
सर्वार्थसिद्धि :
अर्थ ध्येय को कहते हैं। इससे द्रव्य और पर्याय लिये जाते हैं। व्यञ्जन का अर्थ वचन है तथा काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं। संक्रान्ति का अर्थ परिवर्तन है। द्रव्य को छोड़कर पर्याय को प्राप्त होता है और पर्याय को छोड़ द्रव्य को प्राप्त होता है-यह अर्थसंक्रान्ति है। एक श्रुतवचन का आलम्बन लेकर दूसरे वचन का आलम्बन लेता है और उसे भी त्यागकर अन्य वचन का आलम्बन लेता है-यह व्यंजन-संक्रान्ति है। काययोग को छोड़कर दूसरे योग को स्वीकार करता है और दूसरे योग को छोड़कर काययोग को स्वीकार करता है-यह योगसंक्रान्ति है। इस प्रकार के परिवर्तन को वीचार कहते हैं। सामान्य और विशेष रूप से कहे गये इस चार प्रकार के धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान को पूर्वोक्त गुप्ति आदि बहुत प्रकार के उपायों से युक्त होने पर संसार का नाश करने के लिए जिसने भले प्रकार से परिकर्म को किया है ऐसा मुनि ध्यान करने के योग्य होता है। जिस प्रकार अपर्याप्त उत्साह से युक्त बालक अव्यवस्थित और मौथरे शस्त्र के द्वारा भी चिरकाल में वृक्ष को छेदता है उसी प्रकार चित्त की सामर्थ्य को प्राप्तकर जो द्रव्यपरमाणु और भावपरमाणु का ध्यान कर रहा है वह अर्थ और व्यंजन तथा काय और वचन में पृथक्त्व रूपसे संक्रमण करने वाले मन के द्वारा मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशमन और क्षय करता हुआ पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान को धारण करने वाला होता है। पुन: जो समूल मोहनीय कर्म का दाह करना चाहता है, जो अनन्तगुणी विशुद्धि विशेष को प्राप्त होकर बहुत प्रकार की ज्ञानवरण की सहायीभूत प्रकृतियों के बन्ध को रोक रहा है, जो कर्मों की स्थिति को न्यून और नाश कर रहा है, जो श्रुतज्ञान के उपयोग से युक्त है, जो अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति से रहित है, निश्चल मनवाला है, क्षीणकषाय है और वैडूर्यमणि के समान निरुपलेप है वह ध्यान करके पुन- नहीं लौटता है। इस प्रकार उसके एकत्ववितर्क ध्यान कहा गया है। इस प्रकार एकत्ववितर्क शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा जिसने चार घातिया कर्मरूपी ईंधन को जला दिया है, जिसके केवलज्ञानरूपी किरणसमुदाय प्रकाशित हो गया है, जो मेघमण्डल का निरोध कर निकले हुए सूर्य के समान भासमान हो रहा है ऐसे भगवान्, तीर्थंकर केवली या सामान्य केवली इन्द्रों के द्वारा आदरणीय और पूज्यनीय होते हुए उत्कृष्टरूप से कुछ कम पूर्व कोटि काल तक विहार करते हैं। वह जब आयु में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है तथा वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति आयुकर्म के बराबर शेष रहती है तब सब प्रकार के वचनयोग, मनोयोग और बादरकाययोग को त्यागकर तथा सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को स्वीकार करता है, परन्तु जब उन सयोगी जिन के आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है और शेष तीन कर्मों की स्थिति उससे अधिक शेष रहती है तब जिन्हें सातिशय आत्मोपयोग प्राप्त है, जिन्हें सामायिक का अवलम्बन है, जो विशिष्ट करण से युक्त हैं, जो कर्मों का महासंवर कर रहे हैं और जिनके स्वल्पमात्रा में कर्मों का परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने आत्मप्रदेशों के फैलने से कर्मरज को परिशातन करने की शक्तिवाले दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को चार समयों के द्वारा करके अनन्तर प्रदेशों के विसर्पण का संकोच करके तथा शेष चार कर्मों की स्थिति को समान करके अपने पूर्व शरीरप्रमाण होकर सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को स्वीकार करते हैं। इसके बाद चौथे समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति ध्यान को आरम्भ करते हैं। इसमें प्राणापान के प्रचाररूप क्रिया का तथा सब प्रकार के कर्मबन्ध के आस्रव का निरोध हो जाने से तथा बाकी के बचे सब कर्मों के नाश करने की शक्ति के उत्पन्न हो जाने से अयोगिकेवली के संसार के सब प्रकार के दु:खजाल के सम्बन्ध का उच्छेद करने वाला सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्र, ज्ञान और दर्शनरूप साक्षात् मोक्ष का कारण उत्पन्न होता है। वे अयोगिकेवली भगवान् उस समय ध्यानातिशयरूप अग्नि के द्वारा सब प्रकार के मल-कलंक बन्धन को जलाकर और किट्ट धातु व पाषाण का नाश कर शुद्ध हुए सोने के समान अपने आत्मा को प्राप्तकर परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार यह दोनों प्रकार का तप नूतन कर्मों के आस्रव के निरोध का हेतु होने से संवर का कारण है और प्राक्तन कर्मरूपी रज के नाश करने का हेतु होने से निर्जरा का भी हेतु है। यहाँ कहते हैं कि सब सम्यग्दृष्टि क्या समान निर्जरावाले होते हैं या कुछ विशेषता है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं- |
राजवार्तिक :
अर्थ--ध्येय द्रव्य या पर्याय, व्यञ्जन--शब्द, और योग--मन-वचन-काय के परिवर्तन को वीचार कहते हैं। द्रव्य को छोडकर पर्याय को और पर्याय को छोड़कर द्रव्य को विषय बनाना अर्थसंक्रान्ति है। किसी एक श्रुतवचन का ध्यान करते-करते वचनान्तर में पहुँचना और उसे छोड़कर अन्य का ध्यान करना व्यञ्जनसंक्रान्ति है। काययोग को छोड़कर मनोयोग या वचनयोग का अवलम्बन लेना तथा उन्हें छोड़कर काययोग का आलम्बन लेना योगसंक्रान्ति है। इस तरह गुप्ति आदि की भूमिका पर ध्याये गये ये ध्यान कर्म-बन्धन काटने में समर्थ होते हैं। इनका प्रारम्भ करने के लिए यह परिकर्म अर्थात् तैयारी अपेक्षित होती है उत्तम-शरीर-संहनन होकर भी परीषहों के सहने की क्षमता का आत्म-विश्वास हुए बिना ध्यान-साधना नहीं हो सकती। परीषहों की बाधा सहकर ही ध्यान प्रारम्भ किया जा सकता है। पर्वत, गुफा, वृक्ष की खोह, नदी, तट, पुल, श्मशान, जीर्ण-उद्यान और शून्यागार आदि किसी स्थान में व्याघ्र, सिंह, मृग, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जन्तु, समशीतोष्ण, अतिवायुरहित, वर्षा, आतप आदि से रहित, तात्पर्य यह कि सब तरफ से बाह्य-आभ्यन्तर बाधाओं से शून्य और पवित्र भूमि पर सुखपूर्वक पल्यंकासन से बैठना चाहिये । उस समय शरीर को सम ऋजु और निश्चल रखना चाहिये। बाएँ हाथ पर दाहिना रखकर न खुले हुए और न बन्द किन्तु कुछ खुले हुए दाँतों पर दाँतों को रखकर, कुछ ऊपर किये हुए सीधी कमर और गम्भीर गर्दन किये हुए प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्यदृष्टि होकर निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर मन्द-मन्द श्वासोच्छास लेनेवाला साधु ध्यान की तैयारी करता है । वह नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक या और कहीं अभ्यासानुसार चित्तवृत्त को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है । इस तरह एकाग्रचित्त होकर राग, द्वेष, मोह का उपशम कर