आधीन नहीं हुआ है तथा तपोविशेष से जल्लौषधि की प्राप्ति आदि अनेक ऋद्धियों का सम्बन्ध होने पर भी शरीर से निस्पृह होने के कारण जो उनके प्रतीकार की अपेक्षा नहीं करता उसके रोगपरीषहसहन जानना चाहिये। जो कोई विंधनेरूप दु:ख का कारण है उसका 'तृण' पद का ग्रहण उपलक्षण है। इसलिये सूखा तिनका, कठोर कंकड़, काँटा, तीक्ष्ण मिट्टी और शूल आदि के विंधने से पैरों में वेदना के होने पर उसमें जिसका चित्त उप्युक्त नहीं है तथा चर्या, शय्या और निषद्या में प्राणिपीडा का परिहार करने के लिए जिसका चित्त निरन्तर प्रमादरहित है उसके तृणस्पर्शादि बाधापरीषहजय जानना चाहिये। अप्कायिक जीवों की पीडाका परिहार करने के लिए जिसने मरणपर्यन्त अस्नानव्रत स्वीकार किया है, तीक्ष्ण सूर्य की किरणों के ताप से उत्पन्न हुए पसीना में जिसके पवन के द्वारा लाया गया धूलिसंचय चिपक गया है, सिध्म, खाज और दाद के होने से खुजली के होने पर भी जो खुजलाने, मर्दन करने और दूसरे पदार्थ से घिसनेरूप क्रिया से रहित है, स्वगत मल का उपचय और सम्यक्चारित्ररूपी विमल जल के प्रक्षालन द्वारा जो कर्ममलपंक को दूर करने के लिए निरन्तर उद्यतमति है उसके मलपीडासन कहा गया है। सत्कार का अर्थ पूजा-प्रशंसा है। तथा क्रिया-आरम्भ आदिक में आगे करना या आमन्त्रण देना पुरस्कार है। इस विषय में यह मेरा अनादर करता है। चिरकाल से मैंने ब्रह्मचर्य का पालन किया है, मैं महातपस्वी् हूँ, स्वसमय और परसमय का निर्णयज्ञ हूँ, मैंने बहुत बार परवादियों को जीता है तो भी कोई मुझे प्रणाम और भक्ति नहीं करता और उत्सााह से आसन नहीं देता, मिथ्यादृष्टि ही अत्यन्त भक्तिवाले होते हैं, कुछ नहीं जाननेवाले को भी सर्वज्ञ समझ कर आदर सत्कार करके अपने समय की प्रभावना करते हैं, व्यन्तरादिक पहले अत्यन्त, उग्र तप करने वालों की प्रत्यग्र पूजा रचते थे यह यदि मिथ्या श्रुति नहीं है तो इस समय वे हमारे समान तपस्वियों की क्यों नहीं करते हैं इस प्रकार खोटे अभिप्राय से जिसका चित्त रहित है उसके सत्कार पुरस्कारपरीषहजय जानना चाहिये। मैं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रों में विशारद हूँ तथा शब्दशास्त्र , न्यायशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र में निपुण हूँ। मेरे आगे दूसरे जन सूर्य की प्रभा से अभिभूत हुए खद्योत के उद्योत के समान बिलकुल नहीं सुशोभित होते हैं इस प्रकार विज्ञानमद का निरास होना प्रज्ञापरीषहजय जानना चाहिये। यह मूर्ख है, कुछ नहीं जानता है, पशु के समान है इत्यादि तिरस्कार के वचनों को मैं सहन करता हूँ, मैंने परम दुश्चर तप का अनुष्ठान किया है, मेरा चित्त निरन्तर अप्रमत्त रहता है, तो भी मेरे अभी तक भी ज्ञान का अतिशय नहीं उत्पन्न हुआ है इस प्रकार विचार नहीं करने वाले के अज्ञानपरीषजय जानना चाहिये। परम वैराग्य की भावना से मेरा ह्रदय शुद्ध है, मैंने समस्त पदार्थों के रहस्य को जान लिया है, मैं अरहन्त, आयतन, साधु और धर्म का उपासक हूँ, चिरकाल से मैं प्रव्रजित हूँ तो भी मेरे अभी ज्ञानातिशय नहीं उत्पन्न हुआ है। महोपवास आदि का अनुष्ठान करने वालों के प्रातिहार्य विशेष उत्पन्न हुए यह प्रलापमात्र है, यह प्रव्रज्या अनर्थक है, व्रतों का पालन करना निरर्थक है इत्यादि बातों का दर्शनविशुद्धि के योग से मन में नहीं विचार करने वाले के अदर्शनपरिषहसहन जानना चाहिये। इस प्रकार जो संकल्प के बिना उपस्थित हुए परीषहों को सहन करता है और जिसका चित्त संक्लेश रहित है उसके रागादि परिणामों के आस्रव का निरोध होने से महान संवर होता है। संसाररूपी महाअटवी को उल्लंघन करने के लिए उद्यत हुए पुरूषों को क्या ये सब परीषह प्राप्त होती हैं या कोई विशेषता है इसलिये यहाँ कहते हैं- जिनके लक्षण कह आये हैं ऐसे ये क्षुधादिक परीषह अलग-अलग चारित्र के प्रति विकल्प से होते हैं। उसमें भी इन दोनों में नियम से जानने योग्य– |
राजवार्तिक :
