
सर्वार्थसिद्धि :
कहते हैं अन्त में कहे गये मोक्ष के स्वरूप के कथन का अब समय आ गया है। यह कहना सही है तथापि केवलज्ञान की उत्पत्ति होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिए पहले केवलज्ञान की उत्पत्ति के कारणों का निर्देश करने के लिए आगे का सूत्र कहते है- मोह का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है।।1।। इस सूत्र में समास करना उचित है, क्योंकि इससे सूत्र लघु हो जाता है। शंका – कैसे ? प्रतिशंका - क्योंकि ऐसा करने से एक क्षय शब्द नहीं देना पड़ता है और अन्य विभक्ति के निर्देश का अभाव हो जाने से 'च' शब्द का प्रयोग नहीं करना पड़ता है, इसलिए सूत्र लघु हो जाता है। यथा -'मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात्केवलम्'। समाधान – यह कहना सही है तथापि क्षय के क्रम का कथन करने के लिए वाक्यों का भेद करके निर्देश किया है। पहले ही मोह का क्षय करके और अन्तर्मुहूर्त काल तक क्षीणकषाय संज्ञा को प्राप्त होकर अनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का एक साथ क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त होता है। इन कर्मों का क्षय केवलज्ञान की उत्पत्ति का हेतु है ऐसा जानकर 'हेतुरूप' विभक्ति का निर्देश किया है। शंका – पहले ही मोह के क्षय को कैसे प्राप्त होता है ? समाधान – परिणामों की विशुद्धि द्वारा वृद्धि को प्राप्त होता हुआ असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में-से किसी एक गुणस्थान में मोहनीय की सात प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर क्षपक श्रेणि पर आरोहण करने के लिए सम्मुख होता हुआ अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अध:प्रवृत्तकरण को प्राप्त होकर अपूर्वकरण के प्रयोग द्वारा अपूर्वकरण क्षपक गुणस्थान संज्ञा का अनुभव करके और वहाँ पर नूतन-परिणामों की विशुद्धिवश पापप्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग को कृश करके तथा शुभकर्मों के अनुभाग की वृद्धि करके अनिवृत्तिकरण की प्राप्ति द्वारा अनिवृत्तिबादरसाम्पराय क्षपकगुणस्थान पर आरोहण करके तथा वहाँ आठ कषायोंका नाश करके तथा नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का क्रम से नाश करके, छह नोकषाय का पुरुषवेद में संक्रमण द्वारा नाश करके तथा पुरुषवेद का क्रोधसंज्वलन में, क्रोधसंज्वलन का मानसंज्वलन में, मानसंज्वलन का मायासंज्वलन में और मायासंज्वलन का लोभसंज्वलन में क्रम से बादरकृष्टिविभाग के द्वारा संक्रमण करके तथा लोभसंज्वलन को कृश करके, सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकत्व का अनुभव करके, समस्त मोहनीय का निर्मूल नाश करके, क्षीणकषाय गुणस्थान पर आरोहण करके, मोहनीय के भार को उतारकर क्षीणकषाय गुणस्थान के उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला का नाश करके तथा अन्तिम समय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्मों का अन्त करके तदनन्तर ज्ञानदर्शनस्वभाव अवितर्क्य विभूति विशेषरूप केवलपर्याय को प्राप्त होता है। कहते हैं कि किस कारण से मोक्ष प्राप्त होता है और उसका लक्षण क्या है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
