+ सम्यग्दृष्टियों में निर्जरा का क्रम -
सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरता-नन्तवियोजक-दर्शनमोह-क्षपकोपशम-कोपशांत-मोहक्षपक-क्षीणमोह-जिना: क्रमशोऽसंख्येय-गुण-निर्जरा: ॥45॥
अन्वयार्थ : सम्‍यग्‍दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्‍तानुबन्धिवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्‍तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन ये क्रम से असंख्‍यगुण निर्जरावाले होते हैं ॥४५॥
Meaning : The dissociation of karmas increases innumerablefold from stage to stage in the ten stages of the right believer, the householder with partial vows, the ascetic with great vows, the separator of the passions leading to infinite births, the destroyer of faith-deluding karmas, the suppressor of conductdeluding karmas, the saint with quiescent passions, the destroyer of delusion, the saint with destroyed delusion, and the spiritual victor (Jina).

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

सम्‍यग्‍दृष्टि आदि ये दश क्रम से असंख्‍येयगुण निर्जरा वाले होते हैं। यथा- जिसे पूर्वोक्‍त काललब्धि आदि की सहायता मिली है और जो परिणामों की विशुद्धि द्वारा वृद्धि को प्राप्‍त हो रहा है ऐसा भव्‍य पंचेन्द्रिय जीव क्रम से अपूर्वकरण आदि सोपान पंक्ति पर चढ़ता हुआ बहुतर कर्मों की निर्जरा करने वाला होता है।

सर्वप्रथम वह ही प्रथम सम्‍यक्‍त्‍व की प्राप्ति के निमित्त के मिलने पर सम्‍यग्‍दृष्टि होता हुआ असंख्‍येयगुण कर्मनिर्जरा वाला होता है।

पुन: वह ही चारित्र मोहनीय कर्म के एक भेद अप्रत्‍याख्‍यानावरण कर्मके क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की प्राप्ति के समय विशुद्धि का प्रकर्ष होने से श्रावक होता हुआ उससे असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

पुन: वह ही प्रत्‍याख्‍यानावरण कर्म के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की विशुद्धिवश विरत संज्ञा को प्राप्‍त होता हुआ उससे असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

पुन: वह ही जब अनन्‍तानुबन्‍धी क्रोध, मान, माया और लोभ की विसंयोजना करता है तब परिणामों की विशुद्धि के प्रकर्षवश उससे असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

पुन: वह ही दर्शनमोहनीयत्रिकरूपी तृणसमूह को भस्‍मसात् करता हुआ परिणामों की विशुद्धि के अतिशयवश दर्शनमोह क्षपक संज्ञा को प्राप्‍त होता हुआ पहले से असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

इस प्रकार वह क्षायिक सम्‍यग्‍दृष्टि होकर श्रेणि पर आरोहण करने के सम्‍मुख होता हुआ तथा चारित्र मोहनीय के उपशम करने के लिए प्रयत्‍न करता हुआ विशद्धि के प्रकर्षवश उपशमक संज्ञा को अनुभव करता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

पुन: वह ही समस्त चारित्रमोहनीय के उपशमक निमित्त मिलने पर उपशांत कषाय संज्ञा को प्राप्त होता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्येय गुण निर्जरा वाला होता है।

पुनः वह ही चारित्रमोहनीय की क्षपणा के लिए सम्‍मुख होता हुआ तथा परिणामों की विशुद्धि से वृद्धि को प्राप्‍त होकर क्षपक संज्ञा को अनुभव करता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

पुन: वह ही समस्‍त चारित्रमोहनीय की क्षपणा के कारणों से प्राप्‍त हुए परिणामों के अभिमुख होकर क्षीणकषाय संज्ञा को प्राप्‍त करता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्‍येय गुण निर्जरा वाला होता है।

पुन: वह ही द्वितीय शुक्‍लध्‍यान रूपी अग्नि के द्वारा घातिकर्म समूह का नाश करके जिन संज्ञा को प्राप्‍त होता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

कहते हैं, सम्‍यग्‍दर्शन का सान्निध्‍य होने पर भी यदि असंख्‍येयगुण निर्जरा के कारण ये परस्‍पर में समान नहीं है तो क्‍या श्रावक के समान ये विरत आदिक भी केवल गुणभेद के कारण निर्ग्रन्‍थपने को नहीं प्राप्‍त हो सकते हैं, इसलिए कहते हैं कि यह बात ऐसी नहीं है, क्‍योंकि यत: गुणभेद के कारण परस्‍पर भेद होने पर भी नैगमादि नय की अपेक्षा वे सभी होते हैं-
राजवार्तिक :