क्षुधादि बाईस परीषह होती हैं । बाह्य और अभ्यन्तर द्रव्यों के परिणमन रूप शारीरिक और मानसिक पीड़ा को कारणभूत क्षुधादि बाईस परीषह हैं । मोक्षप्राप्ति के इच्छुक विद्वान् संयतों को इन परीषहों को जीतने का प्रयत्न करना चाहिये । जैसे - प्रकृष्ट क्षुधारूपी अग्नि की ज्वाला को धैर्यरूपी जल से शान्त करना, क्षुधाजय कहलाता है । जिसने शरीर के सब संस्कारों का त्याग कर दिया है, जो शरीर मात्र उपकरण में संतुष्ट है, तप ओर संयम के नाशक कारणों का परिहार करने वाला है, कृत, कारित, अनुमोदित, संकल्पित, उद्दिष्ट, संक्लिष्ट, खरीद कर लाया हुआ, परिवर्तन करके लाया हुआ (अपनी वस्तु देकर उसके बदले में दूसरी लाकर साधु को देना प्रत्यात्त कहलाता है), पूर्व कर्म (आहार लेने के पूर्व दाता को स्तुति करना), पश्चात् कर्म (आहारान्तर दाता की स्तुति करना), इन दस प्रकार के एषणा दाषों को टाल कर आहार करने वाला है । देशकाल, जनपद की व्यवस्था को जानने वाला है, ऐसे संयत को भी अनशन, मार्ग का श्रम, रोग, तप, स्वाध्याय का श्रम, कालातिक्रम, अवमौदर्य और असाता वेदनीय कर्म के उदय आदि कारणों से नाना आहार रूपी ईंधन के डालने पर जठराग्नि को प्रज्वलित करने वाली और वायु के झकोरों से चंचल अग्नि की शिखा के समान चारों तरफ शरीर और इन्द्रियों को क्षोभ उत्पन्न करने वाली क्षुधा उत्पन्न होती है । उसका प्रतीकार अकाल (भोजनकाल के सिवाय काल) में संयम के विरोधी द्रव्य के द्वारा न तो स्वयं करते हैं, न दूसरे से कराते हैं, न मन में यह विचार करते हैं कि - 'यह वेदना दुस्तर है, समय बहुत है, बहुत बडे-बडे दिन होते हैं' आदि । क्षुधा के कारण वे ज्ञानी साधु किसी प्रकार के विषाद को प्राप्त नही करके शरीर में अस्थि (हड्डी), सिरा-जाल, चमड़ा मात्र रह जाने पर भी आवश्यक क्रियाओं को बराबर नियम से करते हैँ तथा कारागार के बन्धन में पड़े हूए भूख से छटपटाते हुए मनुष्यों को और पिंजरे में बन्द पशु-पक्षियों को क्षुधा से पीडित एवं परतन्त्र देखकर उनकी दशा का विचार करके संयमरूपी कुम्भ मे भरे हुए धैयरूपी जल में क्षुधारूपी अग्नि को शमन करते हैं तथा उस भयंकर क्षुधा की पीड़ा को नहीं गिनते हुए क्षुधा को जीतते हैं । इसे क्षुधा परीषहजय कहते हैं ॥१॥ तृषा (प्यास) की उदीरणा के कारण मिलने पर भी प्यास के वशीभूत नहीं होना, उसके प्रतीकार को नही चाहना पिपासा सहन है । स्नान अवगाहन (तालाब आदि में डुबकी लगाना आदि) के त्यागी, पक्षियों के समान अनियत आसन और स्थान वाले, अतिलवण, स्निग्ध, रूक्ष, प्रकृतिविरुद्ध आहार, गरमी, पित्त ज्वर और उपवास आदि में उत्पन्न शरीर और इन्द्रियों को मथने वाली पिपासा को कुछ न समझकर उसके प्रतीकार की इच्छा नहीं करने वाले, जेठ महीने के सूर्य का तीव्र ताप और जंगल में जलाशय के निकट रहने पर भी जलकायिक जीवों की हिंसा का परिहार करने की इच्छा से उन जलाशयों के जल से प्यास बुझाने की इच्छा नहीं करने वाले, पानी सींचने के अभाव में मुरझाई हुई लता के समान म्लानता को प्राप्त हुए शरीर की परवाह न करके तप का परिपालन करने वाले, भिक्षाकाल के समय भी संकेत आदि के द्वारा योग्य जल को भी नहीं चाहने वाले परम संयमी साधु धैर्य रूपी कुम्भ में भरे हुए, शील में सुगन्धित प्रज्ञा रूपी जल से तृष्णा रूपी अग्नि की ज्वाला को बुझाते हैं, शान्त करते हैं और संयम में तत्पर रहते हैं, वे पिपासा परीषहजयी होते हैं ॥२॥ प्रश्न – क्षुधा और पिपासा को पृथक् ग्रहण करना व्यर्थ है, क्योंकि दोनों का एक ही अर्थ है । उत्तर – सामर्थ्यभेद में(लक्षणभेद से) क्षुधा पिपासा एक नहीं है, क्योंकि क्षुधा का सामर्थ्य भिन्न है और पिपासा का सामर्थ्य भिन्न है अत: दोनों एक नहीं है । प्रश्न – भूख और प्यास में अभ्यवहार (भोजन करना) सामान्य है अत: क्षुधा, तृषा परीषह एक ही है, पृथक्-पृथक् नहीं? उत्तर – भूख और प्यास पृथक्-पृथक् हैं, क्योंकि उन दोनों का अधिकरण भिन्न-भिन्न है, क्षुधा के प्रतीकार का अधिकरण (साधन) है और पिपासा का अधिकरण भिन्न है अत: अभ्यवहार सामान्य होते हुए भी पृथक्-पृथक् है । शीत के कारणों के सन्निधान में शीत के प्रतिकार की अभिलाषा नहीं करना, संयम का परिपालन करना शीत परीषहजय कहलाता है । निर्वस्त्र पक्षियों के समान अनियत आवास वाले और शरीर मात्र आधार वाले साधुजन शिशिर, वसन्त और वर्षा के समय में वृक्षमूल, मार्ग तथा गुफा आदि निवास में गिरे हुए