संवर के द्वारा जिसकी परम्परा की जड़ काट दी गई है और चारित्र-ध्यानाग्नि के द्वारा जिसकी सत्ता का सर्वथा लोप कर दिया है उस मोहनीय का क्षय हो जाने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय होते ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है । यहाँ 'उत्पन्न' होता है ऐसा उपदेश दिया गया है । इस वाक्यशेष का अन्वय कर लेना चाहिये । 1-2. मोहक्षय का पृथक-प्रयोग क्रमिक क्षय की सूचना देने के लिए है । पहिले मोहक्षय करके अन्तर्मुहूर्त तक क्षीणकषाय पद को पाकर फिर एक साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय का क्षय कर कैवल्य प्राप्त करता है । मोह का क्षय ही मुख्यतया केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण है, यह जताने के लिए पंचमी-विभक्ति से मोहक्षय की हेतुता का द्योतन किया है । 3. मोहादि का क्षय परिणाम-विशेषों से होता है । पूर्वोक्त तैयारी के साथ परम-तप को धारण कर प्रशस्त-अध्यवसाय से उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए साधक के शुभ-प्रकृतियों का अनुभाग बढ़ता है और अशुभ प्रकृतियाँ कृश होकर विलीन हो जाती हैं । कोई वेदक-सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त-गुणस्थान में सात प्रकृतियों के उपशम का प्रारम्भ करता है । कोई साधक असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत या अप्रमत्त-संयत किसी भी गुणस्थान में सात प्रकृतियों का क्षयकर क्षायिक-सम्यग्दृष्टि हो चारित्रमोह का उपशम प्रारम्भ करता है । फिर अथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करके उपशमश्रेणी चढ़कर अपूर्वकरण-उपशमक व्यपदेश को प्राप्तकर वहाँ नवीन परिणामों से पाप-कर्मों के प्रकृति, स्थिति और अनुभाग को क्षीणकर शुभ-कर्मों के अनुभाग को बढ़ाता हुआ अनिवृत्तिबादर साम्परायक गुणस्थान में जा पहुँचता है । वहाँ नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, नव नोकषाय, पुंवेद, अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान दो क्रोध, दो माया, दो लोभ, क्रोध-संज्वलन और मान-संज्वलन इन प्रकृतियों का क्रमशः उपशमन कर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में पहुँचता है । वहाँ प्रथम समय में माया संज्वलन को उपशमकर, लोभ-संज्वलन को क्षीणकर, सूक्ष्मसाम्परायोपशमक कहलाता है । फिर उपशान्तकषाय के प्रथम समय में लोभ-संज्वलन का उपशम कर समस्त मोह का उपशम होने से उपशान्त-कषाय कहलाता है । यहाँ आयु के क्षय से मरण हो सकता है । अथवा फिर कषायों की उदीरणा होने से नीचे गिर जाता है । वही या अन्य कोई विशुद्ध अध्यवसाय से अपूर्व उत्साह को धारण करता हुआ पहिले की तरह क्षायिक-सम्यग्दृष्टि होकर बड़ी भारी विशुद्धि से क्षपक श्रेणी चढ़ता है । अथाप्रवृत्त आदि तीन करणों से अपूर्वकरण-क्षपक अवस्था को प्राप्त कर उससे आगे आठ कषायों का नाश कर नपुंसक-वेद और स्त्री-वेद को उखाड़कर छह नोकषायों को पुंवेद में, पुंवेद को क्रोध-संज्वलन में, क्रोध-संज्वलन को मान में, मान को माया में, माया को लोभ में डालकर क्रमश: क्षय करके अनिवृत्तिबादर साम्परायक क्षपक गुणस्थान में पहुँचता हुआ लोभ-संज्वलन को सूक्ष्म करके सूक्ष्मसाम्परायक हो जाता है । उससे आगे समस्त मोहनीय-कर्म का निर्मूल क्षय करके क्षीणकषायगुणस्थान में मोहनीय का समस्त भार उतार कर फेंक देता है । वह उपान्त्य-समय में निद्रा-प्रचला का क्षय करके पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायों का अन्त समय में विनाश कर अचिन्त्य विभूतियुक्त केवलज्ञान दर्शनस्वभाव को निष्प्रतिपक्षीरूप से प्राप्त कर कमल की तरह निर्लिप्त और निरुपलेप होकर साक्षात् त्रिकालवर्ती सर्वद्रव्य पर्यायों का ज्ञाता सर्वत्र अप्रतिहत अनन्तदर्शनशाली कृतकृत्य मेघ-पटलों से विमुक्त, शरत्कालीन पूर्णचन्द्र की तरह सौम्यदर्शन और प्रकाशमानमूर्ति केवली हो जाता है । इन केवल ज्ञानदर्शनवाले सशरीरी ऐश्वर्यशाली घातिया कर्मों के नाशक और वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-कर्म की सत्तावाले केवली के बन्ध के कारणों का अभाव और निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों का मोक्ष होने को मोक्ष कहा है । |