
सर्वार्थसिद्धि :
मिथ्यादर्शनादिक हेतुओं का अभाव होने से नूतन कर्मों का अभाव होता है और पहले कही गयी निर्जरारूप हेतु के मिलने पर अर्जित कर्मों का नाश होता है। इन दोनों से, 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम्' यह हेतुपरक विभक्ति का निर्देश है, जिसने भवस्थिति के हेतुभूत आयुकर्म के बराबर शेष कर्मों की अवस्था को कर लिया है उसके उक्त कारणों से एक साथ समस्त कर्मों का आत्यन्तिक वियोग होना मोक्ष है ऐसा जानना चाहिए। कर्म का अभाव दो प्रकार का है - यत्नसाध्य और अयत्नसाध्य। इनमें-से चरम देहवाले के नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु का अभाव यत्नसाध्य नहीं होता, क्योंकि चरम देहवाले के उनका सत्व नहीं उपलब्ध होता। आगे यत्न-साध्य अभाव कहते हैं - असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में सात प्रकृतियों का क्षय करता है। पुन: निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नामवाली सोलह कर्मप्रकृतियों का अनिवृत्तिबादरसाम्पराय गुणस्थान में एक साथ क्षय करता है। इसके बाद उसी गुणस्थान में आठ कषायों का नाश करता है। पुन: वहीं पर नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का क्रम से क्षय करता है। तथा छह नोकषायों को एक ही प्रहार के द्वारा गिरा देता है। तदनन्तर पुरुषवेद संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान और संज्वलनमाया का वहाँ पर क्रम से अत्यन्त क्षय करता है। तथा लोभसंज्वलन सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के अन्त में विनाश को प्राप्त होता है। निद्रा और प्रचला क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान के उपान्त्य समय में प्रलय को प्राप्त होते हैं। पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्मों का उसी गुणस्थान के अन्तिम समय में क्षय होता है। कोई एक वेदनीय, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, छह संस्थान, औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग, छह संहनन, पाँच प्रशस्त वर्ण, पाँच अप्रशस्त वर्ण, दो गन्ध, पाँच प्रशस्त रस, पाँच अप्रशस्त रस, आठ स्पर्श, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दु:स्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र नामवाली बहत्तर प्रकृतियों का अयोगकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में विनाश होता है तथा कोई एक वेदनीय, मनुष्य आयु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वी, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश:कीर्ति, तीर्थंकर और उच्चगोत्र नामवाली तेरह प्रकृतियों को अयोगकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में वियोग होता है। कहते हैं कि क्या इन पौद्गलिक द्रव्यकर्म प्रकृतियोंके वियोग से ही मोक्ष मिलता है या भावकर्मों के भी अभाव से मोक्ष मिलता है इस बातको बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं- |
राजवार्तिक :
1-2. मिथ्यादर्शन आदि बन्ध-हेतुओं के अभाव से नूतन कर्मों का आना रुक जाता है। कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता हो है। पूर्वोक्त निर्जरा के कारणों से संचित कर्मों का विनाश होता है । इन कारणों से आयु के बराबर जिनकी स्थिति कर ली गई है ऐसे वेदनीय आदि शेष कर्मों का युगपत् आत्यन्तिक क्षय हो जाता है । 63. प्रश्न – कर्मबन्ध सन्तान जब अनादि है तो उसका अन्त नहीं होना चाहिये ? उत्तर – जैसे बीज और अंकुर की सन्तान अनादि होने पर भी अग्नि से अन्तिम बीज को जला देने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी तरह मिथ्यादर्शनादि प्रत्यय तथा कर्मबन्ध सन्तति के अनादि होने पर भी ध्यानाग्नि से कर्मबीजों के जला देने पर भवांकुर का उत्पाद नहीं होता । यही मोक्ष है । कहा भी है - "जैसे बीज के जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी तरह कर्मबीज के जल जाने पर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता।" कृत्स्न का कर्मरूप से क्षय हो जाना ही कर्मक्षय है; क्योंकि विद्यमान द्रव्य का द्रव्यरूप से अत्यन्त विनाश नहीं होता । पर्यायें उत्पन्न और विनष्ट होतीं हैं अतः पर्यायरूप से द्रव्य का व्यय होता है। अतः पुदलद्रव्य की कर्मपर्याय का प्रतिपक्षी कारणों के मिलने से निवृत्ति होना क्षय है। उस समय पुद्गल-द्रव्य अकर्म पर्याय से परिणत हो जाता है। 4. मोक्षशब्द भावसाधन है। वह मोक्तव्य और मोचक की अपेक्षा द्विविषयक है, क्योंकि वियोग दो का होता है। कृत्स्न अर्थात् सत्ता, बन्ध, उदय और उदीरणा रूप से चार भागों में बँटे हुए आठों कर्म । कर्म का अभाव दो प्रकार का होता है - एक यत्नसाध्य और दूसरा अयत्नसाध्य । चरमशरीर के नारक तिर्यंच और देवायु का अभाव अयत्नसाध्य है, क्योंकि इनका स्वयं अभाव है। यत्नसाध्य इस प्रकार है - असंयत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में किसी में अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों का विषवृक्षवन शुभाध्यवसायरूप तीक्ष्ण फरसे से समूल काटा जाता है। निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों की सेना को अनिवृत्तिबादरसाम्पराय युगपत् अपने समाधिचक्र से जीतता है और उसका समूल उच्छेद कर देता है। इसके बाद प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ इन आठ कषायों का नाश करता है। वहीं नपुंसकवेद, स्त्रीवेद तथा छह नोकषायों का क्रम से क्षय होता है। इसके बाद पुंवेद, संज्वलन क्रोध, मान और माया क्रम से नष्ट होती हैं। लोभ-संज्वलन, सूक्ष्मसाम्पराय के अन्त में नाश को प्राप्त होता है। क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ के उपान्त्य-समय में निद्रा और प्रचला क्षय को प्राप्त होते हैं । पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायों का बारहवें के अन्त में क्षय होता है । कोई एक वेदनीय, देवगति, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मणशरीर, छह संस्थान, औदारिक-वैक्रियिक-आहारक अंगोपांग, छह-संहनन, पाँच-प्रशस्तवर्ण, पाँच-अप्रशस्तवर्ण, दो-गन्ध, पाँच-प्रशस्तरस, पाँच-अप्रशस्तरस, आठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्तक, प्रत्येक-शरीर, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, दुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीर्ति, निर्माण और नीच-गोत्रसंज्ञक 72 प्रकृतियों का अयोगकेवली के उपान्त्य समय में विनाश होता है। कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, त्रस, बादर, पर्याप्तक, सुभग, आदेय, यशस्कीर्ति, तीर्थंकर और उच्चगोत्र इन तेरह प्रकृतियों का अयोगकेवली के चरम समय में व्युच्छेद होता है। |