बर्फ़, तुषार आदि के कणों से व्याप्त शीतलपवन से तीव्र शरीर के कांपने पर भी उस शीत की प्रतिक्रिया करने में समर्थ अग्नि आदि द्रव्यान्तर की अभिलाषा नहीं करते हैं; किन्तु नरक सम्बन्धी दुःसह शीतजन्य तीव्र वेदना का स्मरण करके चित्त का समाधान करते हैं । शीत के प्रतिकार की चिकीर्षा में परमार्थ के लोप के भय के कारण विद्या, मंत्र, ओषध, पत्ते, वल्कल, तृण और चर्म आदि के सम्बन्ध से व्यावृत मन वाले (अभिलाषा नहीं करने वाले) साधुजन शरीर को पराया समझते हुए पूर्व में धूप में सुवासित, दीपकों से प्रज्वलित श्रेष्ठ अंगनाओं के नवयौवन, उष्ण घन स्तन, नितम्ब और भुजान्तर के द्वारा शीत की तर्जना करने वाले, गर्भगारों मे किये हुए निवास को तथा अनुभूत सुरत-सुख के रस के ज्ञान के द्वारा असार समझकर स्मरण नहीं करते हुए किसी प्रकार का विवाद नहीं करते हुए साधुगण धैर्य रूपी वस्त्र को धारण करके संयम का परिपालन करते हुए शीत को सहन करते हैं, उसे शीत परीषहजय कहते हैं ॥३॥ चारित्र की रक्षा करने के लिये दाह का प्रतीकार करने की इच्छा का अभाव होना उष्ण परिषह सहन है । ज्येष्ठ मास के प्रखर सूर्य की किरणों के समूह से अंगार की तरह संतापित शरीर वाले; प्यास, अनशन, पित्तरोग, घाम, श्रम आदि से उत्पन्न उष्णता से सन्तप्त, स्वदेह (अपने शरीर) में असह्य गर्मी की वेदना से पसीना, शोष-दाह आदि से पीड़ित होने पर भी जलभवन, जलावगाहन, चन्दन आदि का अनुलेपन, जलसिंचन, आद्रभूमि, नीलकमल, केले के पत्र से उत्क्षपित शीतल वायु जलतूलिका (जल के फ़व्वारे), चन्दन, चन्द्रकिरण, कमल की माला और मुक्ताहार आदि पूर्व में अनुभूत शीतल उपचारों के प्रति तिरस्कार भाव रखने वाले, संयमीजन उस भयंकर महागर्मी में विचार करते हैं - 'मैंने बहुत बार नर्कों में परवश होकर अत्यन्त दुःसह उष्ण वेदना सही है, यह तप मेरे कर्मक्षय का कारण है, इसे स्वतन्त्र भाव से सहन करना चाहिये' इत्यादि पुनीत विचारों में उष्णविविरोधिनी क्रिया के प्रति अनादर करते हुए (उष्णता के प्रतीकार की इच्छा नहीं करते हुए) चारित्र का रक्षण करना उष्ण परीषहजय है ॥४॥ दंशमशक की बाधा सहन करना, उसका प्रतीकार नहीं करना दंशमशक परीषहजय कहलाता है । त्याग किया है शरीर के आच्छादक वस्त्रादि का जिन्होंने, किसी भी पदार्थ मे जिनका मन आसक्त नहीं है, परकृत आवास गिरिगुफा आदि स्थानों में वास करने वाले, रात-दिन आतितीव्र वेदना के उत्पादक डांस, मच्छर, मक्खी, पिस्सू, कीडा, जुँआ, खटमल, चींटी और बिच्छू आदि के तीक्ष्णपात से काटे जाने पर भी दुःखित मन नहीं होने वाले, स्वकर्म के पाक का चिन्तन करने वाले, विद्या, मंत्र और औषधि आदि के द्वारा उस दंषमशक की बाधा के प्रतीकार की इच्छा न रखने वाले, शरीर के नाश पर्यन्त निश्चित दृढ़ात्मा बने रहने वाले साधुगण प्रबल प्रमर्दन के प्रति प्रवर्तमान रिपुजन प्रेरित विविध प्रकार के शस्त्रों के प्रतिघात से अपराङ्मुरव निर्विघ्न विजय को प्राप्त करने वाले मदान्ध हाथी के समान कर्मसेना को जीतने में तत्पर रहते हैं, उसे दंशमशक परीषहजयी वा दंशमशकबाधा अप्रतीकारी कहते हैं ॥५॥ प्रश्न – सूत्र में दंशमशक को ही बाधा कारण ग्रहण किया है, अत: दंशमशक ही परीषह है, अन्य जन्तुकृत नहीं ? उत्तर – दंशमशक शब्द डंसने वाले जन्तुओं के उपलक्षण के लिये है । जैसे 'दही संरक्षण' में 'काक' शब्द दही खाने वाले प्राणियों का उपलक्षक होता है, अत: दशन- तापकारी सर्व जन्तुओं का दंशमशक से ग्रहण होता है । यदि उपलक्षण नहीं होता तो दंशमशक में से किसी एक शब्द का ग्रहण होता, अत: दंशमशक में से किसी एक का नाम लेने से उसी जन्तु के स्वरूप का बोध होने से दूसरा शब्द उपलक्षण के लिए दिया गया है । जातरूप (जन्म-अवस्था के समान निराभरण निर्वस्त्र निर्विकार रूप) धारण करना नाग्न्य है । गुप्ति, समिति की अविरोधी परिग्रह निवृत्ति और परिपूर्ण ब्रह्मचर्यभूत अप्रार्थिक मोक्ष के साधन चारित्र का अनुष्ठान करना यथाजात रूप है । अविकारी (शरीर), संस्कारों से रहित, स्वाभाविक, मिथ्यादृष्टियों के द्वारा द्वेषकृत होने पर भी परम माङ्गल्य ऐसी यथाजातरूप नाग्न्य अवस्था के धारक, स्त्रीरूप का नित्य