कुशलता से शरीरक्रियाओं का निग्रह कर मन्द श्वासोच्छ्वास लेता हुआ निश्चित लक्ष्य और क्षमाशील हो बाह्य आभ्यन्तर द्रव्य पर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क की सामर्थ्ययुक्त हो अर्थ और व्यंजन तथा मन-वचन-काय की पृथक-पृथक संक्रान्ति करता है। वह असीम बल और उत्साह से मन को सबल बनाकर अव्यवस्थित और भौथरे शस्त्र से वृक्ष को छेदने की तरह मोह-प्रकृतियों का उपशम या क्षय करनेवाला पृथक्त्व-वितर्क-वीचार ध्यान ध्याता है। फिर शक्ति की कमी से योग से योगान्तर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और अर्थ से अर्थान्तर को प्राप्त कर मोहरज का विधूनन कर ध्यानसे निवृत्त होता है । यह पृथक्त्ववितर्क-वीचार ध्यान है। इसी विधि से मोहनीय का समूलतल उच्छेद करने की तीव्र इच्छा से अनन्तगुणविशुद्ध योग सहित हो ज्ञानावरण के सहायभूत बहुत-सी मोहनीय प्रकृतियों के बन्ध को रोकता हुआ उनकी स्थिति का ह्रास और क्षय करके श्रुत-ज्ञानोपयोगवाला वह अर्थ, व्यंजन और योग संक्रान्ति को रोककर एकाग्र निश्चल चित्त हो वैडूर्यमणि की तरह निर्लेप क्षीणकषाय हो ध्यान धारण कर फिर वापिस नहीं होता। यह एकत्ववितर्क ध्यान है। इस तरह एकत्ववितर्क शुक्लध्यानाग्नि से जिसने घातिकर्मरूपी ईंधन को जला दिया है, प्रज्वलित केवलज्ञानसूर्य जिसका प्रकाशमान है, मेघ-समूह को भेदकर निकले हुए किरणों से सर्वतः भासमान भगवान् तीर्थकर या अन्यकेवली लोकेश्वरों द्वारा अभिवन्दनीय अर्चनीय और अभिगमनीय होते हैं। वे कुछ कम पूर्वकोटिकाल तक उपदेश देते रहते है। जब उनकी आयु अन्तमुहूर्त शेष रह जाती है और वेदनीय नाम और गोत्र की स्थिति भी उतनी ही रहती है तब सभी वचन और मनोयोग तथा बादरकाययोग को छोड़कर सूक्ष्मयोग का आलम्बन ले सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान प्रारम्भ करते हैं। जब आयु अन्तर्मुहूर्त हो तथा वेदनीय, नाम और गोत्र की स्थिति अधिक हो तब विशिष्ट आत्मोपयोगवाली परमसामायिकपरिणत महासंवररूप और जल्दी कर्मों का परिपाक करनेवाली समुद्घातक्रिया की जाती है । वह इस क्रिया से शेष कर्मरेणुओं का परिपाक करने के लिये चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण अवस्था में आत्मप्रदेशों को पहुँचाकर फिर क्रमशः चार ही समयों में उन प्रदेशों का संहरण कर चारों कर्मों की स्थिति समान कर लेता है । इस दशा में वह फिर अपने शरीरपरिमाण हो जाता है । इस तरह सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म-क्रियाप्रतिपाति ध्यान ध्याया जाता है। इसके बाद समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ध्यान प्रारम्भ होता है। श्वासोच्छास आदि समस्त काय, वचन और मन-सम्बन्धी व्यापारों का निरोध होने से यह ध्यान समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति कहलाता है। इस ध्यान में समस्त आस्रव-बन्ध का निरोध होकर समस्त कर्मों के नष्ट करने की सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है। इसके धारक अयोगकवली के संसार दुःखजाल के उच्छेदक साक्षात् मोक्षमार्ग के कारण सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्र ज्ञान और दर्शन आदि प्राप्त हो जाते हैं। वे ध्यानाग्नि से समस्त मल कलंक कर्मबन्धों को जलाकर निर्मल और किट्टरहित सुवर्ण की तरह परिपूर्ण स्वरूपलाभ करके निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। इस तरह यह तप संवर और निर्जरा दोनों का कारण होता है। |