
सर्वार्थसिद्धि :
क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान ये चौदह परीषह हैं। सूत्र में आये हुए 'चतुर्दश' इस वचन से अन्य परीषहों का अभाव जानना चाहिये। शंका – वीतरागछदमस्थ के मोहनीय के अभाव से तत्कृत आगे कहे जाने वाले आठ परीषहों का अभाव होने से चौदह परीषहों के नियम का वचन तो युक्त है, परन्तु सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में मोहनीय का उदय होने से चौदह परीषह होते हैं यह नियम नहीं बनता। समाधान – यह कहना अयुक्त है, क्योंकि वहाँ मोहनीय का सद्भाव है। वहाँ पर केवल लोभसंज्वनलन कषाय का उदय होता है और वह भी अतिसूक्ष्म होता है, इसलिये वीतराग छद्मस्थ के समान होने से सूक्ष्म्साम्पराय में चौदह परीषह होते हैं यह नियम वहाँ भी बन जाता है। शंका – इन स्थानों में मोह के उदय की सहायता नहीं होने से और मन्द उदय होने से क्षुधादि वेदना का अभाव है इसलिये इनके कार्यरूपसे 'परीषह' संज्ञा युक्ति को नहीं प्राप्त होती। समाधान – ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ शक्तिमात्र विवक्षित है। जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि के देव के सातवीं पृथ्वी के गमन के सामर्थ्य का निर्देश करते हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये। यदि शरीरवाले आत्मा में परीषहों के सन्निधान की प्रतिज्ञा की जाती है तो केवलज्ञान को प्राप्त और चार कर्मों के फल के अनुभव के वशवर्ती भगवान के कितने परीषह प्राप्त होते हैं इसलिये यहाँ कहते हैं। उनमें तो- |
राजवार्तिक :
1-2. चौदह ही होती हैं कम बढ़ नहीं । यद्यपि सूक्ष्मसाम्पराय में सूक्ष्म लोभ संज्वलन का उदय है पर वह अत्यन्त सूक्ष्म होने से कार्यकारी नहीं है, मात्र उसका सद्भाव ही है अतः छमस्थ और वीतराग की तरह उसमें भी चौदह ही परीषह होती हैं। 3. प्रश्न – जिसके क्षुधा की सम्भावना होती है उसी से उसको जीतने के कारण क्षुधा परीषहजय कहा जा सकता है। जब ११वें और १२वें गुणस्थान में मोह का मन्दोदय उपशम और क्षय है तब मोहोदय रूप बलाधायक के अभाव में वेदना न होने से परीषहों की सम्भावना ही नहीं है अतः उनका जय या अभाव कैसा ? उत्तर – जैसे सर्वार्थसिद्धि के देवों के उत्कृष्ट साता के उदय होने पर भी सप्तमपृथिवीगमन-सामर्थ्य की हानि नहीं है उसी तरह वीतराग छमस्थ के भी कर्मोदय-सद्भावकृत परीषह व्यपदेश हो सकता है। |