अशुचि, वीभत्स और शव-कंकाल के समान देखने वाले, वैराग्य भावनाओं से मनोविकार को जीतने वाले और सामान्य मनुष्यत्व के द्वारा असंभावित ऐसे विशिष्ट मानवरूपधारी साधुगणों के नाग्न्य दोषों (लिंगविकार, मनोविकार आदि दोषों) का स्पर्श नहीं होने से नाग्न्य परीषह के जय की सिद्धि होती है । अर्थात् नग्न हाने पर भी पुरुषविकार प्रकट न होने से नाग्न्य परीषहजय कहलाता है । जातरूप का धारण करना उत्तम है और मोक्षप्राप्ति का कारण कहा जाता है । अन्य तापसीगण मनोविकारों तथा मन विकारपूर्वक होने वाले अंगविकारों को रोकने में असमर्थ हैं अत: उस अङ्गविकृति को ढंकने के लिए कौपीन, फलक, चीवर आदि आवरणों को ग्रहण करते हैं । वे तापस केवल अंग का ही संवरण कर सकते हैं, कर्म का नहीं ॥६॥ संयम में रति करना अरति परीषहजय कहलाता है । क्षुधा आदि की बाधा सताने पर संयम की रक्षा में, इन्द्रियों का बडी कठिनता से जीतने में, व्रतों के भले प्रकार पालन करने के भार की गुरुता प्राप्त होने पर, सदैव प्रमादरहित परिणामों की सम्हाल करने में, भिन्न-भिन्न देशभाषाओं के नहीं जानने पर विरुद्ध और चपल प्राणियों से भरे भयानक मार्गों में अथवा राज्य के कर्मचारियों आदि से भयानक परिस्थिति में नियत रूप में एकाकी विहार करने आदि से जो अरति (खेद) उत्पन्न होती है उसे वे धैर्यविशेष से निवारण करते हैं । संयमविषयक रति (अनुराग) भावना के बल से विषयसुख रति को (विषयानुराग को) विषमिश्रित आहार के सेवन के समान विपाक में कटु मानने वाले उन परम संयमिजन के रति परीषह बाधा का अभाव होने से अरति परीषहजय होता है; ऐसा जानना चाहिये ॥७॥ प्रश्न – क्षुधादि सर्व ही परीषह अरति के हेतु हैं अत: अरति परीषह को पृथक् ग्रहण करना व्यर्थ है । उत्तर – यद्यपि क्षुधा आदि सभी परीषह अरति उत्पन्न करती हैं तथापि श्रुधा आदि के न होने पर भी मोहकर्म के उदय से होने वाली संयम की अरति का संग्रह करने के लिये 'अरति' का पृथक् ग्रहण किया है; क्योंकि मोह के उदय से आकुलित चित्त वाले प्राणी के क्षुधादि के अभाव में ही संयम के प्रति अरति उत्पन्न होती है वराङ्गनाओं के रूप देखना, उनका स्पर्श करना आदि के भावों की निवृत्ति को स्त्री परिषह- जय कहते हैं । एकान्त, उद्यान, भवन आदि प्रदेशों मे राग द्वेष विशिष्ट यौवन का घमण्ड करने वाली, अपने सुन्दर रूप का गर्व करने वाली, विभ्रम और उन्माद को पैदा करने वाले मद्यादि का पान करने वाली स्त्रियों के द्वारा बाधा पहुँचाने पर भी, उन वनिताओं के नेत्र, मुख एवं भ्रूविकार, श्रंगार, आकार, विहार, हाव-भाव, विलास, हास, लीला, कटाक्ष-विक्षेप, सुकुमार-स्निग्ध-मृदु-पीन- उन्नत-स्तनकलश, नितान्तक्षीण उदर, पृथु जघन, रूप, गुण, आभरण, सुवास, वस्त्र, माल्य आदि के प्रति पूर्ण निग्रह के भाव होने से जो उनके दर्शन, स्पर्शन आदि की अभिलाषाओं सें पूर्णत: रहित हैं तथा स्निग्ध, मृदु, विशद, सुकुमार शब्द और तंत्री वीणा आदि से मिश्रित अतिमधुर गीत आदि के सुनने में निरुत्सुक हैं; तथा स्त्रीसम्बन्धी अनर्थों को संसार रूपी समुद्र के व्यसनपाताल भयंकर दु:ख, रौद्र भंवर आदि रूप विचार करने वाले हैं ऐसे परम संयमिजनों के स्त्री परीषहजय होता है । अन्य मिथ्यादृष्टियों के द्वारा कल्पित ब्रह्मादि देव तिलोत्तमा देवगणिका के रूप को देखकर विकार को प्राप्त हो गये थे, वे स्त्रीपरीषह रूपी पंक (कीचड़) से ऊपर नहीं उठ सके, अपने आत्मा का उद्धार करने में समर्थ नहीं हो सके ॥८॥ गमन के दोषों का निग्रह करना चर्या परीषहजय कहलाता है । दीर्घकाल तक गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य का अभ्यास करने वाले, बन्ध, मोक्षतत्व के मर्म को जानने वाले, कषायों का निग्रह करने में तत्पर भावनाओं से सुभावित चित्त वाले, गुरु की आज्ञापूर्वक संयम आयतनों की भक्ति के लिये देशान्तर में गमन करने वाले और नाना जनपद (अनेक देशों के) व्यवहारों के ज्ञाता साधुओं को ग्राम में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि ही अधिक-से-अधिक रहना चाहिये । वहां एक व पांच दिन रहकर भी वायु के समान निसंग रहना चाहिये । ऐसा विचार करने वाले वा देशकाल प्रमाणोपेतमार्ग के अनुभव से क्लेश को सहन करने में समर्थ भयंकर अटवी प्रदेशों में सिंह के समान निर्भय होने से सहायक की अपेक्षा न करके परिभ्रमण करने वाले साधुजन मार्ग में कठोर कंकड आदि से पैरों के कट जाने पर और छिल जाने पर भी खेद का अनुभव नहीं करते हैं, वा इन साधुओं को खेद का अनुभव नहीं होता है । पूर्व में अनुभव किए हुए उचित यान-वाहन आदि का स्मरण नहीं करते हैं तथा सम्यक् प्रकार से गमन के दोषों का परिहार करते हैं, उन साधुओं के चर्या परीषह-जय होता है अर्थात् ऐसे साधु चर्या परीषहजयी होते हैं ॥