प्रथम सम्यक्त्व आदि का लाभ होने पर अध्यवसाय (परिणामों) की विशुद्धि की प्रकर्षता से ये दसों स्थान क्रमश: असंख्येय-गुणी निर्जरा-वाले हैं । जैसे मद्यपायी के शराब का कुछ नशा उतरने पर अव्यक्त ज्ञान-शक्ति प्रकट होती है, या दीर्घ निद्रा के हटने पर जैसे ऊँघते-ऊँघते भी अल्प स्मृति होती है, या विष-मूर्च्छित व्यक्ति को विष का एकदेश वेग कम होने पर चेतना आती है, अथवा पित्तादि विकार से मूर्च्छित व्यक्ति को मूर्च्छा हटने पर अव्यक्त चेतना आती है -- उसी प्रकार अनन्त-काय आदि एकेन्द्रियों में बार-बार जन्म-मरण-परिभ्रमण करते-करते विशेष लब्धि से दो-इन्द्रिय आदि से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रस-पर्याय मिलती है । कदाचित पुन: वहीं एकेन्द्रियों में परिभ्रमण करना पड़ता है । अर्थात् कोई प्राणी निगोद से निकलकर द्विन्द्रिय आदि में भ्रमण कर पुन: निगोद में चले जाते हैं । इस प्रकार अनेक बार चढ-उतर कर (कभी एकेंद्रिय, कभी दो इन्द्रिय, कभी तीन इन्द्रिय आदि में हजारों बार परिभ्रमण करके) नरकादि पर्यायों में दीर्घकाल तक पंचेंद्रियत्व का अनुभव करके घुणोत्कीर्ण अक्षर (घुण चलता है, उसने अक्षर का आकार बन जाना घुणाक्षर न्याय है) के समान अतीव कठिनता से मानव-जन्म प्राप्त करता है । फिर भी (मानुषभव प्राप्त करके) संसार में भ्रमण कर मानुष पर्याय से भी अति-दुर्लभ उत्तम देश, उत्तम कुल, आदि को प्राप्त करके अल्प संक्लेश के कारण वह भव्यजीव प्रतिभा शक्ति वाला हो थोडी सी विशुद्धि को पा लेता है, परिणामों की विशुद्धि से अन्तरात्मा का प्रक्षालन होने पर भी यदि योग्य उपदेश नहीं मिलता तो उसे सन्मार्ग की प्राप्ति नहीं होती और वह कुतीर्थों के द्वारा प्रतिपादित मिथ्या पदार्थों को मानकर मिथ्यादृष्टि होकर मिध्या-मार्गों में भटककर पुन: जन्माटवी में परिभ्रमण करता है, यानी संसार का अतिथि बना रहता है । इस प्रकार पूर्वोक्त क्रम से ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न विशुद्धि, उपदेश, लब्धि-सम्पन्न (क्षयोपशम-लब्धि, विशुद्धि-लब्धि, देशना-लब्धि को प्राप्त करता है) होता है । अथवा कभी मुनिराज-कथित जिन-धर्म को सुनता है तथा कदाचित् प्रतिबन्धी कर्मों के दब जाने से उस पर श्रद्धान भी करता है; जैसे कतक-फल के सम्पर्क से जल का कीचड़ नीचे बैठ जाता है, और जल निर्मल बन जाता है उसी प्रकार मिथ्या उपदेश से अतिमलिन मिथ्यात्व के उपशम से आत्मा निर्मलता को प्राप्त कर श्रद्धानाभिमुख होकर तत्त्वार्थ-श्रद्धान की अभिलाषा के सन्मुख होकर कर्मों की असंख्यात-गुणी निर्जरा करता है और अभूतपूर्वकरण (अनिवृत्ति-करण परिणामों) से प्रथम सम्यक्त्व के सम्मुख होता है तथा जिनेन्द्र के वचनों में परम रुचि एवं श्रद्धान करता हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि होता है । अर्थात उपशम सम्यक्त्व का अनुभव करता है । पुन: सम्यक्त्व भावना रूप अमृत रस से विशुद्धि को बढाता हुआ मिथ्यात्व की घातक शक्ति का आविर्भाव होने से, धान्य को कूटने से जैसे तुष, कण और चावल पृथक्-पृथकु हो जाते हैं, उसी प्रकार मिथ्या-दर्शन के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, ये तीन विभाग कर के सम्यक्त्व प्रकृति का वेदन करता हुआ सद्भूत पदार्थों का श्रद्धान करना जिसका फल है ऐसा क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होता है । पुन: प्रशम, संवेग, अनुकम्पादि गुणों का धारी जिनेन्द्र-भक्ति से बढी हुई विपुल भावनाओं का आगार यह वेदक सम्यग्दृष्टि जहाँ केवली है वहाँ उनके चरणमूल में मोह (दर्शनमोह) का क्षय करना प्रारम्भ करता है । उस क्षायिक सम्यक्त्व की पूर्णता पूर्व में बाँधे हुए आयुकर्म के अनुसार चारों गतियों में से किसी भी गति में करता है, (परन्तु प्रारम्भ कर्म-भूमिया मनुष्य ही करता है) इस प्रकार मिथ्यात्व का निराकरण करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है । (अर्थात जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था में नरकायु, तिर्यन्चायु, मनुष्यायु का बन्ध कर लिया हो, पुन: क्षायिक-सम्यक्त्व करना प्रारम्भ किया हो तथा अनन्तानुबंधी चार मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मिथ्यात्व-प्रकृति का क्षय करके मर गया हो, पुन: चारों गतियों में से किसी में जन्म लेकर सम्यक्त्व-प्रकृति का क्षय करता है अत: मोह के क्षय की समाप्ति चारों गतियों में है) अथवा, पूर्व-कथित शंकादि दोषों से रहित, कुसमयों (कुशास्त्रों) से अक्षुब्ध बुद्धि वाला, सत्पदार्थों की उपलब्धि करने वाला और मोहतिमिर पटलसे विमुक्तदृष्टियुक्त यह जैनेन्द्रपूजा, प्रवचनवात्सल्य और संयमादि प्रशंसा में तत्पर रहकर देशघातिकर्मों के क्षयोपशम से संयमासंयम को प्राप्त कर श्रावक हो जाता है। फिर विशुद्धिप्रकर्ष से समस्त गृहस्थ-सम्बन्धी परिग्रहों से मुक्त हो निर्ग्रन्थता का अनुभव कर महाव्रती बन जाता है। इसी तरह आगे-आगे विशुद्धिप्रकर्ष से असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।

क्षै धातु से आत्व और मित्संज्ञा होकर ह्रस्वत्व होनेपर क्षपक शब्द बन जाता है।