९॥ संकल्पित आसन से विचलित नहीं होना निषद्या परीषहजय होता है । श्मशान, उद्यान, शून्यगृह, गिरिगुहा, गह्वर आदि अनभ्यस्त (नये-नये) स्थानों में संयमविधिज्ञ, धैर्यशाली और उत्साह- सम्पन्न साधु जिस आसन से बैठते हैं, उपसर्ग, रोग-विकारादि के आने पर भी उस आसन से विचलित नहीं होते हैं और न मन्त्र-विद्या आदि से उपसर्गादि का प्रतीकार ही करना चाहते हैं वा उपसर्ग आदि को दूर करने के लिये मन्त्रविद्या आदि की अपेक्षा ही करते हैं । क्षुद्रजन्तुयुक्त विषम देश में भी काष्ठ या पत्थर के समान निश्चल आसन से बैठते हैं, उस समय वे पूर्वानुभूत मृदु शय्या आदि बिछौनों के सुख का स्मरण भी नहीं करते हैं, वे तो प्राणीपीडा के परिहार में तत्पर हैं, निशदिन ज्ञान-ध्यान में लीन रहते हैं अर्थात् जिनकी बुद्धी ज्ञान-ध्यान की भावना के आधीन है । वीरासन, उत्कुटिकासन आदि जिस आसन से बैठते है, उस संकल्पित आसन में दूसरे आसन की पलटना नहीं करते, हिलना आदि आसन-दोषों हो जीतते हैं, उन परम संयमीजनों को निषद्या परीषहजय होता है अर्थात् वे ही साधु निषद्या परीषह के विजयी होते हैं ॥१०॥ आगम में कथित शयन से चलित नहीं होना, आगमानुसार शयन करना शयन परीषहजय , कहलाता है । स्वाध्याय, ध्यान और मार्ग-गमन के परिश्रम आदि से परिखेदित, खर, विषम, रेतीली, ककरीली, पथरीली, शीत तथा उष्णता से युक्त भूमिप्रदेशों में एक मुहूर्त्त तक एक करवट में सीधे डण्डे की भांति शयन करने वाले, बाधाविशेष के उत्पन्न होने पर भी संयम की रक्षा करने के लिये हलन-चलन न करके निश्चल रहने वाले, व्यन्तर आदि के द्वारा उपद्रव करने पर भी भागने या उसके प्रतीकार की इच्छा नहीं रखने वाले, मरण के भय में भी निशंक रहकर गिरी हुई लकडी के समान, निश्चल मरे हुए के समान पडे रहने वाले (मृतक प्रापावित् निश्चल), 'यह स्थान सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि दुष्ट जीवों से भरा हुआ है, यहाँ से शीघ्र ही निकल जाना श्रेयस्कर है, कब यह रात्रि समाप्त होगी' इस प्रकार के संकल्प-विकल्पों को नहीं करने वाले, सुखस्थान के मिलने पर भी हर्ष से उन्मत्त नहीं होने वाले, पूर्व में अनुभूत नवनीत के समान मृदु शय्या का स्मरण न करके आगमोक्त विधि से शयन करने वाले तथा आगमोक्तविधि मे न्यून नहीं होने वाले साधुजनों के शय्या परीषहजय होता है अर्थात् उक्त विधि से शयन करने वाले ही संयमीजन शयन परीषह-विजयी होते हैं ॥११॥ अनिष्ट वचनों को सहन करना आक्रोश परीषहजय है । तीव्र मोहाविष्ट, मिथ्यादृष्टि- आर्य, मलेच्छ, खल (दुष्ट) पापाचारी, मत्त (पागल), उददृप्त (घमण्डी), शंकित आदि दुष्टजनों के द्वारा प्रयुक्त मा शब्द, धिक्कार शब्द, तिरस्कार अवज्ञा के सूचक कठोर, कर्कश, कानों को बधिर करने वाले, हृदयभेदी, हृदय में शूल के उत्पादक, क्रोधरूपी अग्नि की ज्वालाओं को बढ़ाने वाले और अप्रिय गाली आदि वचनों को सुनकर भी स्थिरचित्त रहने वाले, भस्म करनें का सामर्थ्य होते हुए भी परमार्थ (तत्वविचार) में अवगाहित चित्तवाले, शब्द मात्र को श्रवण कर कटु शब्दों के अर्थ के विचार में पराङ्मुख, ''यह मेरे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्म का उदय ही है जिससे मेरे प्रति इनका द्वेष है'', इत्यादि पुण्य भावनाओं के चिन्तन रूप उपायों के द्वारा सुभावित साधु का अनिष्ट वचनों का सहन करना आक्रोश परीषहजय है, ऐसा समझना चाहिये ॥१२॥ मारने वालों के प्रति भी क्रोध नहीं करना वध परीषहजय है । ग्राम, उद्यान, अटवी, नगर आदि में रात-दिन एकाकी, निरावरण शरीर वाले, चारों तरफ घूमने वाले, चोर, कुतवाल, मलेच्छ, भील, कटोर, बधिर, पूर्व अपकारी, शत्रु और द्वेषाविष्ट मिथ्यादृष्टि तपस्वी आदि के द्वारा क्रोधपूर्वक ताडन, आकर्षण, बन्धन, शस्त्राभिघात आदि के द्वारा मारने पर भी बैर नहीं करने वाले, ’यह शरीर अवश्य ही नष्ट होने वाला है, यह कुशलता है कि शरीर ही इस पुरुष के द्वारा नष्ट किया जा रहा है, मेरे व्रत, शील-भावना आदि तो नष्ट नहीं किये जा रहे है’ इत्यादि शुभ भावनाओं को भाने वाले, जलने पर भी सुवास के फैलाने वाले चन्दन के समान शुभ परिणाम वाले, इसके मारण-ताडन से तो मेरे कर्मों की निर्जरा ही हो रही है, ऐसा विचार करने वाले, दृढमति और क्षमा रूपी औषधि के बल से मारने वाले में भी मित्रभाव रखने वाले या क्रोध नहीं करने वाले संयमी के वध परीषहजय कहा जाता है ॥१३॥ प्राण जाने पर भी आहारादि की याचना नहीं करना, दीनता से निवृत्त होना याचना परीषहजय है । भूख, मार्ग के परिश्रम आदि के द्वारा शुष्क वृक्ष के समान जिसके सारे अवयव सूख गये हैं, (शरीर लकड़ी के समान हो गया है), जिसके अस्थि और स्नायु का समूह ऊपर चमक उठा है, नेत्र भीतर धँस गये हैं, ओठ शुष्क हो गये हैं, कपाल गड्ढे से युक्त सफेद हो गये हैं; चर्म के समान जिनके अंगोपाङ्ग संकुचित हो गये हैं, जंघा, पैर, कमर, बाहु आदि जिनके अत्यन्त शिथिल हो गये हैं, ऐसे देशकाल की अवस्था का विचार कर ही आहार के लिए निकलने वाले, मौनी, परम स्वाभिमानी, शरीर दिखाना मात्र व्यापार वाले, महाशक्तिशाली, प्रज्ञा से ओत-प्रोत मानसिक परिणति वाले, परम तपस्वीगण प्राण जाने की अवस्था हो जाने पर भी दीनता, मुख की विवर्णता, शरीर का संकेत, हीन वचन का प्रयोग आदि के द्वारा आहार, वसति, औषध आदि की याचना नहीं करते हैं, जैसै - जौहरी (रत्नों का व्यापारी) मणि को दिखाता है, उसी प्रकार स्व शरीर को दिखाना ही पर्याप्त है । जो अदीन हैं, वन्दना करने वाले के लिये ही जिनके हाथ ऊपर उठते हैं, अर्थात् वन्दना करने वाली को आशीर्वाद देने के लिए ही जिनके हाथ विकसित होते हैं, याचना के लिये नहीं, ऐसे साधुगण ही याचना परीषहविजयी होते हैं वा ऐसे महामना साधु के याचना परीषहजय होता है । अधुना (इस समय) कालदोष से दीन, अनाथ, पाखण्डियों से व्याप्त इस जगत् में मोक्षमार्ग को नहीं जानने वाले अनात्मज्ञों के द्वारा याचना की जाती है । (याचना- परोषहजयी के संवर होता है, याचना करने वाले के नहीं) ॥१४॥ अलाभ में भी लाभ के समान संतुष्ट होने वाले तपस्वी के अलाभ परीषहजय होता है । वायु के समान अनेक देशों मे विहार करने वाले, अपनी शक्ति को प्रकाशित नहीं करने वाले, दिन में एक बार भोजन करन वाले, स्व शरीर दर्शन मात्र से भिक्षा स्वीकार करने वाले, 'देहि या देओ' इस प्रकार के असभ्य वचनों का प्रयोग नहीं करने वाले, शरीर की प्रतिक्रिया के (शरीर के ममत्व के) त्यागी, 'यह आज है और यह कल' इत्यादि संकल्पों से रहित, एक ग्राम में भिक्षा की प्राप्ति न होने पर ग्रामान्तर में आहार का अन्वेषण करने के लिये जाने में अनुत्सुक, पाणिपात्र में भोजन करने वाले ओर बहुत से घरों में बहुत दिनों तक भ्रमण करने पर भिक्षा के नहीं मिलने पर भी संक्लेश परिणाम नहीं करने वाले, रंचमात्र भी चित्त को मलिन नहीं करने वाले परम तपस्वी के अलाभ परीषहजय होता है, वे साधु यह न सोचते हैं और न कहते हैं कि 'यहां दाता नही है, वहां बडे-बडे दानी उदार दाता है', वे परम योगी लाभ से भी अलाभ में परम तप मानते हैं, इस प्रकार लाभ की अपेक्षा अलाभ में अधिक सन्तुष्ट होने वाले के अलाभ परीषहजय है, ऐसा जानना चाहिये ॥१५॥ नाना व्याधियों के प्रतीकार की इच्छा नहीं करने वाले के रोग परीषहजय होता है । दुःख का कारण, अशुचि का भाजन, जीर्ण वस्त्र के समान छोड़ने योग्य, वात-पित्त-कफ और सन्निपातजन्य अनेक रोग और वेदनाओं से जकडे हुए इस शरीर को दूसरे के समान मानने वाले, इस शरीर से उपेक्षाभाव को धारण करने के कारण सर्व प्रकार की विचिकित्सा से चित्त को हटाकर शरीर की यात्रा की प्रसिद्धि के लिये व्रण (घाव) के लेपन के समान शास्त्रोक्त विधि से शुद्ध आहार लेने वाले, तप के प्रभाव से जल्लौषधि-प्राप्ति आदि अनेक तपविशेष ऋद्धियों के प्राप्त होने पर भी शरीर से अत्यन्त निस्पृह होने से रोग के प्रतीकार की इच्छा नहीं करने वाले 'यह पूर्वोपाजित पापकर्म का फल है, इसे भोगकर उऋण हो जाना ही अच्छा है', इत्यादि विचारों के द्वारा राग की वेदना को सहन करने वाले परम योगी के रोग परीषहजय होता है ॥१६॥ तृणादि के निमित्त से वेदना के होने पर भी मन का निश्चल रहना उसमें दुःख नहीं मानना तृण परीषहजय है । यथाभिनिर्वृत्त अधिकरणों (जहां कहीं जैसी ऊंची-नीची पृथ्वी मिल गई उस) पर सोने वाले, शुष्कभूमि, तृण, पत्र, कण्टक, काष्ठ, फलक और शिलातल आदि किसी भी प्रासुक असंस्कृत आधार पर व्याधि, मार्गश्रम, शीत, उष्ण आदि कारणों से उत्पन्न क्लम (श्रम थकावट) को दूर करने के लिये शय्या वा आसन लगाने वाले तृणादि के द्वारा शरीर में बाधा होने तथा खुजली आदि विकार उत्पन्न होने पर भी दुःख नहीं मानकर निश्चल रहने वाले साधु के तृणादि के स्पर्श को बाधा के वशीभूत न होने से तृण-स्पर्श परीषहजय (सहन) जानना चाहिये, ऐसा साधु तृण परीषहजयी होता है ॥१७॥ स्व और पर के द्वारा मल के अपचय और उपचय के संकल्प के अभाव को मलधारण परीषह-सहन कहते हैं । जलकायिक जीवों की पीड़ा का परिहार करने के लिए अस्नान जिनका व्रत है, ऎसे परम अहिंसक साधु पसीने के मैल से सारे अंगों के जल जाने पर दाद, खाज आदि चर्मरागों के प्रकुपित होने पर तथा नख, रोम, दाढ़ी, मूँछ, केश के विकृत होने में एवं अनेक बाह्य मल के सम्पर्क के कारण चर्मविकार होने पर भी स्वयं मल (शरीरगत मैल) को दूर करने की वा दूसरों से मल को दूर कराने की इच्छा नहीं करते हैं और सदा कर्ममल को दूर करने की चेष्टा करते हैं, जो पूर्व में अनुभूत स्नान, अनुलेपन आदि के स्मरण से पराङ्मुख हैं, उन संयमीजनों के मलधारण परीषहजय होता है, अर्थात् वे ही साधु मलपरीषह को सहन करने वाले होते हैं॥१८॥ प्रश्न – केश लुन्चन करने में वा केशों का संस्कार नहीं करने पर महान खेद होता है अत: केश लुन्चन को सहन करना वा केशसंस्कार नहीं करना नाम एक परीषह और होना चाहिये । उत्तर – यद्यपि केशलुन्चन और केशसंस्कार नहीं करने पर खेद होता है, पर यह मलपरीषह में अन्तर्भूत हो जाता है अत: इसको पृथक् ग्रहण नहीं किया है । मान और अपमान में तुल्यभाव होना, सत्कार-पुरस्कार की भावना नहीं होना, सत्कार- पुरस्कार परीषहजय है । 'चिर काल में ब्रह्मचर्य व्रत के धारी महातपस्वी, स्व-पर-समय-निश्चयज्ञ, हितोपदेशी कथामार्गकुशल, अनेक बार परवादी के साथ शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त करने वाले ' मेरा कोई प्रणाम, भक्ति, आदर (आने पर खड़े होना-चलने पर पीछे-पीछे चलना) आसन-प्रदान आदि से सत्कार-पुरस्कार नहीं करता है', इस प्रकार की दुर्भावनाओं को मन मे न लाकर मान और अपमान में समवृत्ति रखने वाले सस्कार-पुरस्कार की आकांक्षा नहीं करने वाले और मात्र श्रेयोमार्ग का ध्यान करने वाले संयमी के सत्कार-पुरस्कार परीषहजय होता है । सत्कार-पुरस्कार में समभाव रखने वाला ही साधु सत्कार-पुरस्कार परीषहजयी होता है । पूजा प्रशंसात्मक सत्कार है और क्रिया के प्रारम्भ में मुखिया बनाना, प्रधानता देना, आमन्त्रण देना पुरस्कार है ॥१९॥ प्रज्ञा (बुद्धि) का विकास होने पर भी प्रज्ञा मद नहीं करना प्रज्ञा परीषहविजय है । 'मैं अंग पूर्व प्रकीर्णक आदि में विशारद हूँ सारे ग्रन्थों के अर्थ का ज्ञाता हूँ, अनुत्तरवादी हूँ, त्रिकाल विषयार्थवेदी हूँ, शब्द (व्याकरण), न्याय, अध्यात्म में निपुण हूँ, मेरे समक्ष सूर्य के सामने खद्योत के समान अन्यवादी निस्तेज हो जाते हैं, इस प्रकार विज्ञान का मद नहीं होने देना प्रज्ञा परीषहजय है ॥२०॥ अज्ञान के कारण होने वाले अपमान एवं ज्ञान की अभिलाषा को सहन करना अज्ञान परीषहजय है । 'यह अज है, कुछ नहीं जानता, पशु समान है' इत्यादि आक्षेप (तिरस्कार) वचनों को शान्तिपूर्वक सहने वाले, अध्ययन और अर्थग्रहण में श्रम करने वाले, चिरप्रव्रजित (बहुत काल का दीक्षित) विविध तपविशेष के भार से आक्रान्त मूर्त्ति (विविध प्रकार के घोर तपों को करने वाले), सर्व क्रियाओं में प्रमाद नहीं करने वाले और अशुभ मन, वचन, काय की क्रियाओं से रहित मुझे आज तक कोई ज्ञान का अतिशय उत्पन्न नहीं हुआ है, इस प्रकार अपने मन में अज्ञान से हीन भावना नहीं आने देना, मानसिक ताप से सन्तापित नहीं होना अज्ञान परीषहजय जानना चाहिये ॥२१॥ ’दीक्षा लेना आदि अनर्थक है’, इस प्रकार मानसिक विचार नहीं होने देना, अदर्शन परीषह- सहन है । संयम पालन करने में प्रधान, दुष्कर तप तपने वाले, परम वैराग्य भावना से शुद्ध हृदय युक्त, सकल तत्वार्थवेदी, अर्हदायतन, साधु और धर्म के प्रतिपूजक चिरप्रव्रजित मुझ तपस्वी को आज तक कोई ज्ञानातिशय उत्पन्न नहीं हुआ है । 'महोपवास करने वालों को प्रातिहार्यविशेष (चमत्कारी ऋद्धियां) उत्पन्न हुए थे' यह सब प्रलाप मात्र है, असत्य है, यह दीक्षा लेना व्यर्थ है, व्रतों का पालन निरर्थक है । इस प्रकार से चित्त में अश्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देना, अपने सम्यग्दर्शन को दृढ रखना, अदर्शन परीषह सहन करना जानना चाहिये । तप के बल पर ऋद्धियों के उत्पन्न न होने पर जिनवचन पर अश्रद्धान नहीं करना अदर्शन परीषहजय है । इस प्रकार असंकल्पित (बिना संकल्प के) उपस्थित परीषहों को संक्लेश परिणामरहित सहन करने वाले साधु के रागादि परिणाम रूप आस्रव का अभाव होने से महान संवर होता है ॥२२॥ प्रश्न – श्रद्धान और आलोचन (अवलोकन) के भेद से दर्शन दो प्रकार का है अत: यहाँ अविशेषता से दोनों का ग्रहण होगा । क्योंकि यहां दर्शन का कोई विशेष लिंग आश्रित नहीं है? उत्तर – यद्यपि दर्शन के श्रद्धान और आलोचन ये दो अर्थ होते हैं, तथापि यहां अव्यभिचार दिखाने के लिये दर्शन का अर्थ 'श्रद्धान' ही ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि यहां मति आदि पांच ज्ञानों के अव्यभिचारी श्रद्धान रूप दर्शन का ग्रहण है, आलोचन रूप दर्शन श्रुत और मनःपर्यय ज्ञानों में नहीं होता है अत: उसका ग्रहण नहीं है, अव्यभिचारी श्रद्धान का ही ग्रहण है । प्रश्न – अदर्शन परीषह में दर्शन का अर्थ श्रद्धान करना स्व-मनोरथ कल्पना मात्र है । उत्तर – आगे कहे जाने वाले दर्शनमोह के उदय से ही अदर्शन परीषह बताई जायेगी । 'दर्शनमोहान्तरायोरदर्शनालाभौ' अत: दर्शन का श्रद्धान अर्थ केवल कल्पनामात्र नहीं है। प्रश्न – अवधि आदि दर्शन को भी परीषह में ग्रहण करना चाहिये क्योंकि 'मेरी आंख अच्छा देखती है, इसकी आंख में कोई अतिशय नहीं है’, गुणप्रत्यय भी अवधि है, आगम में लिखा भी है कि 'इसमें उसके योग्य गुण नहीं है’ इत्यादि वचनों को सहन करना अवधि आदि दर्शन परीषहजय है अत: अवधिदर्शन परीषह को भी ग्रहण करना चाहिये । उत्तर – यद्यपि अवधिदर्शन आदि के न होने पर 'इसमें यह गुण नहीं है' आदि रूप से अवधिदर्शन परीषह हो सकती है, परन्तु इसका अज्ञान परीषह में अन्तर्भाव हो जाता है; क्योंकि ये अवधि आदि दर्शन अपने-अपने ज्ञानों के सहचारी होते हैं । अवधि आदि ज्ञान के अभाव में उनके सहचारी दर्शन का भी अभाव रहता है । जैसे सूर्य के प्रकाश के अभाव में उसके प्रताप का अभाव रहता है इसलिये अज्ञान परीषह में ही उन-उन अवधिदर्शन अभाव आदि परीषहों का अन्तर्भाव है । प्रश्न – यदि अज्ञान परीषह में अवधि- दर्शनाभाव आदि का अन्तर्भाव हो जाता है तो श्रद्धान भी ज्ञान का अविनाभावी है अत: अदर्शन परिषह का भी प्रज्ञा परीषह में अन्तर्भाव प्राप्त होता है ? उत्तर – इस प्रकार श्रद्धान रूप दर्शन को ज्ञान का अविनाभावी मानकर उसका प्रज्ञा मे अन्तर्भाव नही किया जा सकता । क्योंकि किसी में प्रज्ञा के होने पर भी तत्त्वार्थश्रद्धान का अभाव पाया जाता है, अत: व्यभिचारी है अर्थात् प्रज्ञा के साथ श्रद्धान का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है । शिष्य पूछता है कि परोषहों को जीतने से संवर होता है, ऐसा आपने कहा है, अब यह बताइये कि प्रश्न – संसार समुद्र से तिरने की इच्छा करने वाले इन मुनिगण को क्या ये सर्व परीषह एक साथ दुःख देती हैं कि इनमें कुछ विशेषता है? उत्तर – जिनका लक्षण कह चुके हैं ऐसी ये क्षुधादि परीषह भिन्न-भिन्न चारित्र के अनुसार विभक्त हो जाती है । इनमें विशेषता है परन्तु नीचे के सूत्र द्वारा तीन गुणस्थानों में नियम से चौदह परिषह होती हैं, वह सूत्र कहा जाता है - |